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२४, वर्ष ४७, कि० २
अनेकाम्त
नही मल सकता कि लोग अस्तित्व का ही होता है, यदि वस्त्रादि क्यो रखे? 'जिनकल्प' पहिले नही था तो लोप किमका शोर कैगे 'ग्नान राग नेपथ्य वस्त्राणि स्वीकारोतिस । माना जायगा?
यो भोगेच्छु' स्वामिनस्तु तद्विरक्तस्प कि हिते।' वस्तु स्थिति ऐसी है कि श्वेताम्बर यह स्वीकार इमसे स्पष्ट ही सिद्ध है कि ऋषभदेव नग्न (निर्वस्त्र) करते हैं कि प्रादि के और अन्न के दो तीर्थकर अचेल थे। (निर्वस्त्र) रहे-नग्न रहे। उनके ऊपर दीक्षा के ममय पाणिपात्र के विषय में विशेषावश्यक भाष्य में लिखा इन्द्र द्वारा दिया देबदुष्प, मदाकाल नही रहा और इसमें
'निम्बम धमघरणा च उनाणाइ सयसत्त सरणा। कोई प्रमाण भी नही है । म विीर का देवदूष्य तो ब्राह्मण
प्रच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जिय पगेमहा मब्वे ।। के पास या काटो मे चला गया-गा कयन श्वेताम्लगे
- गाथा ३०८३ के 'कल्पसूत्र' में है । फिर कही ऐसा उल्लेख भी नही ।
जिना जिम निमामधतयो वज्रकट कसमान परिमहावीर को किसी ने पून वस्त्र दिया हो। फलत:--
णामा भवन्ति, नया चतुर्जानिन छद्मस्था: मन्तोऽतिशयदिगम्बरव की मत्यता और प्राचीनता स्वय सिद्ध है।
वन्तश्व, तया प्रच्छिद्रपाण्यादय जित पोषहा।' इस विषय मे हमने मन् १९८७ के अनेकान्त किरण ३ मे
-गाया ३०८३ टीका काफी प्रकाश पहिले ही डाल दिया है-- वहा देखे ।
दिगम्बरस्व कारक रूप अनीत सभी चौबीमियो मे श्वेताम्बर साधु भोजन के निा पात्र और शरीर पर ।
विद्यमान रहा है और दिगम्बर माधु मदा ही अट्ठाईस वस्त्र धारण करते है और दिगम्बर माधु 'पाणि पाव भाजी'
मूलगुणधागे रहे है। वे ५ महाव्रत ५ ममिति, पचेन्द्रियथे। इममे भी यह सिद्ध है कि ऋषभदेव स्वय दिगम्बर
दमन, पट आवश्यको का पालन करते रहे हैं। केशलोच, थे। तथाहि
खडे हो। र आहार लेना, एक बार नवधा भक्तिपूर्वक आहार 'प्रभुरप्य जलुकृत्य पाणिपात्रमधाररत् ।'-२६२
दातुन स्नान त्याग, भू-शयन, नग्न रहना-इन अठाईस 'भयानपिरमः पाणिपात्रे भगवो पपी।'-२६३
मूल गरगो का निरतिचार पालन करने में सावधान रहते ---त्रिषष्टिश पु च. (आदीश्वर चरित्र, पर्व रहे है। बाईस परीषहो मे समाविन परीषहो को महन ., सर्ग ३ श्लोक २६२, २६३
करते रहे है . दिगम्बर माधु के विषय मे लिखा है किश्वेताम्बर प्राकृत कोश अभिधान गजेन्द्रीयह सकेन
'मुण्णहरे तम्हटठे उजनाण तह ममाण वासे वा । भी स्पष्ट है कि ऋषभदेव नग्न थे। - यहि
गिरि गुह गिरिमिहरे वा भीमवणे अहव वसिमे वा ।। 'भगव अरहा उमभे कोमलिए मच्छर साहिय सवसामत्त तित्थ वन च इदा लत्तय च तेहि (?) चीवरधारी होत्था ।'--'उमहेण अग्हा कोमलिए संबच्छर जिणभवण अहवे ज्झ जिणमग्गे निगावग विति । सायि चीवरधागे होत्या तेण पर अचेनए।'
पचमहन्वय जुता पंचिदिय सजया णि गवेक्खा ।
अभि. श पृ. ११३२ उन्म झाणजुत्ता मुणिवरवसहा णि इच्छति ॥' भगवान अरहत ऋषभदेव कौशल मे माम अधिक
-वोधप्रामत ४२-४४ एक वर्ष (मात्र) वस्त्रधारी थे और वह देव दूष्य वम्प दीक्षा मुनियो को शन्य घर मे, अथवा वृक्ष के नीचे अथवा के समय इन्द्र ने दिया था।
उद्यान में, अथवा स्मशान भूमि मे अथवा पर्वतो की गुफा हेमचन्द्र के विपष्ठि शलाका पुरुषचरित आदीश्वर में, अधवा पर्वत के शिखर पर, अथवा भयंकर वन मे, चरित्र पर्व १ सगं ३ श्लोक ३१३ मे राजा श्रेम द्वारा अथवा वसतिका मे रहना चाहिए । ये मभी स्थान स्वाधीन ऋषभ की प्रशसा मे लोगो से कहा गया है कि - जो भोगो है। अपने अधीन हो, ऐसे तीर्थ, चैत्यालय और उक्त स्थानो का इच्छुक होता है वह स्नान, राग और वस्त्रो को स्वी- के माय-माथ जिनभवन को जिनेन्द्रदेव जैनमार्ग में पवित्र कारता है। प्रभु ऋषम तो भोगो मे विरत है-वे
(शेष पृ० २५ पर)