Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
Catalog link: https://jainqq.org/explore/538047/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3007 वीर सेवा मन्दिर का त्रैमासिक अनेकान्त (पत्र-प्रवर्तक : आचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष-47 किरण-4 अक्तूबर-दिसम्बर-94 - 1. मुन्नडि -प्रो० खुशालचन्द गोरावाला 2. आगम के प्रति विसंगतिया -पद्मचन्द्र शास्त्री 3. आगम भाषा और लिपि ___एम. एल जैन कवि कालीदास पंडित आशाधर -आचार्या जैन मती जैन 5. हवा को तरसता मानव -प्रेमचन्द जैन - वीर सेवा मंदिर, 21 दरियागंज, नई दिल्ली-110002 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२ ४० वर्ष पूर्व-वर्णी जी की कलम से जो घर छोड देते है वे भी गृहस्थों के सदृश व्यग्र रहते है । कोई तो केवल परोपकार के चक्र में पडकर स्वकीय ज्ञान का दुरूपयोग कर रहे है। कोई हम त्यागी हैं, हमारे द्वारा ससार का कल्याण होगा ऐसे अभिमान में चूर रह कर काल पूर्ण करते है। शान्ति का मार्ग सर्व लोकेषणा से परे है। लोक-प्रतिष्ठा के अर्थ, त्याग-व्रत-सयमादि का अर्जन करना, धूल के अर्थ रत्न को चूर्ण करने के समान है | पचेन्द्रिय के विषयो को सुख के अर्थ सेवन करना जीवन के लिए विष भक्षण करना है। जो विद्वान है वह भी जो कार्य करते है आत्म-प्रतिष्ठा के लिए ही करते है। यदि वे व्याख्यान देते है, तब यही भाव उनके हृदय मे रहता है कि हमारे व्याख्यान की प्रशसा हो लोग कहे कि आप धन्य है, हमने तो ऐसा व्याख्यान नही सुना जैसा श्रीमुख से निर्गत हुआ। हम लोगो का सौभाग्य था जो आप जैसे सत्पुरूषो द्वारा हमारा ग्राम पवित्र हुआ । इत्यादि वाक्यो को सुनकर व्याख्याता महोदय प्रसन्न हो जाते है। मेरा यह दृढतम विश्वास हो गया है कि धनिक वर्ग ने पडित वर्ग को बिल्कुल ही पराजित कर दिया है। यदि उनके कोई बात अपनी प्रकृति के अनुकूल न रुचे तब वे शीघ्र ही शास्त्रविहित पदार्थ को भी अन्यथा कहलाने की चेष्टा करते है। वासना में अनेक प्रकार के सकल्प रहते है जो प्राय. प्रत्येक मनुष्य के अनुभव में आरहे है। यही कारण है जो लोक में प्रायः सभी दुखी देखे जाते हैं । सुख का अनुभव उसी को होगा जो सब चिन्ताओ से रहित हो जावे। -वर्णी वाणी से Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३ (समयसार : प्रकाशक-कुन्दकुन्द भारती) मुन्नुडि समयप्रमुख- आ० विद्यानन्द मुनि, सम्पादन-बलभद्र जैन, द्वितीया वृत्ति-१६६४, विद्यार्थी-सस्करण, पृ० स०२८-३१३, डिमाई आकार की आम्नाचार्य कुन्दकुन्द-द्विसहस्राब्दी के समय वीर-निर्वाणग्रन्थ प्रकाशन समिति ४८, शीतला बाजार इन्दौर द्वारा प्रकाशित समयसार-गुटका पाकर मन मे आया था कि इसके विषय मे श्री १०८ समयप्रमुख से जिज्ञासा करू। किन्तु उस पर छपे बाल-सस्करण ने मुझे सहसा न विदघीत क्रिया की स्मृति दिलाई, क्योकि सस्करण के समान उस समय मेरी भी बाल-जिज्ञासा होने की सभावना थी। तथा मै अपनी मन्थर-नाडी के अनुसार प्राकृत ग्रन्थ के प्रथम विद्यार्थी-सस्करण १६७८ | तक प्रतीक्षा मे सार्वजन-सस्करण की आशा लगाये था। इसे देखकर मुनिश्री के दर्शन कर के अपने मतव्यो का निश्चय किया ही था कि स्वयंभू सप्रमाण सूक्ष्मेक्षक श्रमण-सिद्धान्त इतिहास-कार एव आचार्य जुगल किशोर की पत्रिका अनेकान्त के अक वर्ष ३३ कि २ से आरव्ध हुई कुन्दकुन्द-भारती से प्रकाशित आम्नायाचार्य की कृतियो के परम्परा-प्राप्त मूल पाठो मे भी परिवर्तन की चर्चा देखकर, तथा मा० सम्पादको (प० पदमचन्द जी एव प० बलभद्रजी) के बीच हुए पत्राचार को सावधानी से पढकर सन-१६७५ से वर्तमान चिन्ता मुखर हुई। और वर्तमान युगाचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी के समय का सत्प्ररूपणा के सूत्र स०६३ का अत्र सजदा प्रतिभाति प्रकरण मानसपटल पर छा गया। जिसका विसर्जन, २२ ७८६ को समाधिस्थ अवस्था मे प० जिनदासजी फडकुले को 'अरे जिनदास धवलातील ६३सूत्र भावस्त्री चे वर्णन करणारे आहे व तेथे सजद शब्द अवश्य पाहिजे, असे वाटते परिमार्जन-प्रतिबोध प्रात स्मरणीय युगाचार्य श्री ने स्वय किया था। अनायास ही मुख से निकला ते गुरू मेरे मनबसो,' सविशेष अपने प्र० प्र० प्रशिष्यो को वही अतर्मुखता विरक्ति दो जिसके साथ आपने १६८६ मे मूलाचार के अग्रेजी-भाषान्तरकार स्व० वैरिष्टर चम्पतराय को ३, ४ गाथाओ का विशद विवेचन न करके 'वैरिष्टर मेरा श्रुतज्ञान या चिन्तन इनके विषय मे स्पष्ट नही है। अभी शब्दार्थ देकर काम चलाओ' दी थी। इस गुरूपरम्परा के अनुसार मै कल्पना भी नहीं कर सकता था कि श्रमण या प्राग्वैदिक भारतीय-सस्कृति के जनभाषा मे प्रथम प्ररूपक कुन्दकुन्दाचार्य की सहिता को, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/४ भौतिकता से आक्रान्त मानवता को देने के लिए आरब्ध कुन्दकुन्द-भारती सस्थान ही आम्नायाचार्य के एक मूल पद के साथ छेडछाड करेगा, क्योकि वह शास्त्रार्थ शार्दूल समन्त भद्राचार्य की दृष्टि मे क्च्छासनैका-धिपतित्वलक्ष्मी है जिनकी प्रखर उक्तियो के कारण पचमकाल, वक्ता (समयप्रमुख) श्रोता (सम्पादकादि) के वचनानय का निग्रह शाश्वत है। इसी भावना से लिखने-बोलने के पहले मै १५६३ को, मुनिश्री १०८ से निम्न निवेदन करने गया था। __ प्रो० गो पिशल आदि प्राकृतविदो के अनुसार जैन-शौरसेनी वैदिक-सस्कृत के समान प्राचीन तथा पृथक है, साहित्यिक-सौरसेनी से साहित्यिक-सस्कृत के समान । अतएव जैसे वैदिक-सस्कृत मे साहित्यिक-सस्कृत के आधार पर आज तक एक पद नही बदला गया है, वही हमे करना है जैन-शौरसेनी के विषय मे। मुनि श्री ने अपनी भाषा-समिति मे आधे घटे तक अपनी साधना आगमज्ञान और शौरसेनी के विशेषाध्ययन का उपदेश दिया । प्रो० गो-मै सजदपद-विवाद के समय से ही मूल की अक्षुण्णता का लघुतम पक्ष धर हूँ अत जैन-शौरसेनी या कुन्दकुन्द-वाणी की अक्षुण्णता के लिए अनेकान्त का प्रेरक हू । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन सघ-निर्मित दोनो पडितो मे ममत्व भी है, तथा ये दोनो आपके भी कृपाभाजन रहे है। ये व्याप्य हे और आप व्यापक है। ऐसे प्रसगो मे व्यापक (आप तथा श्रमणमुनि) को अधिक हानि हुई है। मुनि श्री का पुन वाग्गुप्ति मय उपदेश चला। प्रो० गो-आपको जो एक अन्य ताडपत्र की प्रति मिली है, उसे अनेकान्त वीर-सेवा–मन्दिर, को दिला दीजिये। मुनि श्री -मै ५० हजार लोग भेजकर वीर-सेवा-मन्दिर का घिराव करा सकता हूँ| या ५० पडितो के अभिमत (पफलेट) रूप मे छपवाकर बाट सकता हूँ और उस से वीर-सेवा-मन्दिर की भी वही हानि होगी जो आयकर मे शिकायत करके इन्होने कुन्दकुन्द भारतीकी की है। अभी तक हमारा एक करोड का फण्ड हो गया होता अगर अनेकान्त ने इसके खिलाफ न लिखा होता । गो० यह सब हमारे गुरूओ के अनुरूप नही होगा ! अत. आप लिखे कि अमुक ताड पत्रीय प्रति को आधार मानकर प० बलभद्रजी का सस्करण प्रकाशित किया गया है तथा पूर्वप्रकाशनो को त्रुटिपूर्ण, भूलयुक्त या अशुद्ध कदापि न लिखे, क्योकि यह लिखना जिनवाणी के लिए आत्मघातक होगा | जब एक ही ग्रथ मे पोग्गल, पुग्गल, आदि रूप बहुल (प्रवृति-अप्रवृति) रूप से पाये जाते है तो वे तदवस्थ ही रहे। एकरूपता के लिए एक भी पद बदला, घटाया-बढ़ाया न जावे जो अधिक उपयुक्त लगे उसे 'अत्र सजद. प्रतिभाति' करना पादटिप्पणी मे विश्व मान्य सपादन-प्रकाशन-सहिता है। व्याकरण के आधार पर सशोधन और वह भी दूसरे (साहित्यिक-सस्कृत या शौरसेनी) के आधार पर न हुआ है और न होगा। महाराज आपको कोई प्राकृत व्याकरण प्राकत मे मिला है? Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/५ मुनिश्री ने प्रकारान्तर से हेतु रूपसे जयसेनी टीकागत सूत्रो को कहा। गो० . सब प्राकृत-व्याकरण सस्कृत मे है। ये ब्राह्मणयुग की देन है जिसमे लघु-भाषाओ को अप-भ्रश बनाया है। तीर्थ-राज वीर प्रभु से आगम रूप मे आया तथा गणहर अथिया श्रुतस्मृत रूप से जब शास्त्र रूप मे आया तो १८ भाषाओ के आचार्यों की दृष्टि श्रोता-हित पर थी, वत्थुसहावो को विद्वज्जनसवेद्य रखकर प्राकृत जन को वचित करने की नही थी। स्याद्वाद भाषा-चौकापथी (CONSERVATISM) का भी निराकरक है। वह भाषा-स्याद्वाद है। कहके नमोअस्तु की। और मै उस आशा के साथ लौटा था जो शोधादर्श पत्रिका के विद्वान सपादक श्री अजित प्रसाद जैन ने अपनी टिप्पणी मे लिखा था (प्रो० खुशालचद्र गोरावाला जैन साहित्य के पिछली पीढी के शेष रहे मूर्धन्य-विद्वानो मे से है। भगवद कुन्दकुन्दाचार्य की अमर कृति समयसार के मूल पाठ मे पूज्य आचार्य राष्ट्रसत विद्यानन्द मुनि के मार्ग-दर्शन मे कुन्दकुन्द-भारती मे प्राकृत व्याकरण के आधार पर किए गए सशोधनो के विषय पर आचार्य श्री के साथ उनकी चर्चा हुई थी। उपर्युल्लिखित भेट वार्ता इस सबध मे उनकी मनोव्यथा को उजागर करती है। समयसार ग्रथ मे शौरसेनी प्राकृत भाषा के प्राचीनतम रूप के दर्शन होते है तथा प्राकृत भाषा के व्याकरण उसके बहुत बाद मे रचे गए थे। अत समयसार की भाषा पूर्णरूपेण व्याकरण के नियमो के अनुरूप न हो तो इसमे कोई आश्चर्य की बात नही। हम प्रोफेसर साहब के अभिमत से सहमत हैं कि उपलब्ध प्राचीन पाडुलिपियो के आधार पर स्थिर किए गए मूल पाठ मे व्याकरण, अर्थ आदि की दृष्टि से यदि कोई सशोधन उपयुक्त समझा जाय तो मूल पाठ के साथ छेडछाड न करके उसे पाठ टिप्पणी के रूप में देना ही उचित है।) लगभग एक वर्ष तक ऐसा लगा कि आधुनिक युगाचार्य के प्रशिष्यत्व ने जोर मारा है। और अब कुन्दकुन्द-भारती आम्नाचार्य के मूलरूप का सर्वोपरि सरक्षक (CUSTODIAN) रहेगा किन्तु १६६४ मे प्रकाशित अब द्वितीयावृति मे पृ० १५ से १६ तक छपी समय प्रमुख श्री १०८ की देशना 'विद्वानो की चर्चा वीतराग होनी चाहिए' को वॉच कर लगा कि अभूत पूर्वता एव असाधारणता या अभिनव प्रियता वही करा रहे है, जो किसी अलकार (उपाधि) लुब्ध कवि के विषय मे 'अनुप्राशस्य लोभेन भूप कूपे निपातत' काव्यजगत का मधुरोपालम्भ है। और महावीर निर्वाण की २६वी शती मे कुन्दकुन्द भारती ही आम्नायाचार्य की कृतियो की शोधक एव व्याख्याकार न रहकर सशोधकता एव परिमार्जकता की ओर अग्रसर है। क्योकि समय-प्रमुख जी ने जिनकी ध्वनि ओकार रूप, निरअक्षरमय महिमा अनुप। दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक समेत ।। की स्वकल्पना या मान्यता अनुरूप व्याख्या करके वही किया है जो दौलतरामजी के छहढाला की एक हस्त लिखित प्रति की दूसरी ढाल के छन्द १३ के साथ उत्तरकाल मे "रागादि सहित' व्यापक पाठ की जगह व्याप्य कपिलादि रचित श्रुत का अभ्यास सो है कशास्त्र बहदेनत्रास करके किसी अवसर परस्त लिपिकार ने किया होगा। समय Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/६ प्रमुख भाषा को पूर्वचर और व्याकरण को उत्तरचर मानकर भी अनेकान्त के वर्ष ४१ कि.४ के शब्द व्याकरणातीत को लेकर व्याकरण को भाषा के सजाने-सवारने का श्रेय देते हए उसको अनजाने ही धार्मिक वाड.