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अनुवादकीय वक्तव्य
मूलके अनुकूल वाद-कथनको अनुवाद कहते हैं । जो अनुवाद मूलका ठीक-ठीक अनुसरण न करे, मूलकी सीमासे बाहर निकल जाय अथवा बीच-बीच में इधर-उधरकी कुछ ऐसी दूसरी बातोंको अपने में समाविष्ट करे, जिनका प्रकृत विषयके साथ कोई सम्बन्ध न हो वह अनुवाद कहलानेके योग्य नहीं । अनुवाद्य-ग्रन्थ यहाँ 'देवागम' है, जो स्वामी जैसे उन अद्वितीय महान् आचार्यकी अपूर्व कृति है जिनके वचनोंको उत्तम पुरुषों के कण्ठोंका आभूषण बननेवाली बड़े-बड़े गोल-सुडौल मोतियोंकी मालाओंकी प्राप्तिसे अधिक दुर्लभ बतलाया है । भव-भ्रमण करते हुए संसारी प्राणियोंको मनुष्य-भवके समान दुर्लभ दर्शाया है और भगवान् महावीर-वाणीके समकक्ष दैदीप्यमान घोषित किया है । देवागम यह नाम ग्रन्थके 'देवागम' शब्दसे प्रारम्भ होनेसे सम्बन्ध रखता है; जैसे भक्तामर, कल्याणमन्दिर, स्वयम्भूस्तोत्रादि ग्रन्थ प्रारम्भिक शब्दके अनुरूप अपने-अपने नामोंको लिए हुए हैं उसी प्रकार यह ग्रन्थ भी, जो वस्तुतः एक असाधारण कोटिका स्तोत्र-ग्रन्थ है, अपने प्रारम्भिक शब्दानुसार 'देवागम' कहा गया है । इसका दूसरा नाम 'आप्तमीमांसा' है, जो आप्तों-सर्वज्ञ कहे जानेवालोंके वचनोंकी परीक्षाद्वारा उनके मतोंके सत्यासत्यनिर्णयकी दृष्टिको लिए हुए है । समन्तभद्रके सभी ग्रन्थ दो-दो नामोंको लिए हुए हैं; जैसे 'जिनशतक' का दूसरा नाम 'स्तुतिविद्या' और युक्त्यनुशासनका दूसरा नाम 'वीरजिनस्तोत्र' है, जो देवागमके बाद सब आप्तों-सर्वज्ञोंकी परीक्षा कर लेनेके अनन्तर-श्रीवीरजिनकी स्तुतिमें लिखा गया है । समन्तभद्रके किसी भी ग्रन्थका नाम केवल प्रारम्भिक शब्दके आधारपर ही नहीं है किन्तु साथमें गुणप्रत्यय भी है, देवागम भी ऐसा ही नाम है वह मूलकारिकानुसार देवोंके आगमनका वाचक ही नहीं बल्कि जिनेन्द्र देवका आगमन जिसके द्वारा व्यक्त होता है उस अर्थका भी वाचक है ।
देवागमको मूल कारिकाएँ कुल १९४ हैं, देखनेमें प्रायः सरल जान
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