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तप्पयसेवणसत्तो तेवेज्जो उहयभास परिवेई । सुहचंदो तेण इणं रइयं सत्थं समासेण ॥५२॥
तत्पदसेवनसक्तः त्रैविद्यः उभयभाषापरिसेवी ।
शुभचन्द्रस्तेनेदं रचितं शास्त्रं समासेन ॥५२॥ अर्थ-श्री सकलकीर्ति आचार्य के पट्ट पर परमगुरु भुवनकीर्ति आसीन हुए। उनके पट्ट पर भट्टारक कमलभानु, उनके पट्ट पर बोधभूषण, उनके पट्ट पर नाना शास्त्र के प्रकाशक, धीर विद्वज्जनों के द्वारा सेवित पदयुगल, बोधभूषण के चरण केशर में आसक्त भ्रमर श्री विजयकीतिदेव आसीन हुए थे। ___ श्री विजयकीर्ति के पट्ट पर उनके चरणों को सेवन में आसक्त तथा उभय (संस्कृत प्राकृत) भाषा का ज्ञाता त्रविद्य नामक आचार्य आसीन हुए थे । विद्य के शिष्य शुभचन्द्र आचार्यदेव ने संक्षेप में इस अंगपण्णत्ति नामक शास्त्र की रचना की है ॥ ५०-५१-५२ ॥ ___ इस कथन के अनुसार शुभचन्द्र त्रैविद्य मुनिराज के शिष्य हैं-इस अंगपण्णत्ति" के कर्ता। ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य ने जिनसेन की स्तुति करते समय लिखा है
"जयन्ती जिनसेनस्य वाचस्त्रविद्यवन्दिताः।
योगिभिर्याः समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये ॥१६॥ "जिनके वचन त्रैविद्य के द्वारा वन्दित हैं, पूजित है।" यह शब्द विचारणीय है । यद्यपि हिन्दी कर्ता ने विद्य का अर्थ न्याय, व्याकरण और सिद्धान्त इन तीन विद्याओं के ज्ञाताओं के द्वारा वन्दित कहा है । यह "विद्य" शब्द गोमट्टसार में भी आया है, परन्तु अंगपण्णत्ति में लिखित "विद्य" से यह सिद्ध होता है-वे शुभचन्द्राचार्य के गुरुदेव थे तथा जिनसेन के समकालीन थे। परन्तु जब आदि की परम्परा को देखते हैं तब लगता है कोई दूसरे हैं । इनका निर्णय करना कठिन है कि अंगपण्णत्ति के कर्ता शुभचंद्र आचार्य कौन से हैं ? पाण्डवपुराण आदि के कर्ता हैं या ज्ञानार्णव के ? ___ मुझे आश्चर्य होता है कि जिन्होंने कभी स्कूली शिक्षा भी प्राप्त नहीं की, जो स्वयं अशिक्षित रहकर M.A. एवं Ph.D. करने वाले छात्र-छात्राओं को भी शिक्षा दी, जिनके जीवन में 'असम्भव' जैसा कोई शब्द नहीं यानि 'अंगपण्णत्ति' जैसे कठिन ग्रन्थ, जो प्राकृत भाषा में निबद्ध है, जिसमें हिन्दी का कहीं भी संकेत नहीं, ऐसे ग्रन्थ को भी जिन्होंने अपनी प्रतिभा एवं अभीक्षणज्ञानोपयोग के द्वारा सरल, सुवाच्य शब्दों में हिन्दी रूपान्तरण किया। ___ समुत्कृष्ट चारित्र की धनी इनकी जीवनचर्या से स्पष्ट झलकता है कि इनका एक क्षण, एक पल कभी व्यर्थ नहीं जाता। दिन हो या रात, अन्धकार हो या