मय में भी अनिवार्य सिद्ध करने का प्रयास करते दिखते हैं। जबकि न्यायशास्त्री भी व्याकरण को अस्माकूणां नैयायिकार्ना अर्थरि प्रयोजनं न तु शब्दरि घोषित करके महत्व नहीं देते हैं। क्योंकि व्याकरण, भावों या चिन्तन की आदान-प्रदानक ७०० भाषाओं को व्याप्य (लधुभाषा) से व्यापक (महाभाषा) बनाती हैं। सुवाच्य-सुबोधता के आदर्श पर चलकर अथवा मागधी-शौरसेनी आदि भाषाओं के बाहुल्य या अधिक क्षेत्र में अववोधता के कारण । वर्तमान भारतीय १४ भाषाओ के समान । वेदपूर्व युग में १- भाषाए प्रमुख व्यापक रही हों भी ऐसी सभावना संकेतित करती है तथा वैदिक संस्कृत भी, अब अंग्रेजी के समान इन १८ भाषाओं में अन्तिम होगी। हमारी अति-सहिष्णुता या विजयी के सामने सर्व समर्पणता के कारण, जैसा कि ऐतिहासिक युग में आठवीं शती की अरब-विजय की और १६ वी शती की अग्रेजी-विजय के कारण अभी हम सांस्कृतिक दासता (अग्रेजीयत) का गत ४७ वर्षों में भोग रहे है। साहित्यिक सस्कृत के समान प्राकृते उसे (धर्मतत्व को) विद्वज्जन सवेद्य रखकर, शब्द शास्त्र का सागर (अपेयजल) नही बनाता | व्याकरण शब्द-विद्वान होता है। यह आवश्यक नही की उसे शिष्ट ही होना चाहिए। फलत. कुन्दकुन्द भारती के प्रमुख श्री-१०८ से गुरू श्रद्धालु समाज यही आशा करता है कि व्याकरण-पूर्व को व्याकरणातीत मानकर अपने विद्वान-सपादक द्वारा जिन वाणी को साहित्यिक-शौरसेनी के साचे मे कसने के प्रयास को अभूतपूर्व या लीक से हटकर', कह के हम अनादिकाल से भटकते प्राणियो को अनन्त भटकन मे पड़ने की विधि न देवे। क्योकि यह घोडे के आगे गाडी रखने के समान है। पूर्वचर (कुन्दकुन्द–भारती) को उत्तरचर ब्राह्मण-(वैदिक सस्कृति के)-व्याकरणो मे कसना वही होगा, जो चन्द्रगिरी पर बनी भरतेश्वर की मूर्ति के साथ मूर्तिभजको ने किया है. यह पुरातत्वीय स्मारकों के विरूपण या विनाश के समान 'इहामुत्रापायावद्य' है। जिससे हम अविरत भी विरत है। तब 'दंसणणाण चरिताणि सेविदव्वाणि साहुणाणिच्च महाव्रती के तो विशद दर्शन हैं। यह प्रार्थना ही अनेकान्त का उद्देश्य-विधेय हैं। ___व्याकरण के द्वारा किसी भाषा की पहिचान नाम, रूप एव आकारदान की कल्पना यदि भूतार्थ होती तो ब्राह्मण युगीन संस्कृत के यौवन में मध्यम-जघन्य-पात्र सस्कृत न छोडते और वह जनभाषा होती। अर्धमागधी, शौरसेनी, मराठी, प्राकृत के अतिरिक्त श्रमण-वाड्मय श्रोता-सुबोधता-सुवाच्यता-नीति के द्वारा बनायी गयी प्राकृतो को अपभ्रंश (पुराविनाश) नाम देकर द्रविड-भाषाओं के समान अनार्यता देकर वैदिक व्याकरण अवज्ञात न करती । साहित्यिक-सस्कृत की अनुपादेयता तो श्री १०८ समय प्रमुख की दृष्टि में भी है जैसा कि उनके द्वारा ही प्रयुक्त 'मुन्नुडि' शब्द से स्पष्ट हैं। वे जानते है कि प्राग्वैदिक जनभाषा होने के कारण मानव-सस्कृति के आरम्भिक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/७ प्ररूपक श्रमण सिद्धान्तकारों के समान सर्वाग, सम्पूर्ण अनुशासित-नियमित भाषाविदों (संस्कृत पोषकों) द्वारा रचित प्राकृत काव्यों से करतलामलक है। वागरणसुत्त आदि पदों के आधार पर ही व्याकरण पूर्व-आध्यात्मिक ग्रन्थों के मूलपाठों को उत्तरकालीन व्याकरण साधित शब्दों द्वारा बदलना बालतर्क नहीं है। अपितु 'हत्थिगुम्फा' के खारवेल-शिलालेख के मूलपदों को व्याकरण या अर्थ की दृष्टि से अब उत्कीर्ण कराना है। जिसे मुनिश्री भी इहामुत्रापायावद्य' मानने से इकार नहीं करेगे। मूल (दिगम्बर) आगमो के सर्वप्रथम सूत्रकार आचार्यवर गुणधरभट्टारक के सूत्रो पर वृत्तिकार यतिवृषभाचार्य ने मगल कारण हेदू सत्थस्स पमाण णाम कत्तारा। पढम चिय कहिदव्वा एसा आइरियपरिभासा।। । तिलोयपण्णति-१/७। सुयणाणसरीरी आचार्य वीरसेन ने इसका ही अनुसरण करके घवलाटीका के मगलाचरण रूप मगल णिमित हेऊ-परिमाण णाम तहय कत्तार । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो।। दिया है। उत्तरोत्तर ग्रन्थकर्ता कुन्दकुन्दाचार्य की कृति पंचास्तिकाय के संस्कृत टीकाकार जयसेनाचार्य ने भी अपनी कृति मे इस गाथा को उध्दृत करके वागरिय का पर्यायवाची 'व्याख्याय' लिखा है और इस प्रकरण को समाप्त करते “इति संक्षेपेण मगलाद्यधिकार-षडक प्रतिपादित व्याख्यातम्” ही लिखा है। उनको वागरण का अर्थ यदि सभव होता तो वे अपनी टीका में प्रयुक्त और सम्पादक श्री (ब०भा०) की उत्तरकालीन व्याकरणपरता के अनुसार केवल व्याख्यान न करके इन छहों अगो के प्रकृति-प्रत्ययादि भी लिखते अस्तु । सागारानगार घर्मो के विद्वज्जन सवेद्य रचनाकार तथा अनगारो के पाठक रूप से श्रुत पण्डिताचार्य आशाघर जी ने भी जईवसह कृत गाथा की संस्कृत छाया (अनगारधर्म भा०१-६ की व्याख्या तृतीय उद्धरण) मे की व्याख्या करके जयसैनाचार्य का ही समर्थन । व्याख्याय । ही किया हैं। वक्ता-श्रोता वचनानय से सावधान उत्तरोतर-ग्रन्थकारो ने यदि शिवकुमार महाराजादि की अवबोधकता के लिए पाठवैविध्य (पुग्गल-पोग्गलादि) किये हो तो समुचित है। क्योंकि उन्हे वत्थु सहावोघम्मो रखना था तथा द्वादशवर्ष पठन पाठन कराके भी विद्वज्जन-संवेद्य रूप से आत्मरूप को "धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम् करके जनसा धारण को जीव-उद्धार-कला (सहज पठन-पाठन एवं यजन-याजन) से वचित नहीं करना था। और अपनी भी जीविका का भार कृषि-मसि-असि धारकों पर डालकर प्रतिग्रह (दान)-उपजीवी नहीं बनना था। वे थे 'ध्वननशिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते । ख्यातिलाभपूजाविरत।। जहा तक निरवद्य सम्पादन की बात है वह समय प्रमुख श्री की व्यक्तिगत मान्यता है। जैसाकि उनसे १५.६३ को निवेदन किया गया था। मा० दि०जैन सघ का लघुतम Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/८ सेवक होने के कारण मुझे भी सम्पादकद्वय के साथ आत्मीयता है। श्री १०८ मनि के युगो पहिले से ये उपदेशक-विद्यालय के स्नातक थे। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार सघ को छोडकर ये समय-प्रमुख श्री १०८ के लोकसग्रही रूप से आकृष्ट हुए थे। प० बलभद्र जी ने आपके सान्निध्य मे अज्जमखु होना स्वीकार किया और प० पद्मचन्द नागहत्थि नही हो सके। सम्पादक श्री ने जो सूत्र निश्चित किये उनकी चर्चा तत्कालीन जैन साहित्य के लोकमान्य प्राकृतज्ञो तथा श्रुत-स्थविरो के साथ करने या कराने की कुन्दकुन्द-भारती ने क्यो उपेक्षा की? और स्व० डा० हीरालाल जी के समान उनके द्वारा, सर्वप्रथम सहयोगी स्व० प० हीरालाल जी तदनन्तर फूलचन्द जी एव बालचन्द जी से गहन विमर्श करके भी अपने सम्पादन-सूत्रो का प्रारूप तत्कालीन विज्ञ (दिगम्बर) जगत को भेजा था। उत्तरकाल मे भी यह काम सघ कराता रहा है। अपनी अन्तिम सासतक मुख्यरूप से मूल-आगमो के सम्पादक एव भारती-(हिन्दी)-भाषान्तरकार स्व० फलचन्द्र जी की प्रेसकापी भादि जैन सघ स्वयबद्ध मख्तार वन्धओ को भिजवाता था। आश्चर्य होता है कि मूल-आगमो के टीका-(परिकम्म) टीकाकार, प्रागार्य भारतीय-सस्कृति को सस्कृत-पूर्वयुगीन भाषाओ मे ही चित्रित करके वैदिक-सस्कृति को भी त्याग, सन्यास, मोक्ष, अध्यात्मवाद, लोक-परलोक, दर्शन तथा गृहस्थ वानप्रस्थ (गृह्यसूत्र आरण्यक) सहिता दाता की भारती को भारतीय क्या विश्वजनीन करने के. उदात्त लक्ष्य को उद्देश्य मानकर बनी 'कुन्दकुन्द भारती ने अपने आपको 'अहमेवमतो जिनवाण्या' क्यो किया? जबकि सम्पादन मे पूर्णरूप से उन पूर्वपाठो के विषय से साधार सूचना का भाव था जिन्हे अब अनेकान्त से मागकर ‘सय अच्छी आउली करिय वअस्स अस्स कारण पुच्छेसि' करके अब अनेकान्त से मागा गया। और न देने की बात करके परम्परा से आगत पदो के साथ कामाचार किया गया है। प्रत्येक पृष्ठ पर रिक्त बहुयभाग या भाग यह सूचित करता है कि यहा सम्पादन में उपयुक्त-पाठान्तरो के लिए ही हमे इस वर्द्धमान कागजमूल्य? मूल्य/मूल्यो के युग मे छोडा गया है। अनायास ही ये रिक्त स्थान श्री १०८ आचार्य विमलसागर जी की शास्त्र-प्रतिष्ठा की ओर स्वाध्यायी जैन-जगत को सादर साभार आकृष्ट करते है। क्योकि इसमे इस अभिनवता, असाधारणता, व्ययनिरपेक्षिता का लेश अद्यावधि प्रकाशित, पुनर्मुद्रित ग्रन्थो मे नही दिखता है गोकि आचार्य श्री की यह जिनवाणी -प्रतिष्ठा सभवत शतप्राय हो चुकी है। तथा उनकी तथा उपाध्यायश्री १०८ भरतसागर के चिन्तन, शिक्षादि उन्हे सक्षम सम्पादकत्व की भूमिका देते है। अच्छा होता कि समयप्रमुख मुनिश्री १०८ अपने सम्पादकजी को दिशा देते कि उनके द्वारा अधीत ताडपत्रीय तथा अद्यावधि मुद्रित प्राचीन सस्करणो को प्रति सकेत (क, ख, आदि) दे करके समस्त पाठो की सोद्धरण पुष्टि करे और टिप्पण मे अपनी मान्य उत्तरकालीन प्राकृत व्याकरणो के रूपो को मसूत्र देवे तो यह विद्यार्थी ही नही शोधार्थी-सस्करण हो जाता। जैसा कि स्व० मुख्तार बन्धुओ के समान जिनवाणी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/६ साधनालीन प० जवाहरलाल जी (भिडर) ने आचार्यकल्प प० टोडरमल जी की कृति मोक्षमार्ग प्रकाशक की मूलभाषा को अक्षुण्ण रखकर 'विशेष' के माध्यम से जिज्ञासुओ एव शोधको के लिए दिशा देकर किया है। तथा उनके परम सहयोगी डा० चेतन प्रकाशजी पाटनी (श्री पार्श्वनाथ मन्दिर, शास्त्री नगर जोधपुर-३४२००३) के द्वारा प्रकाशित सस्करण १६६४ से स्पष्ट है। सुयणाणसरीरी वीरसेन स्वामी ने मगल को अनिवार्य कहा है क्योकि इसके द्वारा ग्रथकर्ता, टीकाकार, सम्पादक प्रवचनकर्ता भी शपथ करता है, परमगुरु परम्परागुरु, गुरु के वचनो की तदवस्थता के साथ साथ उनके वचनसार अनुसरण की एव कर्ता आचार्य के शब्दो की तदवस्थता की । क्योकि तत्तत् आचार्यो के पद उनके लिए शब्दरूपी पुरातत्वीय स्मारको के समान है। वे भाषासहकार या स्याद्वाद के समान है। और साहित्यिक सस्कृत के समान भाषाएकाधिकार से अछूते है। विश्वास है कि 'कुन्दकुन्द-भारती उत्तम मुद्रण, आवरण सज्जादि के समान परम्परित-पाठो की अक्षुण्णता या तदवस्थता को महत्व देकर वीरनिर्वाण की ५-६ वी शती मे सूत्रित आगमो को वीरनिर्वाण की १० शती के बाद सकलित जिनसम्प्रदायी (श्वेताम्बर) आगमो के समान “बहुश्रुत विच्छितौ भविष्यद् भव्य लो-को पकाराय श्रु त भक्त ये-~-~वलभ्यामकार्य------तन्मुखादविच्छन्नावशिष्ठान, न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽघटितान् आगमान्---------" होने के सकट से बचाकर मूल (अचेल) सघी आगमो मे झलकती वेदपूर्व या आर्यपूर्व सस्कृति के ध्रुव को चलायमान होने के सकट से बचाकर अनुगृहीत करेगी। -खुशालचन्द्र गोरावाला 'ग्रन्थो के सपादन और अनुवाद का मुझे विशाल अनुभव है। नियम यह है कि जिस ग्रन्थ का सम्पादन किया जाता है उसकी जितनी सभव हो उतनी प्राचीन प्रतियाँ प्राप्त की जाती है उसमे अध्ययन करके एक प्रति को आदर्श प्रति बनाया जाता है। दूसरी प्रतियो मे यदि कोई पाठ भेद मिलते है तो उन्हे पाठ टिप्पण मे दिया जाता है। यह एक सर्वमान्य नियम है। जो विद्वान इस पद्धति का अनुसरण करता है वह सिद्धान्त रक्षा मे सफल माना जाता है । जो इस नियम का उल्लघन करता है, उसकी समाज मे भले ही पूछ हो, सिद्धान्त रक्षा मे उसकी कोई कीमत नही की जा सकती। वेदो के समान मूल आगम प्राचीन है। वे व्याकरण के नियमो से बधे नही है। व्याकरण के नियम बाद मे उन ग्रन्थो के आधार पर बनाए जाते है। फिर भी कछ अश मे कमी रह जाती है, इसलिए व्याकरण के आधार पर सशोधन करना योग्य नही। जो जैसा पाठ मिले वह वैसा ही रहना चाहिए। --फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/१० आगम के प्रति विसंगतियाँ पद्मचन्द्र शास्त्री क्या जनमत आगम से बड़ा है ? ‘सत्य क्या लोकतत्र है जो लोगों की सहमति (वोटो) से काम चलेगा ? क्या जिनवाणी जनवाणी है? आगम की प्रामाणिकता जनमत से सिद्ध हो जायगी? आगम को सिद्ध करने के लिए आगम चाहिए, न कि जनमत संग्रह ।'