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व्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका । श्रुतज्ञान के पद और अक्षर
श्रु तज्ञान के असंयोगी समस्त वर्णों का प्रमाण चौसठ है। इनके निमित्त से जितने संयोगी अक्षर उत्पन्न होते हैं, उनमें असंयोगी वर्गों को मिला देने से श्रु तज्ञान के अक्षरों का प्रमाण होता है। इसका खुलासा इस प्रकार है-अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ऐ, ओ और औ ये नौ स्वर ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस होते हैं । क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग और प वर्ग ये पच्चीस तथा य, र, ल, व, श, ष, स, और ह ये आठ, इस प्रकार कुल मिलाकर तैंतीस व्यंजन होते हैं । तथा अं, अः, " क प ये चार योगवाह होते हैं । इस प्रकार सत्ताईस स्वर, तैतीस व्यंजन और चार योगवाह सब मिलाकर चौसठ अक्षर होते हैं। इनके द्विसंयोगो, त्रिसंयोगी आदि चौसठ संयोगी अक्षरों का प्रमाण निकालकर उसमें मूल चौसठ वर्गों को जोड़ देने से कुछ द्रव्यश्रुत के अक्षरों का प्रमाण १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ होता है। संसार के किसी भी भाषा के अक्षर इससे बाहर नहीं होते। ___ अब श्रुत के पदों का प्रमाण लीजिए-पद के तीन भेद हैं-प्रमाण पद, अर्थ पद और मध्यम पद । जो आठ अक्षरों से बनता है उसे प्रमाण पद कहते हैं । जैसे-'धम्मो मंगलमुक्कळं । चार प्रमाण पदों का एक श्लोक होता है । इस प्रमाण पद के द्वारा सामायिक आदि अंग बाह्य ग्रन्थों के पदों की और श्लोकों की संख्या आँकी जाती है कि अमुक अंगबाह्य में इतने पद तथा इतने श्लोक हैं ।
जितने अक्षरों से अर्थ का बोध होता है उतने अक्षरों के समुदाय को अर्थ पद कहते हैं । जैसे 'प्रमाण के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के एक देश के निश्चय करने को नय कहते हैं।' इस वाक्य से नय का बोध होता है; इसलिए यह एक अर्थ पद है।
__ सोलह सौ चौतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार, आठ सौ अठासी अक्षरों का एक मध्यम पद होता है। इस मध्यम पद के द्वारा अंग और पूर्वो के पदों की संख्या का प्रमाण कहा जाता है। अर्थात् मध्यम पद के अक्षरों के द्वारा श्रुतज्ञान के सम्पूर्ण अक्षरों को भाजित करने पर सम्पूर्ण बारह अंगों के एक सौ बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार पाँच पद होते हैं। बारह अंगों में निबद्ध अक्षरों से आठ करोड़, एक लाख, आठ हजार एक सौ पचहत्तर अक्षर शेष बचते हैं । इन अक्षरों को बत्तीस से भाजित करने पर चौदह अंग बाह्य श्लोकों का प्रमाण पच्चीस लाख, तीन हजार तीन सौ अस्सी होता है ।
परम पूज्य आर्यिकारत्न १०५ श्री सुपार्श्वमती माताजी एक परम विदुषी