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औचित्य धर्म का
... आचार्य राजकुमार जन भारत वर्ष आरम्भ मे ही धर्म प्रधान और धार्मिक वत्ति है। सम्पूर्ण देश आज साम्प्रदायिक उन्माद की गहरी वाला देश रहा है और देश मामियो की प्रत्येक गतिविधि गिरपत मे है जो घन्धिता, धार्मिक कट्टरता, पारस्परिक एवं आचरण धामिकता और आध्यात्मिकता से अनुप्राणित विद्वेप और नफरत के कारण उत्पन्नत हुआ है तथा धर्म रहा है, परिणामत प्रदेश देशवासी चाहे सनासीन हो या निरपेक्षता की आड मे पनप रहा है इसके साथ ही, देश साधारण नागरिक हो, नैतिकता के सामान्य नियमो से की वर्तमान धर्म निरपेक्ष नीति को जो राजनैतिक रंग बधा हुआ था। समाज और राष्ट्र के प्रति वह अपने दिया गया है उसके कारण उत्पन्न भ्रान्त धारणा ने केवल कर्तव्य वोध में युक्त और उसके निर्वाह के लिए जागरूक
४५ वर्ष के अल्पकाल मे ही भारतीय जन जीवन में एव तत्पर था। किन्तु आज भारतीय जन मानस मे अध्या
नैतिकता और सदाचार का जो अवमूल्यन किया है बाप त्मिकता का भाव तिरोहित हो गया है और भौतिकवादी वह हमार से
सवारी वह हमारे समक्ष विचारणीय है। विचारधारा के बीज तीच गति से अकुरित होकर सम्पूर्ण आज देश की अखंडता और साम्प्रदायिक सदभाव के जीवन शैली में इस प्रकार व्याप्त हो गए है कि उन्होंने सन्दर्भ मे धर्म निरपेक्षता शब्द न केवल प्रासंगिक हो गया सभी जीवन मूल्यो का ह्राम कर उन्हे बदल दिया है। है. अपितु अत्यधिक चचित हो जाने के कारण सहत्वपूर्ण भारतीय जन जीवन में आध्यात्मिकता के स्थान पर भी माना जाने लगा है। यह देखा गया है कि कभी-कभी भौतिकवादी विचारो का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित अर्थ विशेष में प्रयुक्त हुआ शब्द परिस्थिति बश ने हो रहा है।
केवल अपना अर्थ खो देता है, अपितु सर्वथा अप्रासंगिक आज जन साधारण धर्म और सम्प्रदाय मे स्पष्ट भेद भी हो जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य मे यदि "धर्मनिरपेक्षता" नहीं कर पा रहा है। इतना ही नहीं, अपितु जन साधारण को देखा जाय तो स्थिति उपर्य क्त जैसी ही प्रतीत सम्प्रदाय को ही धर्म मानकर तद्वत आचरण कर रहा है। होती है। वास्तव मे धर्मनिरपेक्षता शन्द आधुनिक युग यद्यपि प्रबुद्ध वर्ग एवं विद्वान जन धर्म और सम्प्रदाय मे की देन है जो अग्रेजी के 'राक्यूलर" शन्द से अनुवादित स्पष्ट भेद करने और उसे समझने में समर्थ है, किन्तु दुरा- किया गया है। सर्व प्रथम यहा यह देखना मावश्यक है ग्रही विचारणा के कारण सम्भव नही हो पा रहा है। कि क्या धर्मनिरपेक्षता उस भाव मे सेक्यूलरिज्म का पही वास्तव मे धर्म और सम्प्रदाय में बहुत बड़ा अन्तर है। अनवाद है जिस भाव में "सेक्युलरिज्म" शब्द प्रयुक्त हुआ धर्म उदार, विशाल और सहिष्णु दृष्टिकोण अपनाता है है। सही मायने में यदि देखा जाय तो ऐसा नहीं हुवा है। जबकि सम्प्रदाय सकुचित दृष्टिकोण को जन्म देता है। गत 45 वर्ष के दौरान देश का वड़े से बड़ा नेता भी अत. धर्म को व्यापक दृष्टिकोण के रूप में देखना और सेक्युलरिज्म को भी परिभापित करने में असमर्थ रहा है। समझना चाहिए । इस यथाथ के साथ यदि देशवाशी यद्यपि सेक्युलरिज्म की अवधारणा को नेताओ ने अच्छा अपनी मानसिकता, दृष्टिकोण और वैचारिक अवधारणा बतलाया है, किन्तु विडम्बना यह है कि भारतीय चिन्तन को अपनात हैं तो दश मे कही भी और कभी भी धामिक धारा का प्रवाह जिस दिशा में हुआ है उसमें सेक्यूलर उन्माद की परिणति दगा-फसाद, हिंसा या रक्तपात के या सक्यूलरिज्म जैस शन्द के लिए कोई स्थान नहीं है। रूप में नही हा सकती है। किन्तु स्थिति आज ऐसी नहीं अतः नतामण उसका समानाथी बम्म न तो वितरित