-उक्त विचार उपाध्याय श्री कनकनन्दी मुनिराज के हैं और इन विचारो से हम पूर्ण सहमत है। स्मरण हो कि गत दिनो 'कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया' पुस्तक के सबध मे कटनी मे एक गोष्ठी अ भा दि जैन विद्वत्परिषद के तत्वावधान में श्री देवेन्द्र कुमार शास्त्री की अध्यक्षता मे हुई और उसमें पारित प्रस्ताव मे स्पष्ट लिखा गया कि-'कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया आगम वर्णित तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत की गई है। इस कथन से स्पष्ट है कि प्रस्ताव मे मिथ्यात्व के अकिचित्कर होने की पुष्टि को स्वीकार किया गया है। पं. प्रकाश हितैषी (जो गोष्ठी मे संमिलित थे) ने गोष्ठी के विषय मे लिखा है कि-"प० जगन्मोहन लाल जी ने विपक्ष के प्रमाणो का समाधान करने का प्रयत्न भी किया किन्तु सही समाधान कुछ भी नहीं निकल सका। विद्वत्परिषद के अध्यक्ष लिखते हैं कि-'अध्यक्ष, दि जैन पचायत कटनी की ओर से मिथ्या प्रचार किया जा रहा है कि सगोष्ठी में सभी विद्वानो ने यह स्वीकार कर लिया है कि मिथ्यात्व अकिचित्कर है।-वे यह भी लिखते है कि प्रस्ताव पुनः ठीक से पढे उसमे केवल बडे पंडित जी (प जगन्मोहन लाल जी सिद्धान्त शास्त्री) के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की गई है अत. मिथ्या प्रचार न करें। हम नही समझे कि जब प्रस्ताव मे स्पष्ट लिखा हैं कि 'पुस्तक आगम वर्णित तथ्यो के आधार पर प्रस्तुत की गई हैं तब विवाद कैसा? यदि उसमे तथ्य नहीं तो कृतज्ञता कैसी? क्या पंडित जी को आयु मे बडे मानकर बडे पडित जी लिखा गया है? और कृतज्ञता व्यक्त की गई है? उक्त स्थिति में यह खुले रूप मे स्पष्ट होता है कि गोष्ठियाँ गोटी बिठाने के लिए की जाती है, जिनमे भाग लेने वाले कुछ व्यक्ति तो मुंह देखी कह ही देते हैं, जैसे कि डॉ देवेन्द्र कमार जी, जो मौके पर दस्तखतो से इन्कार की हिम्मत न जुटा सके। यदि वे प्रस्ताव से असहमत थे और उन्हे विरोध ही इष्ट था तो प्रस्ताव पर हस्ताक्षर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/११ क्यों किए, और बाद को विरोध मे क्यो लिखने लगे। खैर। ऐसे में यह अवश्य सिद्ध हुआ कि जनमत एक और स्थिर नहीं होता जब कि आगम (सिद्धान्त) स्थिर और तथ्य जब शकित स्थलों में पूर्वाचार्य यह कह सकते हैं कि 'गोदमो एत्थ पुच्छेयवों तब वर्तमान संशोधकों को यह कहने मे लाज क्यों आती है कि 'कुन्दकुन्दाइरियों एत्थ पुच्छेयव्वो। फलतः-वे अपने मत की पुष्टि कराने के लिए जनमत सग्रह (गोष्ठियों) द्वारा प्रयत्न करते हैं। क्या, वे नहीं जानते कि आगम का निर्णय आगम से होता है जनमत से नहीं? यह पचमकाल का प्रभाव ही है कि इस अर्थयुग मे जिसे अपनी मान्यता की पुष्टि करानी होती है वह पैसा खर्च करके चन्द कथित विद्वानों को इकट्ठा कर अपने अहं की पुष्टि कराकर खुश होता है कि मैने लका की विजय करली। पर, समझदार एवं आगम श्रद्धालु यह भली भॉति समझते है कि वर्तमान युग मे पैसे का बोलबाला है, कौन सा ऐसा कृतघ्न होगा जो किराया और सम्मान देने वाले दाता का असम्मान कर चला जाय? वह सोचता है जिसमे तुम भी खुश रहो और हम भी खुश रहे ऐसा करो। फलतः वह गीतगाता चला जाता है। और अवसर आने पर बदल भी जाता है। क्योंकि "सचाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलो से। खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलो से ।। ऐसा ही एक विवाद उठा है-आगम भाषा का। उसमे भी परम्परा की लोक से हटकर एक रूपता की जा रही है-प्राचीन आगम-भाषा को अत्यन्त भ्रष्ट तक कहा जा रहा है। पाठक सोचे कि दिगम्बर आगमो की मूल भाषा कौन सी है? क्या उसमें प्राचीन आचार्य प्रमाण है या नवीन कुछ पडित या नवीन कोई आचार्य? दिगम्बर आगों की मूल भाषा मात्र शौरसेनी नहीं वास्तव में शौरसेनी कोई स्वतंत्र सर्वांगीण भाषा नही और न महाराष्ट्री आदि अन्य भाषाए ही सर्वांगीण हैं ! सभी प्राकृतें 'दशअष्ट महाभाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत' जैसी सर्वांगीण भाषा से प्रवाहित हुए झरने जैसी हैं। ये प्राकृत के ऐसे अश रूप हैं जैसे शरीर में रहने वाले नाक कान आदि अग। इनमे केवल नाम भेद है, बनावट भेद है पर रक्त सचार खुराक आदि का साधन मूल शरीर ही है। जिस क्षण ये मूल शरीर को छोड देंगे उस क्षण ये उपाग स्वय समाप्त हो जाएगे अथवा जैसे किसी स्त्री की माग का सिदूर और माथे की बिन्दी उसके सुहागिन होने की पहिचान मात्र होते है वे स्त्री को उसके लक्षणों से वियुक्त नही कर सकते उसका पूर्ण शरीर साधारण स्त्रीत्व को ही धारण करता हैं ऐसी ही स्थिति शौरसेनी आदि उपभाषाओ की है ये भी अन्य सहारे के बिना जी नहीं सकती। और ना ही किसी आगम का किसी उपभाषा-मात्र में सीमित होना शक्य है। ऐसे में केवल शौरसेनी के गीतगाना कोई Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/१२ बुद्धिमत्ता नही। परम्परित प्राचीन दिगम्बर आगमो के मूलरूप व दिगम्बरत्व के प्राचीनत्व को सुरक्षित रखने के उद्देश्य और परम्परित पूर्वाचार्यों की ज्ञान गरिमा का सन्मान देने हेतु हमने आवाज उठाई तब भावी सकट से अजान कुछ अर्थ प्रेमियो ने दलील दी कि जब शब्द रूपो के बदलने से अर्थ मे कोई अन्तर न पडता हो तब शब्द-रूपो के बदलने में क्या हर्ज है? पर, हम कहते है कि जब फर्क ही नही पडता तो बदलने की आवश्यकता ही क्या है? कही,यह रूप-बदल दिगम्बरत्व और दिगम्बर आगमोको परवर्ती बनाने की अज्ञ-भूल तो नही? या कही कोई बड़प्पन दिखाने और आगम सशोधक रूप से प्रसिद्ध होने की मनचीती भावना तो नही जो शुद्ध को अशुद्ध बताकर आगमिक बहुत से शब्दो को बहिष्कृत कर शुद्ध किया जा रहा है। कौन कहता है, हमारे आगमो की भाषा अत्यन्त भ्रष्ट है और हम उसे शुद्ध कर रहे है। दिगम्बरो के आगम-मूलत सर्वथा शुद्ध और प्रमाणिक है और उनके शब्दो मे एक रूपता लाने की जरूरत नही है। उसमे सामान्य प्राकृत जातीय सभी भॉति के शब्द रूप है जैसा कि लेख मे आगे दर्शाया जायगा। रही अर्थ-भेद न होने की बात। सो हम निवेदन कर दे कि आगमो के अर्थ उस लौकिक अर्थ की भॉति नही जो एक नम्बरी या दो नम्बरी (दोनो प्रकार का) होने पर भी सुख-सुविधा मे समान अनुभव देता है। यदि अर्थ प्रेमियो की दृष्टि मे कोई अन्तर नही पडता तो क्यो न णमोकार मत्र के 'णमो अरहताण' को जैनी लोग goodMorning toarihamatas या 'अस्सलामालेकु अरिहन्ता' जैसी भाषा मे पढ लेते और अब भाषा के प्रश्न को गहराई ओर ऐतिहासिक प्राचीनता की दृष्टि से भी सोचा जाय। अन्यथा ऐसा न हो कि हम शिखर जी के अधिकार पाने के लिए झगडते और दिगम्बरत्व का प्राचीनत्व सिद्ध करते रहे ओर अब हमारी भूल से एक नवीन बखेडा और खडा हो जाय और दिगम्बर आगम मूल बदलते रहने से अप्रामाणिक ओर अस्थायी माने जाय। तथा कहा जाये कि जिसके मूल आगम ही शुद्ध नही वह दिगम्बरत्व प्राचीन कैसे? क्योकि जिसके आगम जितने स्थायी और शुद्ध व प्राचीन होगे वह धर्म उतना ही प्राचीन होगा यत-आगम के बिना धर्म नहीं चलता। फलत यदि आगम मूल रूप बदल गया तो दिगम्बरत्व की प्राचीनता और आगम दोनो ऐसे खतरे में पड़ जाएंगे जो 'मिटै न मरि है धोय'। हॉ, इससे इतना तो हो जायगा कि एक नवीन झगडा शुरू हो और नेताओ को नेतागिरी के लिए नया काम मिल जाय दिगम्बर आगमों की मूल भाषा कौनसी? __मूल रूप मे आगमो की भाषा अर्धमागधी रही है ऐसी दोनों सम्प्रदायो की मान्यता है। उसकाल मे यह भाषा विभिन्न प्रदेशो के विभिन्न शब्द रूपो को आत्मसात् करती रही और यह अर्धमागधी ही बनी रही। अर्धमागधी से तात्पर्य है-आधी भाषा मगध की और आधी मे अन्य भाषाएँ । तीर्थकरो की दिव्यध्वनि को गणधरो और परम्परित आचार्यों ने इसी भाषा मे अपनाया । क्योकि आचार्य मुनि विभिन्न प्रदेशो मे भ्रमण करते थे और Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/१३ उन प्रदेशो की भाषा के शब्दो को प्रवचनो मे प्रयोग करते थे। ताकि जन सामान्य उनके उपदेशो को सरलता से ग्रहण कर सके। इस भॉति मूल भाषा अर्ध मागधी ही रही। जिसे बाद में (शौरसेनी बहुल के कारण) जैन-शौरसेनी नाम दे दिया गया । प्राकृत मे महाराष्ट्री, शौरसेनी आदि जैसे भेद तब हुए जब पश्चाद्वर्ती सस्कृत वैयाकरणो ने ई० सन की दूसरी तीसरी शताब्दी मे भाषा को देश-भेद की विभिन्न बोलियो मे बाँधकर व्याकरण की रचना की। इन वैयाकरणो ने सस्कृत के शब्दो के आधार पर प्राकृत शब्दो के रूपो का निर्माण प्रदर्शित किया। प्राय सभी ने प्राकृत (महाराष्ट्री) को प्रधानता दी ओर अन्य प्राकृतो के मुख्य नियम पृथक पृथक निर्दिष्ट कर 'शेष प्राकृतवत्' या महाराष्ट्रीवत् लिख दिया। इससे वैयाकरणो की दृष्टि मे शौरसेनी आदि की गौणता सहज सिद्ध होती है यदि उनकी दृष्टि मे शौरसेनी की प्रमुखता रही होती तो वे शौरसेनी को प्रधानता देते और अन्य भाषाओ के लिए' शेष शौरसेनीवत्' लिखते जैसा कि उन्होने नही किया। वचन से मुकरना : एक बिडम्बना लोक मे सच कबूल कराने के लिए त्रिवॉचा (तीन बार हॉ) भराने की प्रवृत्ति है। और लोग है कि त्रिवॉचा भरने के बाद वचन से नही मुकरते। पर सपादक समयसारादि (कुन्दकुन्द भारती) है कि सात त्रिवॉचा भरने, अर्थात् जैन-शौरसेनी को अनेक बार स्मरण करने के बाद भी वचन से मुकर गए है। स्मरण रहे कि उक्त संपादक ने सन् १६७८ व १६६४ के दोनो समयसारी सस्करणो मे २१-२१ बार जैन-शौरसेनी का स्मरण किया है ओर मुन्नुडि पृ ६ पर स्पष्ट लिखा है कि 'कुन्दकुन्द की सभी रचनाएँ जैन-शोरसेनी मे रची गई है। इन्होने नियमसार प्रस्तावना पृ १२ पर इतना तक लिखा है-'कुन्दकुन्द की भाषा जैन-शौरसेनी है----उन्होने (आ० कुदकुदने) अपनी भाषा मे मगध और महाराष्ट्र मे बोली जाने वाली बोलियो के शब्दो को भी सम्मिलित करके भाषा को नया आयाम प्रदान किया। अब उक्त संपादक ने दिनाक २३ अक्तूबर से ३० अक्तूबर ६४ तक दिल्ली के गुरुनानक फाउण्डेशन मे, कुन्दकुन्द भारती द्वारा मनाई 'राष्ट्रीय शौरसेनी प्राकृत-सगोष्ठी मे वितरित पत्रक मे डा. प्रेम सुमन के साथ निम्न घोषणा की है-'दिगम्बर परपरा के प्राकृत ग्रन्थो की जो भी भाषा उभर कर सामने आती है वह शौरसेनी प्राकृत है उसे इसी नाम से पहिचाना जाना चाहिए-किसी जैन आदि विशेषण लगाने की इसमे आवश्यकता नही है ।' अर्थात् उक्त घोषणा द्वारा ये जैन शौरसेनी भाषा की स्वीकृति से मुकर गए जबकि ये स्वय मुन्नुडि मे जैन-शौरसेनी की स्वीकृति की घोषणा कर चुके हैं और जब कि प्राकृत के ख्याति प्राप्त विद्वान डा हीरालाल जैन इस जैन-शौरसेनी (मिली जली भाषा) से सहमत है ओर डॉ को जुली भाषा) से सहमत है ओर डॉ ए एन उपाध्ये भी मिली जुली प्राकृत (जैन शौरसेनी) की स्वीकृति दे चुके है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/१४ फिर भी यदि इनकी बदली दृष्टि से दिगम्बर आगमों की भाषा शौरसेनी ही है तो, क्यों तो इन्होने नियमसार की प्रस्तावना में कुन्दकुन्द के विषय में ये लिखा कि-'उन्होंने (कुन्दकुन्द ने) अपनी भाषा मे मगध और महाराष्ट्र की बोली को सम्मिलित कर भाषा को नया आयाम दिया। और क्यों अब अपने उक्त पत्रक में ही अन्य भाषाओं के मेल को दर्शाया इन्होंने उक्त पत्रक मे लिखा हैं "डॉ. उपाध्ये ने प्रवचनसार की भाषा का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि इसमें अर्धमागधी की कई विशेषताएँ सम्मिलित है (इन पंक्तियो को डॉ. प्रेम सुमन ने सन् १९८८ में प्रकाशित शौरसेनी प्राकृत व्याकरण की भूमिका में भी दिया हैं।) डॉ. हीरालाल जैन तो स्पष्ट ही कर चुके हैं कि "The prakrit of the sutras, The Gathas as well as of the commentary. is Saurseni influencedby the order Ardhamagahi on the one hand and the Maharastri on the other and this is exactly the nature of the language called Jain saurseni (Introduction of षटखडागमp.IN उक्त स्थिति मे सपादक क्यो जैन शौरसेनी की घोषणा कर अपने वचन से मुकर गए ओर क्यों डॉ सुमन जी भी जैन जैसे सबल विशेषण को हटाने लगे? जो विशेषण कि दिगम्बर जैनागमो की परम्परित मूल भाषा की प्रामाणिकता की सिद्धि मे कवच है। भाषा से जैन-विशेषण हटाने के एकॉगी आग्रह ने ही तो इन्हे यह कहने के लिए मजबूर कर दिया है कि आगम भाषा अत्यन्त भ्रष्ट है आदि प्राकृत महाराथियों के दो ग्रन्थ: जैन आगमो की मान्य अर्धमागधी और बाद मे दिगम्बरो मे मान्य 'जैन शौरसेनी' से जैन शब्द उडाकर उस भाषा को मात्र शौरसेनी का रूप देने वाले दो महारथी विद्वान प्राकृत के ग्रन्थो का संपादन भी करते रहे है और सपादनों मे सहायक भी रहे है। उन्होने ही 'शौरसेनी व्याकरण' तथा 'कुन्दकुन्द शब्दकोश' का निर्माण किया है। दोनो ग्रन्थो मे दिए गए कुछ शब्द ही देखे जॉय और निश्चय किया जाय कि वे शब्द शौरसेनी व्याकरण के किन सूत्रों से निर्मित है और क्या वे शौरसेनी के हैं? यदि दिगम्बर आगमो की भाषा शौरसेनी है और वे शब्द शौरसेनी के है तो कुन्दकुन्द भारती प्रकाशन से वे वहिष्कत क्यो किए गए? और यदि शौरसेनी के नहीं तो क्यों कुन्दकुन्द की रचना में उपलब्ध हए? निर्णय करना आप का कार्य है कि उक्त व्याकरण रचयिता गलत हैं या परमपूज्य आगम भाषा गलत हैं? 