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अनेकान्त/११ क्यों किए, और बाद को विरोध मे क्यो लिखने लगे। खैर। ऐसे में यह अवश्य सिद्ध हुआ कि जनमत एक और स्थिर नहीं होता जब कि आगम (सिद्धान्त) स्थिर और तथ्य
जब शकित स्थलों में पूर्वाचार्य यह कह सकते हैं कि 'गोदमो एत्थ पुच्छेयवों तब वर्तमान संशोधकों को यह कहने मे लाज क्यों आती है कि 'कुन्दकुन्दाइरियों एत्थ पुच्छेयव्वो। फलतः-वे अपने मत की पुष्टि कराने के लिए जनमत सग्रह (गोष्ठियों) द्वारा प्रयत्न करते हैं। क्या, वे नहीं जानते कि आगम का निर्णय आगम से होता है जनमत से नहीं?
यह पचमकाल का प्रभाव ही है कि इस अर्थयुग मे जिसे अपनी मान्यता की पुष्टि करानी होती है वह पैसा खर्च करके चन्द कथित विद्वानों को इकट्ठा कर अपने अहं की पुष्टि कराकर खुश होता है कि मैने लका की विजय करली। पर, समझदार एवं आगम श्रद्धालु यह भली भॉति समझते है कि वर्तमान युग मे पैसे का बोलबाला है, कौन सा ऐसा कृतघ्न होगा जो किराया और सम्मान देने वाले दाता का असम्मान कर चला जाय? वह सोचता है जिसमे तुम भी खुश रहो और हम भी खुश रहे ऐसा करो। फलतः वह गीतगाता चला जाता है। और अवसर आने पर बदल भी जाता है। क्योंकि
"सचाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलो से।
खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलो से ।। ऐसा ही एक विवाद उठा है-आगम भाषा का। उसमे भी परम्परा की लोक से हटकर एक रूपता की जा रही है-प्राचीन आगम-भाषा को अत्यन्त भ्रष्ट तक कहा जा रहा है। पाठक सोचे कि दिगम्बर आगमो की मूल भाषा कौन सी है? क्या उसमें प्राचीन आचार्य प्रमाण है या नवीन कुछ पडित या नवीन कोई आचार्य? दिगम्बर आगों की मूल भाषा मात्र शौरसेनी नहीं वास्तव में शौरसेनी कोई स्वतंत्र सर्वांगीण भाषा नही और न महाराष्ट्री आदि अन्य भाषाए ही सर्वांगीण हैं ! सभी प्राकृतें 'दशअष्ट महाभाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत' जैसी सर्वांगीण भाषा से प्रवाहित हुए झरने जैसी हैं। ये प्राकृत के ऐसे अश रूप हैं जैसे शरीर में रहने वाले नाक कान आदि अग। इनमे केवल नाम भेद है, बनावट भेद है पर रक्त सचार खुराक आदि का साधन मूल शरीर ही है। जिस क्षण ये मूल शरीर को छोड देंगे उस क्षण ये उपाग स्वय समाप्त हो जाएगे अथवा जैसे किसी स्त्री की माग का सिदूर और माथे की बिन्दी उसके सुहागिन होने की पहिचान मात्र होते है वे स्त्री को उसके लक्षणों से वियुक्त नही कर सकते उसका पूर्ण शरीर साधारण स्त्रीत्व को ही धारण करता हैं ऐसी ही स्थिति शौरसेनी आदि उपभाषाओ की है ये भी अन्य सहारे के बिना जी नहीं सकती। और ना ही किसी आगम का किसी उपभाषा-मात्र में सीमित होना शक्य है। ऐसे में केवल शौरसेनी के गीतगाना कोई