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अंगपण्णत्ति : एक परिचय दिगम्बर जैन आचार्य परम्परा में शुभचन्द्र नामके अनेक आचार्य हुए हैं। एक शुभचन्द्र वे हैं जिन्होंने "ज्ञानार्णव" नामका प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा है । इनका काल संभवतः ७वीं या ८वीं शताब्दि का है । 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष' के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इन शुभचन्द्र आचार्य का काल ई० सन् १००३ से १०६८ के बीच रहा हो। ये शुभचन्द्र किस संघ या गण गच्छ के थे और उनके गुरु का क्या नाम था, इसका अभी तक कोई पता नहीं चला । 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ की उपलब्ध प्रतियों में इसका कोई संकेत नहीं मिलता।
'अंगपण्णत्ति' नामक यह छोटा-सा ग्रन्थ आचार्य शुभचन्द्र की एक महान् कृति है । ये शुभचन्द्र कौन से शुभचन्द्र है, इसके बारे में सटीक कुछ कहा नहीं जा सकता । इतिहासज्ञों एवं शोधकर्ताओं के लिए यह एक शोध का विषय है । जो भी हो यह छोटा सा ग्रन्थ अपने आप में एक अभिनव ग्रन्थ है।
समस्त द्रव्य और पर्यायों को जानने की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही समान हैं । अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूप से जानता है और श्रुतज्ञान परोक्ष रूप से । अतएव श्रुतज्ञान की प्रमाणता असंदिग्ध है। स्वामी समन्तभद्र ने केवलज्ञान और स्याद्वादमय श्रु तज्ञान को समस्त पदार्थों का समान रूप से प्रकाशक माना है । दोनों में केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष का ही अन्तर है ।
श्रुत के मूल दो भेद हैं-द्रव्यश्रुत और भाव त । आप्त के उपदेशरूप द्वादशांगवाणी को द्रव्यश्रुत और उससे होने वाले ज्ञान को भावश्रुत कहते हैं । ग्रन्थ रूप द्रव्यश्रु त के मूल दो भेद हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंग बाह्य के १२ भेद है-(१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) समवायांग (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (६) ज्ञात धर्म कथा (७) उपासकाध्यनांग (८) अन्तःकृदशांग (९) अनुत्तरोपपादिक (१०) प्रश्न व्याकरणांग (११) विपाक श्रुतांग (१२) दृष्टिवावांग । जैसे पुरुष के शरीर में दो पैर, दो जांघ, दो उरु, दो हाथ, एक पीठ, एक उदर, एक छाती और एक मस्तक ये बारह अंग होते हैं । उसी प्रकार श्रुतज्ञान रूपी पुरुष के भी बारह अंग होते हैं । सर्वज्ञ , वीतरागी, अर्हन्त तीर्थकर के मुखारविन्द से सुना हुआ ज्ञान होने के कारण ही यह श्रुतज्ञान कहलाता है ।
द्रव्यश्रुत के दूसरे भेद अंग बाह्य के चौदह भेद है-सामायिक, चतुर्विशति स्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प