'शौरसेनी प्राकृत व्याकरण' (उदयपुर) इक्को पृ. ५५। चुक्किज्ज पृ. ६१। मुणेयव्व पृ. ३४। करिज्ज पृ. ६१। कुणई पृ. १। होइ पृ ३३, ६० । सक्कइ पृ ६४। लोए पृ. ८८. ६० | पुग्गल पृ. २५, ८८.६१। हवइ पृ. ७७। जाण प्र. ६३। भणिऊण पृ. ६४। सुणिऊण पृ. ४। रूधिऊण पृ ६४ आदि। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/१५ 'कुंदकुंद शब्द कोश (विवेक विहार) सुय केवली पृ ३४४ । भणिय पृ. २३५ । इक्क पृ. ५६ । धित्तव्व पृ ११२ । हविज्ज पृ. ३५० । गिण्हइ पृ १०७। कह पृ ८७। मुयइ पृ. २५२ । जाण पृ. १२६ । करिज्ज पृ. ८५। भणिज्ज पृ २३० । पुग्गल पृ. २२५ । जाणिऊण पृ. १२६ । णाऊण पृ १४६ } चुक्किज्ज पृ १२३ आदि। स्मरण रहे कि कुदकुद भारती के सम्पादनो मे उक्त जातीय शब्दो का बहिष्कार कर दिया गया है। और हम उक्त शब्द रूपो और आगमगत सभी शब्द रूपो को सही मान रहे है तब हम पर कोप क्यो? मीठा मीठा गप कडुआ कडुआ थू : सपादक कुदकुद भारती ने डॉ सरजू प्रसाद के 'प्राकृत विमर्ष ग्रन्थ से 'मुन्नुडि पृ. ६ पर एक उदाहरण दिया है जिसमे जैन शौरसेनी की पुष्टि है । पर सपादक की मन चीती न होने से अब वे उसे ठीक नही मान रहे । 'प्राकृत विमर्ष मे निम्न सदेश भी है। उन पर भी विचार होना चाहिए। १ “शौरसेनी ग्रन्थ की स्वतत्र रचनाएँ तो उपलब्ध नही होती परन्तु जैन शौरसेनी मे दिगम्बर सप्रदाय के ग्रन्थ उपलब्ध होते है। कुदकुद रचित 'पवयणसार' जैन-शौरसेनी की प्रारम्भिक प्रसिद्ध रचना है। कुदकुदाचार्य की प्राय सभी रचनाएँ इसी भाषा में है। प्राकृत विमर्श पृ ४३ "महाराष्ट्री स्टैण्डर्ड प्राकृत मानी जाती है ------प्राकृत वैयाकरणो ने महाराष्ट्री को ही मूलमान कर विस्तार से वर्णन किया है और अन्य प्राकृतो को उसी प्राकृत के सदृष्य बताकर कुछ भिन्न बिशेषताएँ अलग अलग दे दी है। वही पृ. ३७ ३ 'शौरसेनी प्राकृत के स्वतत्र ग्रन्थ अभी (सन् १६५३) तक उपलब्ध नही हो सके है वही पृ. ४१ ४ 'महाराष्ट्री प्राकृत को ही वैयाकरणो ने प्रधान भाषा मानकर उसके आधार पर अन्य प्राकृतो का वर्णन किया है। वही पृ. ७५। ५ 'उस काल मे महाराष्ट्री स्टैण्डर्ड प्राकृत थी। वही पृ. ७५ हम यह भी स्मरण करा दे कि अब शौरसेनी की ओर करवट लेने वाले और 'शौरसेनी व्याकरण' तथा कुदकुद शब्दकोश' में विविध भाषाओ के शब्द रूपो का पोषण करने वाले डॉ. प्रेम सुमन जैन हमे दिनांक ३.४.८८ के पत्र में भी तत्कालीन भाषाओ के प्रयोग होने की स्वीकृति पहिले ही दे चुके हैं। तथाहि “कोई भी प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ आगम, किसी व्याकरण के नियमो से बधी भाषा मात्र को अनुगमन नही करता । उसमे तत्कालीन विभिन्न भाषाओं, बोलियो के प्रयोग सुरक्षित मिलते हैं।"-"एक ही ग्रन्थ मे कई प्रयोग प्राकृत बहलता को दर्शाते है। अत Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/१६ उनको बदलकर एक रूप कर देना सर्वथा ठीक नही है।"-"प्राचीन ग्रन्थो का एक रूप कर देना सर्वथा ठीक नही है"-"प्राचीन ग्रन्थो का एक एक शब्द अपने समय का इतिहास स्तम्भ होता है।"नोट-इनके पूरे पत्र के लिए, देखे 'अनेकान्त अक मार्च ६४। ऐसे में यह चिन्तनीय हो गया है कि इनकी करवट का कारण क्या है? हम पुन स्पष्ट कर दे कि हममे इतनी क्षमता नही जो प्रामाणिक आचार्य गुणधर, पुष्पदत, कुदकुद, जयसेन, वीरसेन, जैसे पूज्य आचार्यो की भाषा का तिरस्कार कर किसी आधुनिक आचार्य या किसी बड़े से बडे आधुनिक (प्रसिद्धि प्राप्त) विद्वान या विद्वानो को ज्ञान में उनसे ऊँचा मानने की धृष्टता करे और आगम भाषा की परख के लिए उनसे परामर्श करे या सम्मेलन बुलाएँ । परख की बात उठाना भी घोर पाप और आगम अवज्ञा है। जरा सोचे कि क्या हमारे पूर्व ग्रन्थ भाषा भ्रष्ट है? यदि भाषा भ्रष्ट है तो वे आगम ही नही। ओर जिसके आगम ही ठीक नही वह धर्म (दिगम्बरत्व) भी प्राचीन कैसे? क्यो कि धर्म तो आगम से प्रामाणिकता पाता है। देखे-प्राचीन आगमो के कुछ शब्द। क्या ये भ्रष्ट जातीय शब्द हैं? जिनको कुदकुद भारती ने दिगम्बर आगमो से बहिष्कृत कर कसायपाहड व षटखण्डागम जैसे प्राचीन ग्रन्थो को गलत सिद्ध करने का दु साहस किया है देखे १. कसाय पाहुड के शब्द गाथा २३ 'सकामेइ गाथा २४, २७, ५७, ६२, ७४, ७६, ६५, ६६, १०१, १०३, ११६. १२०,१२२, १२५, १३०, १३६ मे 'होइ। गाथा १६, ६६, १०१, १०४-१०६ भजि यव्यो । गाथा ५६ 'पवेसेइ' । गाथा ४२ णिरय गइ। गाथा ८५ कायव्व गाथा १०८ उवइ-अणुवइट्ट । गाथा १०२, १०६ मिच्छाइट्टी! गाथा १०२ सम्माइट्ठी। २. 'खवणाहियार चूलिया' गाथा ३ होई, गाथा ३. ६, ७, ८, ६, १२ होइ , गाथा ५ छुहइ, गाथा ११ खवेइ आदि। ३. 'षटखंडागम' के शब्द-सत्र ४.१७७.गई। सत्र ५ णायव्वाणि । सत्र ४६ वउविहो। सूत्र २०, ५१, १३२, १३३ वीयराय। सूत्र २५ से २८, ८३ सम्माइट्ठी। सूत्र २५ से २८,७१, ७६ मिच्छाइट्टी। आदि ४. टीका-पृ. ६८ जयउ सुयदेवदा। पृ. ६८.७१ काऊण। पृ ७१ दाऊण । पृ १०३ सहिऊण । पृ ७४ सभबइ। पृ ६८, १०६, ११०, ११३ कुणइ । पृ. ११० उप्पज्जइ। पृ १२० गइ । पृ १२५ कायव्वा । पृ. १२७.१३० णिग्गया। पृ.६८ सुयसायरपारया। पृ ६५ भणिया । आदि ५. कुंदकुंद अष्ट पाहुडो मे ही एक एक पाहुड मे अनेको स्थानो पर-होइ. होई. हवइ, हवेइ, जैसे रूप है। और नियमसार आदि अनेक ग्रन्थो मे ऐसे ही शौरसेनी से बाह्य अनेक शब्द रूप बहुतायत से पाए जाते है। ऐसे मे कैसे माना जाय कि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/१७ दिगम्बर आगम शौरसेनी के हैं और वर्तमान में आगमों में जो जैन शौरसेनी रूप हैं वे अशुद्ध हैं? स्मरण रहे कि जैन शौरसेनी का तात्पर्य ही मिली जुली प्राकृत on जw शौरसेनी करण का इनका नमूना कुन्दकुन्द भारती वाले, शोरसेनी की घोषणा कर आगमों को शौरसेनी में कर भी पा रहे हैं क्या? प्रस्तुत चन्द शब्द रूपों से इनके प्राकृत ज्ञान को सहज ही परखा जा सकता हैं। शौरसेनी प्राकृत व्याकरण और 'कुन्दकुन्द शब्दकोश' द्वारा इनके समर्थकों के प्राकृत ज्ञान का दिग्दर्शन तो हम करा ही चुके हैं। अब देखिए इनके व्याकरण सम्मत शौरसेनी के कुछ शब्द रूप। इन रूपों को इन्होंने अपने संपादनों में दिया है, जबकि ये शौरसेनी के गीत गा रहे है और पुष्टि में समाज का प्रभूत धन व्यय करा विद्वानों को इकट्ठा करने में लगे हैं। देखें १ समयसार द भारती) गाथा १०,३४, ११२, १२७. से गाथा १२६ और गाथा १४७ तथा 'नियमसार गाथा १४३, १४४, १५६ का 'तम्हा' शब्द रूप। २ समयसार गाथा १ का "वंदित्त' शब्दरूप। ३ समयसार गाथा ६३ का 'तुज्झ' शब्दरूप। ४ समयसार गाथा २१, २३, २४, २५, ३३, २७६ से ३०० तक का 'मज्झ' शब्द रूप। ५ समयसार गाथा ८५ का 'चेव' शब्दरूप। ६ समयसार गाथा २७. ३१, ३८, ४२ का 'खलु शब्दरूप। व्याकरण की दृष्टि से शौरसेनी के नियमानुसार उक्त शब्दों के क्रमश निम्नरूप न्याय्य है, जिन्हें शौरसेनी समर्थक शौरसेनी मे नहीं कर सके (क्रमश देखें) १ तम्हा' की जगह 'ता' होने का विधान है। देखें-प्राकृत शब्दानुशासन सूत्र 'तस्मात्ता ३२ १३ और हेमचन्द्र ८४२७८ २ 'वदित्तु की जगह वदिअ या वदिदूण होने का विधान है। देखें प्राकृत शब्दानुशासन सूत्र 'इयदूणौ क्त्वा' ३२१० हेम 'कत्वा इयदूणों' ८४२७१ 'तुज्झ' की जगह ते दे तुम्ह होने का विधान हैं। देखें 'प्राकृतसर्वस्व' सूत्र 'तेदे तुम्हा ङसा ६/८६ ४ षष्ठी विभक्ति में 'मज्झ' होने का विधान नहीं हैं। देखें 'प्राकृत सर्वस्व' सूत्र 'न मज्झ डसा' ६/६४ ५ 'एव की जगह 'एव्व' होने का विधान है। देखें. प्राकृत शब्दानुशासन सूत्र 'एवार्थे एव्व' ३२१८ ६ 'खलु' की जगह 'क्खु होने का विधान हैं । देखें प्राकृत सर्वस्व सूत्र क्खु निश्चयें ६/१५१ संशोधको के संशाधनों में, निश्चय ही शौरसेनी के नियमों से विरूद्ध, अन्य भाषा के शब्द रूप होने से सिद्ध है कि-आगमों की भाषा जैन-शौरसेनी हैं और शौरसेनी के पक्षधर अथक प्रयत्नों के बाद भी 'जैन शौरसेनी' को नहीं मिटा सके हैं। स्मरण Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनक. रहे कि जैन-शौरसेनी भाषा मिली जुली भाषा हैं। और शौरसेनी मूलत. नाटको की प्रमुख भाषा हैं। (साहित्य दर्पणकार ने तो इस भाषा को (६, १५६, १६५ में) सुशिक्षित स्त्रियों के सिवाय, बालक, नपुंसक, ज्योतिषी, विक्षिप्त रोगियों की भाषा तक कहा हैं। लक्ष्मीधर ने षडभाषा चन्द्रिका (श्लोक ३४) में इस भाषा को छमद्वेष धारी साधुओं की भाषा भी कहा हैं। ऐसा डा जगदीशचन्द्र ने पृ २१ पर लिखा हैं। दिगम्बर आगमो को शौरसेनी घोषित करने वाले और व्याकरण के गीतगाने वाले कृपा करके यह भी सोंचे कि जैनाचार्यों ने अपने ग्रन्थों के नामों में जो पाहुड शब्द जोडा हैं। (जैसे कसाय पाहुड, दसण पाहुड, सुत्तापाहुड आदि) वह शब्द शौरसेनी व्याकरण के किन विशेष सूत्रों से संपादित हुआ है? क्योंकि शौरसेनी के जो विशेष नियम सूत्र वैयाकरणों ने दिए है उनमे एक सूत्र भी ऐसा नहीं हैं जो पाहुड शब्द की सिद्धि कर सके। सभी सूत्र अन्य प्राकृतो के हैं। यत पश्चादवर्ती सभी व्याकरण संस्कृत शब्दों के आधार पर निर्मित है और सस्कृत के 'प्राभूत' शब्द को मूल मानकर वैयाकरणो ने पाहड शब्द की रचना की है तथाहि महाराष्ट्री नियम त्रिविक्रम सूत्र ‘खघथधभाम् १३२० से 'भ' को 'ह' हुआ हैं । प्राकृत चन्द्रिका सूत्र 'जैवात्रिके परभृते सभ्रते प्राभृते तथा' सूत्र ३/१०८ से 'ऋ' को 'उ' और सूत्र' तो ड पताका प्राभृति प्राभृत व्यापृत प्रते. २/१७ से 'त' को 'ड' हुआ हैं। तब 'पाहुड शब्द बना है। ऐसे में 'जैन शौरसेनी को बहिष्कृत कर एकदेशीय सकुचित शौरसेनी की घोषणा करना कौनसी सदबुद्धि है-जब कि पूर्वाचार्यो की भाषा सर्वजन सुबोध कही गई है-'बालस्त्रीमंदभूर्खाणा आदि। और वह भाषा अर्धमागधी व जैन-शौरसेनी है। कितना बडा भ्रामकप्रचार : दिगम्बर जैनाचार्यों की परम्परा (विद्वत्परिषद्) में श्रुत धारक भद्रबाहु आचार्य का काल वीर निर्वाण सवत् १६२ बतलाया है और सम्राट चन्द्रगुप्त इन्हीं आचार्य के साथ दक्षिण देश को गए हैं। वह काल उत्तर भारत में बारह वर्षीय दुष्काल का समय हैं। इसी काल में उत्तर भारत से दिगम्बर मुनियो का दक्षिण में बिहार हुआ बताया है इस काल के लगभग ४५० वर्ष बाद अथोत् वीर निवाण संवत् ६१४ में धरसेन आचार्य का प्रादुर्भाव बतलाया है और इसके पूर्व आचार्य गुणधर का समय है । तथा आचार्य पुष्पदन्त का समय वीर निर्वाण सवत ६३३ अर्थात (आचार्य धरसेन के अस्तित्व में) १६ वर्ष के अन्तराल में बतलाया हैं । इस प्रकार आचार्य पुष्पदंत का काल श्रुतकेवली भद्रबाहु से लगभग ४७१ वर्ष बाद और आ० गुणधर का समय भद्रबाहु के ४५० वर्ष बाद का ठहरता हैं । दिगम्बरों की मान्यता में आचार्य गुणधर कृत 'कसाय पाहुड' व आचार्य पुष्पदन्त कृत 'षट् खण्डागम' ग्रन्थराज दो ग्रन्थ ही ऐसे प्राचीनतम हैं जो सर्वप्रथम प्रकाश में आए। इनसे पूर्व किन्हीं ग्रन्थो का निर्माण नहीं हुआ ऐसी अवस्था में इस काल से ४७१ और ४५० वर्ष पूर्व के मुनियो के लिए ऐसा लिख देना कि 'जब मौर्य युग में जैन मनिसंघ दक्षिण की ओर गया तो उनके ग्रन्थों के साथ प्राचीन शौरसेनी का दक्षिण Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/१६ भारत में अधिक फैलाव हुआ। सम्राट खारवेल ने अपने राजनैतिक प्रभाव से इस भाषा को वहाँ संरक्षण प्रदान किया' (राष्ट्रीय शौरसेनी प्राकृत संगोष्ठी में वितरित पत्रक) यह कितना बड़ा भ्रामक प्रचार हैं जबकि उक्त दोनों ग्रन्थो से पूर्व के कोई ग्रन्थ आज भी उपलब्ध नहीं हैं। खारबेल के शिलालेख : सगोष्ठी मे वितरित पत्रक मे कहा गया है कि सम्राट खारवेल ने अपने राजनैतिक प्रभाव से इस भाषा (प्राचीन शौरसेनी) को वहाँ संरक्षण प्रदान किया। उक्त सरक्षण कार्य के विषय में कुदकुंद भारती की ओर से कोई ऐतिहासिक प्रमाण या खारवेल के आदेश पत्र का कोई प्रमाण तो प्रस्तुत नहीं किया गया। हॉ, वहाँ के संपादक ने 'मुन्नुडि पृ.६ पर हाथी गुंफा के शिललेख का उद्धरण देते हुए शिला मे अकित 'नमो सव सिधान' शब्द का संकेत अवश्य दिया है। यह शिलालेख खारवेल (मौर्यकाल के १६५ वे वर्ष) का है उक्त शिलालेख में णमोकार मत्र के 'नमो अरहंतानं, नमो सवसिधान' का उल्लेख है और इसी शिलालेख मे 'पसासित, पापुनाति, कारयति, पथापयति, वितापति आदि ऐसे बहुत से शब्द है जो प्राचीन या नवीन किसी भी शौरसेनी के नहीं है। क्योकि शौरसेनी मे 'त' के स्थान में 'द' करने का अकाटय नियम है और यहाँ क्रियापदो मे सर्वत्र 'त' का प्रयोग हैं। (देखे जैन शिलालेख सग्रह २ भाग पृ० ४) इसके सिवाय दिगम्बरों में णमोकार मंत्र का प्रचलन 'ण' प्रमुख है और इस मंत्र का सर्वप्रथम उल्लेख जो षट् खण्डागम के मगलाचरण में उपलब्ध है उसमें भी मत्र मे सर्वत्र 'ण' का उल्लेख है। तो प्रश्न होता है कि 'न' और 'ण' इन दोनो में प्राचीन शौरसेनी कौनसी है और नवीन कौनसी हैं? खारवेल के शिलालेख की या षट् खण्डागम के पाठ की? यदि दिगम्बर आगमों की भाषा प्राचीन शौरसेनी है तो आगमों मे 'ण' क्यों? और यदि 'ण' का पाठ है तो वह शौरसेनी क्यो? और शौरसेनी व्याकरण के किस विशिष्ट सत्र के नियमसे? मथरा के प्राचीन अनेक शिलालेखो मे भी 'नमो अरहतानं का उल्लेख हैं। (शिलालेख सं. भाग २ पृ. १७. १८.) हम पुनः निवेदन कर दे कि यद्यपि हमें परंपरित प्राचीन प्राकृत आगमों की भाषा बधनमुक्त इष्ट है- 'सकल जगज्जन्तुना व्याकरणदिभिरनाहित संस्कारः सहजो वचन व्यापारः प्रकृतिः। तत्र भवं सैव प्राकृतम्। तथापि हमें प्राकृत मे व्याकरण मान्यता वालो को इंगित करने हेतु उक्त प्रसंग दर्शाने पडे हैं। ताकि विज्ञजन भी सशोधको की स्वमान्य शौरसेनी की व्याकरणज्ञातीतता को सहज ही हृदयंगम कर सकें। इनके संशोधन पश्चाद्वर्ती व्याकरण से भी ठीक हैं क्या? खारवेल के शिलालेख किसी कथन मात्र से शौरसेनी नहीं हो जाते-उनकी भाषा तो अभी विवादस्थ हैं आदि। कई लोग हमसे कहते हैं-इस अर्थयुग में आप ज्ञान की बात क्यों करते हैं? जैसा चलता है, वैसा चलता रहे। काल का प्रभाव तो होता ही है। सो हमारा कहना है कि कभी तो किसी के भनक पडेगी कान। और नहीं तो हमारे दिवगत आचार्य तो जान ही रहे हैं। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२० आगम भाषा और लिपि न्यायमूर्ति एम एल जैन प्राकृत भाषा मे निबद्ध दि. जैन आगम के सम्पादन को लेकर कुछ समय से दो विभिन्न मत सामने आए है। एक पक्ष का विचार है कि “सम्पादन के लिए किसी प्राचीन प्रति को जिसके सम्बन्ध मे यह विश्वास हो कि उसके पाठ प्राय शुद्ध है आदर्श प्रति मान लिया जाता है। आदर्श प्रति के अतिरिक्त लिखित या मुद्रित जो भी प्रतियाँ मिल सकती है उनसे पाठ का मिलान किया जाता है। पाठ भेद होने की दशा में प्राचीन प्रति या आदर्श प्रति के पाठ का व्याकरण आदि की दृष्टि से अन्त परीक्षण किया जाता है। इस प्रकार पाठ का निर्धारण किया जाता है। पाठ निर्धारण की यह विद्वत्सम्मत प्रक्रिया है। दूसरे पक्ष का विचार है कि किसी ऐसे पाठ को जो प्राचीनतम (या आदर्श) प्रति मे है इसलिए नहीं बदला जा सकता कि वह व्याकरण सम्मत नहीं है ऐसा करना आगम में परिवर्तन करना है। टिप्पण दिया जाना प्राचीन परपरा है। इस विषय मे मेरे समान 'अल्पश्रुत' व्यक्ति के लिए कुछ निश्चय करना उतना ही कठिन है जितना आगम का अर्थ करना-समझना ।फिर भी यह कुछ लिखने का साहस इसलिए है कि कदाचित इस विषय पर कुछ प्रकाश पडे । भरत के नाटयशास्त्र (१-२ ई. सदी) के अनुसारचतुर्विधा प्रवृत्तिश्च प्रोक्ता नाटय प्रयोकतृभिः आवन्ती, दाक्षिणात्या च पान्चाली चोड्रमागधी अर्थात् नाटको मे चार प्रकार की प्राकृत का प्रयोग होता है पश्चिम की आवन्ती दक्षिण की दाक्षिणात्य उत्तर की पाञ्चाली पूर्व की ओड्रमागधी अशोक के शिलालेखो की भाषा मौर्य काल से पहले से चली आ रही पर्याप्त उन्नत मागधी प्राकृत है। वह भी सारे भारत मे न प्रचलित थी और न हो ही सकती थी। अत उस पर भी विभिन्न प्रदेशो की भाषाओं का असर दिखाई पडता है जैसे गिरनार के शिलालेख में पैशाची प्राकृत का प्रभाव । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२१ अशोक के बाद कलिग मे खारवेल के समय मे जो प्राकृत प्रचलित थी वह मागधी नही, स्थानीय प्राकत थी। इसीलिए उदयगिरी व खण्डगिरी पर ब्राहमी लिपि मे उत्कीर्ण शिलालेखो की भाषा मागधी प्राकृत से भिन्न अपनी स्वय की विशेषताएँ लिए हुए अलग किन्तु उन्नत प्राकृत है। इस प्राकृत का नाम ओड्र मागधी है जो ई.पू. पहली सदी मे ओड्र, मगध, अग, बेग, कलिग, पौड़ आदि प्रदेशो मे प्रचलित थी। मेरे अनुमान से ओड्रमागधी का ही सस्कृतीकरण होकर अर्धमागधी नाम पड़ गया। अब अशोक के अथवा खारवेल के हाथीगुमफा के समय की कोई व्याकरण तो उपलब्ध है नही जिसके आधार पर से यह कहा जा सके कि शिलालेखो की भाषा कितनी शुद्ध है या कितनी अशुद्ध। दरअसल उनकी भाषा के सशोधन के प्रयत्न का अर्थ होगा १भविष्य मे लेखो की प्राचीनता पर सशय पैदा करना, तथा २ भाषा के वर्गीकरण व इतिहास के सकेतो को मिटा देना। समयसार का कौन सा पाठ वही पाठ है जो स्वय कुदकुद ने लिखा या बोला था, यह कहना तो असभव कार्य है, अभी तो विद्वान उनके समय के बारे मे भी एकमत नही है। हमे यह भी पता नही कि उस समय कोन सा व्याकरण प्रचलित था। इसके इलावा समयसार के करीब २० मुद्रित सस्करण निकालेगे। उनकी भाषा पर सर्वत्र नियत्रण रखना भी सभव नहीं है। इस विषय पर दोनो पक्ष विचार विमर्श कर चुके है और अब इस चर्चा को विराम देना ही हितकर है। इस पर लगे समय व साधनो का उपयोग जैन साहित्य के प्रचार-प्रसार मे करना अधिक श्रेयस्कर है। मान्यता है कि महाराज ऋषभ देव ने लिपि का आविष्कार किया और उसका नाम अपनी बेटी ब्राह्मी के नाम पर रखा । अत नि.सन्देह ब्राह्मी लिपि का प्रयोग कार्य सम्पादन मे लोग तब से ही करते आ रहे होगे फिर भी समस्त तीर्थकर, केवली सर्वज्ञ गणधर लिपि का प्रयोग न कर केवल स्मरण शक्ति पर आधारित श्रुत ही चलाते रहे। इस हद तक कि मूल दिगम्बर आगम का अधिकाश विच्छिन्न हो जाने दिया। इसके पीछे का रहस्य क्या है यह माने कि यह इसलिए किया गया कि यदि शास्त्र लिपिवद्ध हो जाते, तो चिन्तन के विकास की धारा अवरूद्ध हो जाती और कट्टरता पनपती जैसा कि आगम लिपिवद्ध होने के पश्चात् से आज तक होता आ रहा है। क्या हमारे पण्डित इस विषय पर ज्ञानाजन शलाका चलाने की कृपा करेगे। मिथ्या भाव अभावतें, जो प्रगटै निजभाव । सो जयवन्त रहो सदा, यह ही मोक्ष उपाय ।। इस भव के सब दुखनि के, कारण मिथ्याभाव । तिनकी सत्ता नाशकरि, प्रगटै मोक्ष उपाय।। यह विधि मिथ्या गहन करि, मलिन भयो निजभाव । ताको होत अभाव है, सहजरूप दरसाव ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२२ कलि कालिदास : पं. आशाधर आचार्या जैनमती जैन एम ए (प्राकृत जेनोलॉजी) भारतीय साहित्य के क्षेत्र मे 'कालिदास महान प्रसिद्ध कवि हो गए हैं। 'पं. आशाधर' को भी उनके प्रशंसको ने उन्हे 'कलि कालिदास' कहा है। कलि कालिदास कहने का औचित्य क्या है? कवि कुलगुरू कालिदास ने साहित्य-साधना और प्रतिभा के बल पर अनेक महाकाव्यों, नाटको ओर खण्ड काव्यों की प्रौढ सस्कृत भाषा मे सृजना कर भारतीय वाड्.मय के विकास मे महान योगदान दिया है। क्या ई० सन् १४वीं शताब्दी के आचार्य प० आशाधर ने कवि कालिदास के समान साहित्य-सृजना की कलि कालिदास कहने का तात्पर्य यही है कि पं. आशाधर ई० पूर्व प्रथम शताब्दी में होने वाले कालिदास के समान अपूर्व प्रतिभावान और काव्य की सभी विधाओं पर लेखनी चलाने के धनी थे तथा उनका आदर्श जीवन अनुकरणीय था । ऊहापोह पूर्वक सिद्ध किया जाएगा कि पं. आशाधर कलि कालिदास थे या नहीं? क्यों कि आज कल भक्त लोग निर्गुण लोंगो को भी कलिकालसर्वज्ञ आचार्य कल्प आदि उपाधियो से विभूषित करने लगे है। सागार धर्मागृत के लेखक पं. आशाधर महान अध्ययनशील थे। उनके विशद एवं गम्भीर अध्ययन का ही यह प्रसाद है कि विभिन्न विषयों-जैन-आचार, अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, काव्य, कोष, आयुर्वेद आदि सभी विषयों के वे प्रकाण्ड पडित के रूप मे विश्रुत हो सके। उनके समान कोई गृहस्थ ख्याति प्राप्त प्रतिष्ठित विद्वान नहीं हुआ हैं। प कैलासचन्द शास्त्री के रशब्दो में: "आशाधर अपने समय के बहुश्रुत विद्वान थे। न्याय, व्याकरण, काव्य, साहित्य, कोश, वेद्यक, धर्मशास्त्र अध्यात्म, पुराण आदि विषयों पर उन्होने रचना की है। सभी विषयों पर उनकी अस्खलित गति थी ओर तत्सम्बन्धी तत्कालीन साहित्य से वे सुपरिचित थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका समस्त जीवन विद्या व्यासंग मे ही बीता था और वे बड़े ही विद्यारसिक ओर ज्ञानधन थे। आचार्य जिनसेन ने अपनी जयधवला टीका की प्रशस्ति में अपने गुरू वीरसेन के सम्बन्ध में लिखा है कि उन्होने चिरन्तन पुस्तकों का गुरूत्व करते हुए पूर्व के सब पुस्तक शिष्यो को छोड दिया था अर्थाचिरन्तन शास्त्रो के वे पारगामी थे। प आशाधर भी पुस्तक शिष्य कहलाने के सुयोग्य पात्र थे। उन्होने अपने समय में उपलब्ध समस्त जैन पुस्तको के आत्मसात कर लिया था १" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२३ जैन साहित्य ओर इतिहास में पं. नाथूलाल २ ने भी उपर्युक्त प्रकार से विचार प्रकट किए हैं। (क) आकर्षक व्यक्तित्व : पं आशाधर बहुमुखी प्रतिभा के धनी एव असाधारण कवि थे। उनका व्यक्तित्व सरल ओर सहज होने के कारण उनके मित्रो के अलावा मुनि ओर भट्टारक भी प्रशंसक थे। उन्होने उनका शिष्यत्व स्वीकार कर गौरव का अनुभव किया था। उनकी अपूर्व एव विलक्षण प्रतिभा ने विद्वानो को चकित स्तम्भित कर दिया था। राजा विन्ध्यवर्मा के सन्धि वैग्रहिक मंत्री एव महाकवि बिल्हण ने आशाधर की विद्वत्ता पर मोहित होकर कहा था . हे आशाधर! तथा हे आर्य तुम्हारे साथ मेरा स्वाभाविक सहोदर पना है और श्रेष्ठपना है, क्यो कि तुम जिस तरह सरस्वति पुत्र हो उसी तरह मै भी हूँ। ३' उपर्युक्त कथन से सिद्ध है कि आशाधर कोई सामान्य पुरुष नहीं थे। इनके अपरिमित ज्ञान को देखकर श्री मदनकीर्ति मुनि ने उन्हे प्रज्ञा प्रज (ज्ञान के भंडार) कहा है ४ इसी प्रकार उनके गुरूत्व से प्रभावित एव आकर्षित होकर अनेक मुनियो एवं विद्वानों ने उन्हे अनेक उपाधियो से विभूषित किया है मुनि उदयसेन ने पं. आशाधर को 'नय विश्व चक्षु' और 'कलि कालिदास' कहकर अभिनन्दन किया ५ भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति ने आशाधर को 'सूरि सम्यग्धारियों में शिरोमणि आदि कहा है। उतरवर्ती विद्वानो ने पं. आशाधर को आचार्य कल्प कहा है ६। इस प्रकार अनेक मुनिगण ने उनका यशोगुणगान किया हैं। । यद्यपि पं आशाधर गृहस्थ विद्वान थे, लेकिन उन्हे निर्विकल्प अनुभूति हुई थी ७। पूर्व परम्परा के सम्यक् अध्येता प. आशाधर की विद्वत्ता पर जैनेतर विद्वान भी मुग्ध थे। अष्टांगहदय' जैसे महत्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रन्थ पर टीका लिखी। काव्यालकार और अमरकोश की टीकाएँ भी उनकी विद्वत्ता की परिचायक है। .(ख) प. आशाधर का जीवन वृत्त : पं. आशाधर उन विद्वानो मेंसे नहीं हैं जो अपने सम्बन्ध मे चुप रहते हैं अर्थात् कुछ भी नहीं लिखते है यह परम सौभाग्य की बात है कि पं आशाधर ने जिन यज्ञ कल्प, सागार धर्मामृत और अनागार धर्मामृत नामक ग्रन्थों की प्रशस्ति मे अपनी जन्मभूमि. जन्मकाल, मातापिता, विद्या भूमि. कर्मभूमि आदि के सम्बन्ध पर्याप्त जानकारी दी। इन्ही प्रशस्तियो के आधार पर उनका जीवन वृत प्रस्तुत करना समुचित है। १. जन्मभूमि-: प. आशाधर की जन्मभूमि के सम्बध मे कोई विवाद नहीं है। प्रशणस्ति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि शाकभरी (साभरझील) के भूषणरूप सपादलक्षदेश के अन्तर्गत मण्डलकर दुर्ग (मेवाड) नामक देश अर्थात् स्थान को प आशाधर ने पवित्र किया था, दूसरे शब्दो में कहा जा सकता है कि वर्तमान मे राजस्थान का माण्डलगढ जिला भीलवाडा (दुर्ग) मे प आशाधर का जन्म हुआ था। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२४ २. माता-पिता एवं वंश-: सागार धर्मामृत की प्रशस्ति मे उल्लेख मिलता है कि जैनधर्म श्रद्धालु भक्त सल्लक्षण प आशाधर के पिता थे और माता का नाम श्री रत्नी था ६ प आशाधर के पिता को राजाश्रय प्राप्त था। प. आशाधर जी का जन्म राजपूताने की प्रसिद्ध वैश्य जाति व्याघेरवाल या बघेरवाल जाति मे हुआ था १०। ३. पारिवारिक स्थिति-: प. आशाधर का विवाह हुआ था । अत्यधिक सुशील एव सुशिक्षित सरस्वती नामक महिला को प आशाधर की पत्नी होने का सौभाग्य मिला था। इनके छाहड नामक एक पुत्र था, जिसने अपने गुणो के द्वारा मालवा के राजा अर्जुनवर्मा को प्रसन्न किया था ११। पडित नाथूराम प्रेमी १२ सल्लक्षण के समान इनके बेटे छाहड को अर्जुनवर्मा देव ने कोई राज्यपद दिया होगा। क्यो कि "अक्सर राजकर्मचारियो के वशजो को एक के बाद एक राजकार्य मिलते रहते है।" उपर्युक्त उल्लेख से सिद्ध होता है कि प आशाधर का कुल सुसस्कृत राजमान्य था। ४. भाई-बन्धु-: उपलब्ध प्रशस्ति मे यह उल्लेख नहीं मिलता है कि प. आशाधर के कोई बन्धु था। प प्रेमचन्द डोणगावकर न्यायतीर्थ के अनुसार इनके वाशाधर नामक बन्धु होने का दो जगह उल्लेख हुआ है वाशाधर के स १२३६ मे भट्टारक नरेन्द्र कीर्ति के उपदेश से काष्टासघ मे प्रवेश किया था १३। ५. शिक्षा एवं गुरू परम्परा-: प आशाधर की प्रारम्भिक शिक्षा कहाँ हुई इसका कही उल्लेख नही मिलता है। इनका बचपन माण्डल गढ मे बीता था। सभव है यही पर इन्हाने प्रारम्भिक शिक्षा पाई हो । वि स १२४६ मे जब आशाधर १६ वर्ष के हुए तो उस समय म्लेच्छ (मुसलमान) राजा शहाबुद्दीन द्वारा सपादलक्ष देश पर आक्रमण किया गया था और उसका राज्य भी हो गया था। इसके राज्य मे जेन यतियो पर उपद्रव होने लगा था। जेन धर्मानुसार आचरण करना कठिन हो गया था। जैन धर्म पर आघात होने और उसकी क्षति होने के कारण अपने जन्म स्थान छोडकर सपरिवार मालवा मण्डल की धारापुरी नामक नगरी मे आ गए थे। उस समय वहाँ विन्ध्य वर्मा राजा थे। यहीपर रह कर आशाधर ने वादिराज के शिष्य प धरसेन ओर इनके शिष्य प महावीर से जैनधर्म, न्याय ओर जैनेन्द्र व्याकरण पढा था १४।। अत प. महावीर ही इनके विद्यागुरू है। यहीं पर अनेक विषयो का गभीर स्वाध्याय कर जेन धर्म के वे मर्मज्ञ विद्वान बनकर पडित उपाधि से विभूषित हुए। ६. कर्मभूमि-: विद्या भूमि धारानगरी मे प आशाधर जैन एव जैनेतर समस्त साहित्य का अध्ययन कर बहुश्रुत हो गए थे। इसके पश्चात् धारा को छोडकर नालछा आ गए। आखिर क्यो? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उस समय 'धारानगरी काशी की तरह विद्या का केन्द्र थी। प नाथूराम प्रेमी १५ का कहना है कि उस नगरी के सभी राजा-भोजदेव, विन्धय वर्मा, अर्जन वर्मा केवल विद्वान ही न थे, बल्कि विद्वानो का सम्मान भी करते थे। परिजात मञ्जरी मे महा कविमदन ने लिखा है धारानगरी की Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२५ चोरासी चौराहो पर विभिन्न दिशाओ से आने वाले विभिन्न विद्वानो के पडितो ओर कला-कोविदो की भीड रहती थी। वहाँ की 'शारदा-सदन विद्यापीठ' की ख्याति दूर-दूर तक व्याप्त थी। इस प्रकार की विद्यास्थली धारानगरी को छोड़ने का निर्णय करके नालछा (नलकच्छपुर) के लिए प्रस्थान करने का निर्णय आश्चर्य जनक प्रतीत होता है। इनकी प्रशस्ति से उपर्युक्त जिज्ञासा का समाधान हो जाता है। उन्होने स्वय लिखा है कि जेन शासन की प्रभावना (धर्माराधना-पाठन-पाठन) के लिए उन्होने धारानगरी छोडी। नालछा उस समय जैन धर्म से सम्पन्न श्रावको से व्याप्त था । अर्जुन वर्मा का राज्य था। अत धारा से दस कोश की दूरी पर स्थित नालछा नगर को इन्होने पनी कर्मभूमि बनाया १६ । वे नालछा मे लगभग ३५ वर्षों तक रहे । यहाँ के नेमिचैत्यालय मे जैन शास्त्रो का पठन-पाठन, साहित्य सृजना आदि करते हुए जैन धर्म की प्रभावना की। ७. शिष्यसम्पदा-: पडित आशाधर की शिष्य सम्पदा प्रचुर थी। उनके विद्याभ्यास समाप्त होते होते उनकी विद्वता की कीर्ति चतुर्दिक व्याप्त हो गई थी। उनकी अभूतपूर्व प्रतिभा ने श्रावको के अतिरिक्त अनेक मुनियो ओर जेनेतरो को आकर्षित किया था अपने शिष्यो को ऐसा ज्ञान कराया कि व्याकरण, काव्य, न्यायशास्त्र ओर धर्मशास्त्र मे उन्हे कोई विपक्षी जीत नही सकता था। प्रशस्ति मे उन्होने स्वय कहा हे "सुश्रुपा करने वाले शिष्यो मे ऐसे कौन हे जिन्हे आशाधर ने व्याकरण रूपी समद्र के पार शीघ्र ही न पहुंचा दिया हो, ऐसे कौन है जिन्होने आशाधर के षटदर्शन रूपी परमशास्त्र को लेकर अपने प्रतिवादियो को न जीता हो, आशाधर से निर्मल जिनवाणी रूपी दीपक ग्रहण करके जो मोक्ष मार्ग मे प्रबुद्ध न हुए हो और ऐसा कौन है जिसने आशाधर से काव्यामृत का पान करके इसके पुरूषो मे प्रतिष्ठा न प्राप्त की हो १७?" थन से सिद्ध है कि उनके शिष्य उन्ही के समान अपने-अपने विषय के निष्णात विद्वान थे। उनके शिष्यो मे निम्नाकित शिष्य प्रमुख एव उल्लेखनीय हैं १८ । १ पं. देवचन्द्र : इन्हे आशाधर ने व्याकरण शास्त्र मे निण्णात विद्वान बनाया था। २ वादीन्द्र विशाल कीर्ति आदि : इन्हे षडदर्शन एव न्याय शास्त्र पढाकर विपक्षियो को जीतने मे समर्थ ज्ञाता बनाया । चदुर्दिक के वादियो को जीत कर इन्होने महाप्रमाणिक चूडामणि की उपाधि प्राप्त की थी १६ ।। ३ भट्टारक देवचन्द्र, विनयचन्द्र आदि : इन्हे प आशाधर ने धर्मशास्त्र ( सिद्धान्त) का अE ययन कराया था। इसी अध्ययन के प्रभाव से वे मोक्षमार्ग की ओर उन्मुख हुए थे २०। ४ महाकवि मदनोपाध्याय आदि : को काव्यशास्त्र का अध्ययन करा रसिक जनो से प्रतिष्ठा प्राप्त करने का अधिकारी बनाया था। इसके अतिरिक्त मुनि उदयसेन कवि अर्हददास को इनका शिष्य होने का उल्लेख विद्वानो ने किया है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२६ (ग) पं. आशाधर का समय : प. आशाधर का जन्मसमय विवादग्रस्त नहीं हैं। इसका कारण यह है कि उन्होने स्वयं अपनी रचनाओं की तिथियो का उल्लेख किया हैं। प्रशस्तिों का आधार : पं. आशाधर के तीन ग्रन्थो में उनके द्वारा लिखी गई प्रशस्ति उपलब्ध हैं। जिन यज्ञकल्प प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ वि. सं. १२८५ में समाप्त हुआ था। इसमें जिन ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है वे निश्चित रूप से वि. सं. १२८५ में रचे गए थे। अनगार धर्मामृत टीका वि. स १३०० में पूरी हुई थी २१ । अत सिद्ध है कि इनका जन्म वि सं. १३०० के पहले अवश्य हुआ होगा। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री का अनुमान है कि वि. सं. १३०० को उनकी आयु ६५-७० वर्ष रही होगी। इसीलिए इनका जन्म वि स. १२३०-३५ के लगभग हुआ होगा २२। दूसरी बात है कि वि स. १२४८-४६ मे वे माण्डलगढ से मालवा की धारा नगरी मे आए थे। उस समय उनकी आय २० वर्ष की थी। इससे सिद्ध होता है कि उनका जन्म वि. सं. १२२८-२६ में हुआ होगा २३। इस सम्बन्ध मे यह भी उल्लेखनीय है कि जब वे धारानगरी आए उस समय विन्ध्यवर्मा का राज्य था। विन्ध्यवर्मा का समय वि. स १२१७-१२३७ माना गया है २४। अतः सिद्ध है कि वि स. की तेरहवीं शताब्दी मे उनका जन्म हुआ होगा। प नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि प. आशाधर ३५ वर्षों तक नालछा मे रहे २५ । २० वर्ष की अवस्था मे उन्होंने व्याकरण का अध्ययन किया होगा और इसके बाद वे नालछा मे आकर साहित्य सृजन करने लगे होंगे। अतः पहली रचना उन्होने २० वर्ष की अवस्था मे की होगी। अतः ३५+३०=६५ वर्ष उनकी आयु सिद्ध होती है। 'जिनयज्ञ कल्प' वि. स १२८५ मे से ६५ घटाने पर उनका जन्म वि स १२३० सिद्ध होता है २६ । २. पं. आशाधर ने उल्लेख किया है कि वे अर्जन वर्मा देव के वि. स. १२६७ वि. स. १२७० ओर १२७२ के दानपात्र मिले हैं। इससे निष्कर्ष निकलता हे कि अर्जुनवर्मा देव वि. सं १२६५ मे अवश्य राजा हुए होगे। धारा मे प. आशाधर ने २५-२६ वर्ष की आयु में अध्ययन समाप्त किया होगा। अध्ययन समाप्त करके वे नालछा चले गए थे। अत. इनका जन्मकाल वि. सं. १२३०-१२२८ सिद्ध होता है। ३. वि० स० १३७६ मे रचित जिनेन्द्र कल्याणभ्युदय में कवि अम्भपार्य ने अन्य जैन आचार्यों के साथ प आशाधर का उल्लेख किया है २७। अत पं. आशाधर का जन्म विक्रम सम्वत् की १३वीं शती में हुआ होगा। मेरे इस कथन की पुष्टि प कैलाशचन्द्र शास्त्री, प नाथूराम प्रेमी. प जगन्मोहन लाल शास्त्री, शातिकुमार ठवली प्रभृति विद्वानो की मान्यता से होती हैं २८| Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२७ (घ) कृतियाँ पं. आशाधर नेधारा नगरी छोडकर नालछा आने के पश्चात् साहित्य-सृजन कार्य आरम्भ किया। कृतियों की रचना, साहित्य सेवा और जिनवाणी की सेवा एवं उपासना का केन्द्र बनाया। आशाधर का अध्ययन अगाध और अभूतपूर्व था। यही कारण है कि उन्होने संस्कृत भाषा में न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, अध्यात्म, पुराण, शब्दकोष, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र वैद्यक (आयुर्वेद) ज्योतिष आदि विषयों से सम्बंधित विपुल ग्रन्थों की रचना कर जेनवाङमय को समृद्ध करने में अभूतपूर्व योगदान किया। शांतिकुमार ठवली के अनुसार आशाधर ने १०८ ग्रन्थों की रचना की थी। वे लिखते है कि उनकी एक सौ आठ रचनाओं का पता चला है। और भी न मालूम कितनी रचनाएँ नष्ट व अज्ञात रही है। ज्ञात रचनाओं मे प्रथमानुयोग की ११. करणानुसयोग की चार, चरणानुयोग की ११, द्रव्यानुयोग की ८ विशेष है तथा पूजन, विधान, भक्ति, प्रतिष्ठा, टीका आदि ७० ग्रन्थ उपलब्ध है और अष्टांग हृदय संहिता, शब्द त्रिवेणी, जैनेन्द्र प्रवृति, काव्यालकार टीका आदि का उल्लेख तथा पता भी मिलता है २६ । लेकिन ठवली ने अपने कथन मे किसी प्रमाण का उल्लेख नहीं किया है। पं. आशाधर ने जिन यज्ञकल्प, सागार धर्मामृत टीका और अनागार धर्मामृत टीका की प्रशस्तियों में अपने ग्रन्थो का उल्लेख किया है तथानुसार उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नांकित हैं। : (अ) जिनयज्ञकल्प की प्रशस्ति में उल्लिखित ग्रन्थ जिनयज्ञकल्प ३० की प्रशस्ति के अनुसार यह ग्रन्थ विक्रम सं. १२८५ में पूरा हुआ था। इसमें इसके पूर्व मे लिखें गए ग्रन्थो का उल्लेख है कि जो निम्नाकित है(१) प्रमेयरत्नाकर . पं. आशाधर ने स्याद्वाद विद्या का विशद प्रसाद कहा है। यह तकशास्त्र विषयक ग्रन्थ है। इसकी रचना पद्यो में की गई थी। आशाधर ने कहा है कि इसमें निर्दोष विद्यामत का प्रवाह बहता है। यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है। इसकी प्रति सोनागिरि में होने का उल्लेख विद्वानो मे किया है ३१ (२) भरतेश्वराम्युदय काव्य : इसे आशाधर ने सिध्यक भी कहा है क्योकि इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिमवृत मे "सिद्धि' शब्द का प्रयोग हुआ हैं । इस सत्काव्य में भरत चक्रवर्ती के जीवनवृत्त विशेष कर मोक्ष प्राप्ति का वर्णन रहा होगा। क्योंकि यह काव्य अध्यात्मरस से युक्त था। प्रस्तावना से यह भी ज्ञात होता हे कि कवि ने इसकी रचना अपने का के लिए कीथी। इस पर उन्होंने टीका भी की थी। दुर्भाग्य से आज यह उपलब्ध नहीं हैं। इसकी पाण्डुलिपि सोनागिरी मे मौजूद है। (३) धर्मामृत : धर्मामृत की रचना अनगार और सागार इन दो भागो में हुई है । अनगार धर्मामृत मे मुनि धर्म का वर्णन करते हुए मुनियो के मूल और उत्तरगुणो का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया हैं। इसमे ६ अध्याय है। पहले अध्याय में ११४ श्लोको के द्वारा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२८ धर्म के स्वरूप का वर्णन किया गया है दूसरे अध्याय मे ११४ श्लोको के द्वारा सम्यक्त्वोत्पादनादिक्रम का ज्ञानाराधना नामक तीसरे अध्याय २४ श्लोक चरित्राराधन का वर्णन चतुर्थ अध्याय मे १८३ श्लोको मे . पिण्डुशुद्धि नामक पॉचवे अध्याय मे ६६ श्लोको के द्वारा भोजन सम्बन्धी समस्त दोषो का विस्तार से निरूपण कर के साधु कानिर्दोष भोजन करने योग्य बतलाया गया है। छठे अध्याय मे एक सौ बारह श्लोक इसका नाम मार्ग महोयोग है। तपाराधना नामक सातवे अध्याय मे १०४ श्लोक द्वारा १२ तपो का वर्णन है। आठवे अध्याय का नाम आवश्यक है। इसमे१३४ श्लोको मे साधु के छह आवश्यक-सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग का वर्णन है । नौवे अध्याय मे नित्यनैमित्तिक क्रियाओ का वर्णन १०० श्लोको मे हुआ है । इस प्रकार इसमे कुल ६५४ श्लोक है। ज्ञानदीपिका उन्होने सस्कृत पञ्जिका भी स्वोपज्ञ लिखी थी। सागार धर्मामृत ग्रहस्थधर्म का निरूपण आठ अध्यायो मे हुआ है। इसका विस्तृत विवेचन आगे करेंगे ३२ । (४) अष्टांग हृदयोद्योत : ‘वाग्मटसहिता' अष्टाग हृदय नामक आयुर्वेद ग्रन्थ जिसकी रचना 'वाग्भट' ने की थी, को व्यक्त करने के लिए आशाधर ने अष्टाग हृदयोद्योत नामक टीका लिखी थी ३३। यह ग्रन्थ उपलब्ध नही है। (५) मूलाराधना टीका : आचार्य शिवकोटि की कृति 'भगवती-आराधना' नामक ग्रन्थ पर आशाधर ने सस्कृत मे मूलाआराधना दर्पण नामक टीका लिखी थी ३४ इस टीका के अतिरिक्त एक टिप्पणी और प्राकृत टीका तथा प्राकृत पचसग्रह ग्रेन्थ भी लिखे थे। (६) इष्टोपदेश टीका : पूज्यपादाचार्य द्वारा रचित इश्टोपदेश पर आशाधर ने सस्कृत मे टीका लिखी थी ३५ । आशाधर ने विभिन्न ग्रन्थो से श्लोको को उद्धृत ग्रन्थ के हार्द समझाने का प्रयास किया हैं। इसका पहलीवार प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से तत्वानुशासनादि सग्रह मे हुआ था। इसके बाद सन् १६५५ मे वीर सेवा मंदिर सोसाइटी दिल्ली से ग्रन्थाडक ११ के रूप मे हिन्दी टीका सहित हुआ। इसके सम्पादक जुगल किशोर मुख्तार है। (७) अमरकोष टीका ३६ : यह अनुपलब्ध है। (८) क्रिया कलाप इसकी हस्तलिखित पाण्डुलिपि पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई मे है। (६) आराधनासार टीका ३७ : यह उत्कृष्ट कृति भी अप्राप्त है। जयपुर मे इसकी हस्तलिखित प्रति मौजूद है। (१०) भूपाल चतुर्विशतिका टीका : यह अप्रकाशित है। (११) काव्यालंड.कार : रूद्रट के काव्यलकार पर आशाधर ने सस्कृत मे टीका लिखी की जो अनुपलब्ध है ३८ । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/२६ (१२) जिनसहस्त्रनामस्तवन सटीक ३६ : इस ग्रन्थ पर श्रुतसागर सूरि ने टीका रची है। इसी टीका सहित यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञान पीठ वाराणसी और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला सोलापुर से प्रकाशित है। (१३) नित्यमहोद्योत ४०: इसमे भगवान अर्हन्त के महाभिषेक से सम्बन्धित स्नान आदि का वर्णन हैं। इस पर श्रुतसागर सूरि की टीका भी है। इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली से जिनसहस्रनाभ सटीक और बनजीलाल जैन ग्रन्थमाला से अभिषेक पाठ संग्रह मे श्रुतसागरी टीका सहित हो चुका है ४१ । (१४) रत्नत्रयविधान ४२ : यह अभी तक अप्रकाशित है। इसकी हस्तलिखित पाण्डुलिपि बम्बई के सरस्वती भवन मे है। इसमे रत्नत्रय पूजा क माहात्म्य वणित है। (१५) जिनयज्ञकल्प ४३ : प्रशस्ति मे बतलाया गया है कि नलकच्छपर के नि खण्डेलवाल वश के भूषण अल्हण के पुत्र पापासाह के आग्रह से वि स १२८५ मे न शुक्ला पूर्णिमा को प्रमारवश के भूषण देवपाल राजा के राज्य मे नलकच्छपुर मे नेमिनाथ जिनालय मे यह ग्रन्थ रचा गया था । यह युग अनुरूप प्रतिष्ठाशास्त्र था। इसका प्रकाशन जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय से स १६७४ मे 'प्रतिष्ठासारोद्धार के नाम से हुआ था। इसमे हिन्दी टीका भी है। इसके अन्त मे प्रशस्ति है, जिसमे वि स. १२८५ तक रचित उपर्युक्त ग्रन्थो का नामाकन हुआ है। इसमे छ अध्याय है। (१६) जिनयज्ञकल्पदीपक सटीका ४४: इसकी एक प्रति जयपुर मे होने का उल्लेख प. नाथूराम प्रेमी ने किया हैं ४५ । (१७) त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र सटीक ४६ : इसके नाम से ही सिद्ध होता है कि इसमे त्रेसठ शलाका पुरूषो का वर्णन है। इसका प्रकाशन मराठी भाषा टीका सहिता सन् १६३७ मे माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला शोलापुर से ३७ वे पुष्प के रूप मे हो चुका है। आशाधर ने प्रशस्ति के भाष्य मे लिखा है। कि आर्षमहापुराणों के आधार पर शलाका पुरूषो का जीवन का वर्णन किया है उन्होने त्रिषष्टि स्मृतिशास्त्र पर स्वोपज्ञ टीका भी रची थी। वि. सं १२६२ मे नलकच्छपर मेराजा देवपाल के पुत्र जैतूगिदेव के अवन्ती में राज्य करते समय रचा था ४७ । (१८) सागार धर्मामृत टीका ४८ : इस भव्यकुमुदचन्द्रिका नामक सागारधर्मामृत की टीका की रचना वि. स १२६६ मे पू. वदी सप्तमी के दिन नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय मे हई थी४६। इस ग्रन्थ के निर्माणकाल के समय प्रमारवश को बढ़ाने वाले देवपाल राजा के पुत्र श्रीमत् जैतुगिदेव अवन्ति का मे राज्य करते थे ५०| प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि पोरवाड्वश के समृद्ध सेठ (श्रेष्ठि) के पुत्र महीचन्दसाहू के अनुरोध किए जाने पर श्रावक धर्म के लिए दीपकरूप इस ग्रंथ की रचना की थी उन्ही मही चद साह ने सर्वप्रथम इसकी प्रथम पुस्तक लिखी थी ५१। इसके अंत मे २४ श्लोको की प्रशस्ति भी उपलब्ध है। यह टीका विं.सं १६७२ मे माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से दूसरे पुष्प के रूप में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात् जैन साहित्य प्रसार कार्यालय गिरगॉव बम्बई से वीर नि स २४५४, सन १६२८ मे, प्रकाशित हई। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३० (स) अनागार धर्मामृत टीका में उल्लिखित ग्रन्थ वि. सं. १३०० में सम्पन्न इस अनागार टीका मे उपर्युक्त ग्रन्थों के अलावा वि. सं. १२६६ में रचित ग्रन्थों का उल्लेख हुआ जो निम्नांकित हैं। (१६) राजीमती विप्रलम्भ : यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं। आशाधर ने लिखा है कि यह एक खण्डकाव्य है, जिसमें नेमिनाथ और राजुल के वैराग्य का वर्णन हआ है। इसपर कवि ने स्वोपज्ञ टीका भी लिखी थी ५२। इसकी रचना वि.सं. १२६६-१३०० के बीच में कभी हई थी क्योंकि इसका उल्लेख इससे पूर्व में रचित प्रशस्ति मे नहीं हुआ हैं। (२०) अध्यात्म रहस्य : पं. आशाधर ने अपने पिता के आदेश से इस प्रशस्त और गम्भीर ग्रन्थ की रचना की थी। यह ग्रन्थ योग का अभ्यास प्रारम्भ करने वालों के लिए बहुत प्रिय था ५३। इसका दूसरा नाम योगोधीपन-शास्त्र भी मिलता हैं ५४। यह ग्रन्थ वीर सेवा मदिर दिल्ली से वि.सं. २०१४ सन् १६५७ मे जुगल किसोर मुख्तार युगवीर का हिन्दी अनुवाद और व्याख्या सहित प्रकाशित हो चुका हैं। सि.प.केलाशचन्द्र शास्त्री ने भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से सन् १६७७ मे प्रकाशित धर्मामृत (अनागार) की प्रस्तावना ५५ में अप्राप्त लिखा है इसी प्रकार बघेरवाल सन्देश ५६ की प्रस्तावना में डा. मानवल जैन ने भी इस ग्रन्थ को अप्राप्त लिखा है जो सत्य नही है। ___इस ग्रन्थ में ७२ पद्य है। इसका विषय अध्यात्म (योग) से सम्बन्धित हैं आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध का मार्मिक विवेचन है। (२१) अनागार धर्मामृत टीका : इस ग्रन्थ की रचना वि.स. १३०० मे नलकच्छ के नेमि जिनालय मे देवपाल राजा के पुत्र जैतुगिदेव अवन्ति (मालवा) के राजा के समय मे हुई थी ५७ । अनुष्टुपछन्द में रचित ग्रन्थ कार्तिक सुदि पंचमी, सोमवार को पूरा हुआ था। इस ग्रन्थ का परिमाण १२२०० श्लोक के बराबर हैं ५८। यतिधर्म को प्रकाशित करने वाली और मुनियों को प्रिय इस ग्रन्थ की रचना आशाधर ने की थी ५६ । इसकी प्रशस्ति मे कहा गया है कि खडिल्यन्वय के परोपकारी युगो से युक्त एवं पापों से रहित जिस पापा साहु के अनुरोध से जिनयज्ञकल्प की रचना हुई थी उसके बहुदेव और पमदसिह नामक तीन पुत्रों में से हरदेव ने प्रार्थना की मुग्धबुद्धियो को समझाने के लिए महीचन्द्र साह के अनुरोध से आपने धर्मामृत कुशाग्र बुद्धि वालों के लिए भी अत्यन्त दुर्बोध है। अतः इसकी भी टीका रचने की कृपा करे तब आशाधर ने इसकी रचना की थी ६१ उपर्युक्त ग्रन्थो के अलावा आशाधर ने अन्य किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की। यदि उन्होने अन्य ग्रन्थों की रचना की होती तो वि.स १३०० मे रचित अनागार में अवश्य उल्लेख होता। प. नाथूराम प्रेमी, प. कैलासचन्द शास्त्री, पं जुगलकिसोर मुख्तार प्रभृति विद्वानो ने भी आशाधर के उपर्युक्त ग्रन्थों के अलावा अन्य ग्रन्थो का उल्लेख किया है । किन्तु Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३१ डा. मानमल जैन सेठिया ने ६२ उपर्युक्त ग्रन्थों के अलावा निम्नांकित ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए उन्हे अप्रकाशित बतलाया हैं१. सिद्धपूजा : अभिनन्दन नाथ मन्दिर, बूंदी में इसकी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध हैं। २. कल्याण मन्दिर स्तोत्र टीका जयपुर मे हस्तलिखित है। ३. सरस्वती स्तुति : सभवनाथ मन्दिर जयपुर मे ४. पूजा विधान हस्तलिखित. उपलब्ध है। अप्रकाशित ५ जिनेन्द्र कल्याणभ्युदय सरस्वती भवन उज्जैन मे हस्तलिखित मौजूद है। ६. गधकुटी पूजा सरस्वती भवन उज्जैन मे हस्तलिखित मौजूद है। ७. विमान शुद्धि विधान भट्टारकीय भण्डार सोनागिरि मे हस्तलिखितहै। ८. कर्मदहन व्रत विधान . दि जैन मन्दिर बन्दहाडपुर ६ स्वपनावली : मूडवद्री मे हस्तलिखित है। १० सुप्रभात स्तोत्र मूडवद्री मे हस्तलिखित है। ११. चतुविशति जिन पूजा मूडवद्री मे हस्तलिखित है। १२. सिद्धिप्रिय स्तोत्र टीका दीवान जी का मन्दिर, कामा मे हस्तलिखित प्रति मौजूद। १३. रत्नत्रयव्रत कथा पटोदी मदिर जयपुर मे हस्तलिखित प्रति है। १४. जिन महाभिषेक बोरसली मन्दिर कोटा मे हस्तलिखित प्रति है। १५. महावीर पुराण जयपुर में हस्तलिखित प्रति है। १६. शान्ति पुराण लश्कर दि जैन मंदिर जयपुर मे हस्तलिखित प्रति है। १७. देवशास्त्र पूजा आमेर मे हस्तलिखित प्रति है। १८ सोलह कारण पूजा चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगॉव मे हस्तलिखित प्रति है। १६ सरस्वति अष्टक · चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगॉव मे हस्तलिखित प्रति है। २०. पादूका अष्टक: चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगॉव मे हस्तलिखित प्रति है। २१. दशलाक्षणिक जयमाल. चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगॉव मे हस्तलिखित प्रति है। २२ व्रतारोपण . चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगॉव मे हस्तलिखित प्रति है। २३. महर्षि स्तवन . चन्द्रनाथ मन्दिर देवलगॉव मे हस्तलिखित प्रति है। ___ इनमे पूर्वाकित भारतेश्वराभ्युदय काव्य (स्वोपज्ञटीका, क्रियाकलाप, भूपाल चतुर्विशतिका टीका, प्रमेयरत्नाकर और आराधनासार टीका को मिला दिया जाय तो प. आशाधर के २८ ग्रन्थ अप्रकाशित है। रचनाकाल- इस प्रकार स्पष्ट है कि प आशाधर ने धारा मे अध्ययन २५ वर्ष की अवस्था समाप्त करने के बाद नालक्षा मे जाकर साहित्य सृजन करना आरम्भ कर दिया होगा। अतः शातिकमार ठवली का यह कथन यथार्थ है कि आशाधर ने वि.सं १२५० से १३०० तक (अर्धशतक) साहित्य रचना की थी। विद्वानो का मत है कि उनका Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३२ मुख्य रचनाकाल वि स १२८५ का हि विक्रम की तेरहवी शती का उत्तरार्ध ही उनका रचना काल था। आशाधर के व्यक्तित्व और कर्तव्य के उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि आशाधर ने राजस्थान मेवाड के माडलगढ को अपनी जन्मभूमि मध्यप्रदेश की धारा नगरी को विद्या भूमि और नालछा को अपनी कर्मभूमि बनायी थी। उन्होने अध्यापन, शास्त्रसभा नित्यस्वाध्याय साहित्यसजन कर के केवल जैनधर्म और समाज को अपना योगदान दिया, बल्कि राष्ट्र का गौरव बढाया था। आशाधर मुनि या योगी नही थे लेकिन वे योगियो के मार्गदर्शक और उनके अध्याणक थे। आचार्य कुन्दकुन्द के समान आशाधर बहुश्रुत विद्वान थे। सस्कृत भाषा पर उनका पूरा अधिकार था, इसीलिए उन्होने सस्कृत भाषा मे ग्रन्थो की रचना की थी। प. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने कहा भी है-“सस्कृत भाषा का शब्द भण्डार भी उनके पास अपरिमित है और वे उसका प्रयोग करने मे कुशल है। इसी से इनकी रचना क्लिष्ट हो गयी है। यदि उन्होंने उस पर टीका न रची होती तो उसको समझना सस्कृत के पण्डित के लिए भी कठिन हो जाता। इनकी कृतियो की सबसे बडी बात दुरभिनिवेश का अभाव है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि पण्डित आशाधर वास्तव मे कलिकालिदास थे। उनहोने धार्मामृत जैसे महाकाव्यो का सृजन किया। इनकी ग्रन्थो की भाषा भी पौढ सस्कृत हैं ये कहना सच है कि यदि उन्होने अपनी ग्रन्थो की रचना न की होती तो उनको समझना कठिन हो जाता। विविध विषयो से सम्बधित १०८ ग्रन्थो की रचना कर उन्होने स्वयं अपने आप को कालिदास सिद्ध किया है। सन्दर्भ १ सिद्धान्ताचार्य पं कैलाशचन्द्र शास्त्री धर्मामृत (अनगार) भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली, सन् १६६६ प्रस्तावना, पृ. ३८ द्रस्टव्य-बघेरवाल सन्देश (अखिल भारत वर्षीय दि जैन बघेरवाल सघ, कोटा, राजस्थान) वर्ष २८ अंक ५ मई १६६३ पृ० १४ इत्युपश्लोकितो विद्वद्विल्हणेन कवीशिना। श्री विन्ध्यभूपति महासन्धि विग्रहिकेण य।। आशाधरत्व मयि विद्धि सिद्ध निसर्ग सौदर्यमजर्यमार्य । सरस्वती पुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपञ्च ।। प. आशाधर सागार धर्म (जैन साहित्य प्रसारक, कार्यालय, हीराबाग, गिरगॉव बम्बई वी नि स २४५४. सन् १६२८ ई०) भव्य कुमुद चन्द्रका टीका, प्रशस्ति श्लोक ६ एवं ६४ प्रज्ञा पुञ्जोसीति च पांमिहितो मदन कीर्तिमति पतिना। अनगार धर्मामृतम् (माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला १४ वॉ पुष्प स पं वंशीधर शास्त्री हीराबाग बम्बई वी नि सं २४४५, सन, १६१६) प्रशस्ति श्लोक४। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३३ ५ नय विश्व चक्षुराशाधरो विजयता कलिकालिदास ।। इत्युदससेनमुनिना कवि सुहृदा योभिनन्दित प्रीत्या। (क) सागार धर्मामृत प्रशस्ति, श्लोक ३ एवं ४ (ख) अनागार धर्मामृत , श्लोक ३ एव ४ डा मानमल जैन (सेठिया) मुख्य सम्पादक बघेरवाल सन्देश वर्ष २८ अक ५. मई १६६३. प्रस्तावना. पृ (क) अनागार धर्मामृत, अध्याय ८. श्लोक ६ श्री मानास्ति सपादलक्ष विषय शाकभरी भूषणस्तत्र श्री रतिधाम मण्डलकर नामास्ति दुर्ग महत् । जिनयज्ञ कल्प (जैनग्रन्थ उद्धारक कार्यालय, वि स १६६८. सन् १६१६) ६ श्री रत्यामुदमादि तत्र विमल व्याघेवालान्वयाक्षणता जिनेन्द्र समय श्रद्धालु आशाधर ।। सागार धर्मामृत भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका, प्रशस्ति, १ १० व्याघेरवाल वरवश सरोज हस काव्यामृतो घरसपान सुप्रमात्र । सल्लक्षणस्य तनयो ।। अनागार धर्मामृत, भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका, प्रशस्ति, ३ ११ सरस्वत्या मिवात्मानं सरस्वत्यामजीजनत्। य पुत्र छाहड गुण्य रञ्जितार्जुन भूपतिम् ।। सागार धर्म, भव्यकुमुद चन्द्रिका टीका, प्रशस्ति १२ बघेरवाल सन्देश, वर्ष २७ अक ५, मई १६६३ पृ १६ १३ वही, अभीक्षण ज्ञानोपयोगी प आशाधर जी, पृ ५६ । १४ म्लेच्छदेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत क्षति त्रासाद्विन्ध्यनरेन्द्रदो परिमल स्फूर्ज त्रिवर्गाजसि । प्रापा मालवमण्डले बहुपरिवार पुरीभावसन् यो धारामपठज्जिन प्रमिति वाकशास्त्रे महावीरात सा ध टी प्र ५ द्रष्टव्य जैन साहित्य एव इतिहास (हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर बम्बई १६५६) श्री मदर्जुन भूपाल राज्ये श्रावक सकुले। जिन धर्मोदयार्थ यो मलकच्छपुरे वसत् ।। अनागार धर्मामृत, भव्य चन्द्रिका टीका, प्रशस्ति, श्लोक यो द्रग्व्याकरणब्धि पारमनयच्छश्रूय माणान्नकान् सत्ती परमास्त्रमाप्य न यत प्रत्यर्थिन के ऽक्षिपन् । चारू के ऽस्खलित न येन जिन वाग्दीप पथि ग्रहिता पीत्वा काव्य सुधा यतश्च रसिकेष्वापु प्रतिष्ठान के।। सागार धर्म, प्रशस्ति ६१और भी देखे अनगार धर्मामृत टीका प्रशस्ति ६१ द्रष्टव्य प्रशस्ति श्लोक ६का भाध्य । १६ प नाथूराम नेन साहित्य एव इतिहास २० के भट्टारकदेव विनय चन्द्रादय जिनवाग अर्हतपरबनम मोक्षमार्गे स्वीकारिता प्रशस्ति ६ भाष्य १७ १८५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३४ २१ नलकच्छपुरे श्री मन्नेमि चैत्यालये ऽसिधत् । विक्रमाब्दशतेष्वेष त्रयोदशसु कार्तिके।। अनागार धर्मामृत टीका प्रशस्ति श्लोक ३१ २२ डा नेमिचन्द्र शास्त्री तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा अखिल भारतरवर्षीय दि जैन विद्वत्परिषद सागर १६६४ भाग ४, पृ ४३ २३ डा नेमिचन्द्र शास्त्री तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा अखिल भारतरवर्षीय दि जैन विद्वत्परिषद् सागर १६६४ भाग ४. पृ ४३ २४ प नाथूराम प्रज्ञापुज आशाधर बघेरवाल सदेश अक २८१५ पृ १६ २५ प नाथूराम प्रज्ञापुज आशाधर बघेरवाल सटेश अक २८१५ पृ १५ । २६ देखे तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग ४, पृ ४४ २७ वीराचार्य सुपूज्यपाद जिसेनाचार्य सभषितो य पूर्व गुणभद्रसूरि वसुनदीन्द्रादिनचूर्जित' तेम्य स्वाहृतसारमध्य रचित स्याज्जैन पूजाक्रम ।। बघेरवाल सदेश २५५ मई १६६३. १६ २८ प जगन्मोहन लाल जी शास्त्री श्री प आशाधर जी और उनका सागार धर्मामृत (व्याख्यान वाचस्पति देव की नन्दन जी सिद्धान्त शास्त्री ग्रन्थ, श्री महावीर ज्ञानोपासना समिति कारजा. पृ १८६) २६ बघेरवाल सदेश, २८/५ ज्योतिर्द आशाधर पृ ५३ ३० जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय स १६६४ मे हिन्दी टी के साथ प्रकाशित । ३१ (क) स्याद्वाद विद्या विशद प्रसाद प्रेमयरत्नाकरनाम धेय । तर्क प्रबन्धो निखद्यविद्यापीयूष पूरो वहतिस्म यरमात् ।। (ख) सिद्धयक भारतेश्वराम्यसत्काव्य निबन्धोज्जवल । यस्त्रविद्य कवीन्द्र मोहनमय स्वश्रेयसे ऽरीरचत् । (ग) योऽर्हद्वाक्यरस निबन्धरूचिर शास्त्र च धर्मामृत निर्माय न्यऽधान मुमु विदुषामानन्द सान्द्रे हृदि ।। ३२ (क) माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से भव्य कुमुद चन्दिका टीका सहित, वि स १६७६ सन् मे, प वशीधर शास्त्री द्वारा सपादित, प्रकाशित। (ख) ज्ञानदीपिका सस्कृत पम्जिका हिन्दी अनुवाद सहित मा ज्ञानपीठ नई दिल्ली से वि स २०३४ सन् १६७७ मे स एव अनुवादक सि प कैलाश चन्द्र शास्त्री, प्रकाशित। ३३ आयुर्वेदविदामिष्टज्ञ व्यक्त वाग्भट सहिताम्। अष्टाउ हृदयोदद्योत निबन्धमसृजच्च य ।। सागारधर्म प्रशस्ति, श्लोक १२ ३४ जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर सन् १६३४ मे प्रकाशित। ३५ योमूलाराधनेष्टोपदेशदिषु निबन्धनम् प्रशस्ति श्लोक १३ ३६ व्यघतामर कोशै च क्रिया कलापुमुज्जगौ।। प्रशस्ति श्लोक १३। ३१ आदि आराधनासार प्रशस्ति श्लोक १३। ३. भूपाल चतुर्विशतिस्तवनाद्यर्थ । उज्जगौ उत्कृष्ट कृतवान। प्रशस्ति श्लोक १३। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३५ ३६ रौद्रटस्य व्यघात् काव्यालडकारस्य निबन्धनम। प्रशस्ति श्लोक १४ । ४० सहस्रनामस्तवन सनिबन्ध च योर्हताम। प्रशस्ति श्लोक १४ ४१ योर्हन्महाभिषेका_विधि मोहतमोरविम । चक्रे नित्यमहोद द्योत स्नानशोस्त्र जिनेशिनाम ।। प्रशस्ति श्लोक १६ ४२ रत्नत्रय विधानस्य पूजामाहात्म्य वर्णनम्। रत्नत्रय विघानाख्य शास्त्र वितनुतेस्म य ।। वही श्लोक १७४२ ४३ प कैलशचन्द्र शास्त्री अनागार धर्मामृत प्रस्तावना. पृ ४५ ४४ सनिबन्ध यश्च जिनयज्ञ कल्पमरीरचत् । सागार धर्म, प्रशस्ति १५ ४५ जैन साहित्य एव इतिहास ४६ त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र यो निबन्धालकृत व्यधात्। सागार धर्म, प्रशस्ति श्लोक १५ ४७ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमि चैत्यालये ऽसिधत् । ग्रन्थोऽय द्विनवद्वयेक विक्रमार्कसमाप्ययत त्रिषष्ठिरमृति शास्त्र प्रशस्ति श्लोक १३ ४८ सोऽहमाशधरो रम्यामेता टीका व्यरीरचम् । धर्मामृतोक्त सागार धर्माष्टा ध्याय गोचराम्।। सागार धर्मामृत टीका प्रशस्ति श्लोक १८ नलकच्छपुरे श्री मन्नेमिचैत्यालये सिधत् । टीकेय भव्यकुमुद चन्द्रिकेत्युदिता बुधै ।। षण्णवद्वयेक सख्यान विक्रमाकसमात्यये। सपृम्यामसिते पौषे सिद्धेय नन्दताच्च चिरम् ।। वही श्लोक २०-२१ ५० प्रमारवशवार्थीन्दु देवपाल नृपात्मजे। श्री मज्जैसुगिदेवे ऽसिस्थेम्ना ऽवन्तीमवत्यलम् ।। वही श्लोक १६ ५१ श्रीमान श्रेष्ठ समुद्धरस्य तनय श्री पौरपाटान्वय व्योमेन्दु सुकृतेन नन्दतु मही चन्द्रो यदभ्यर्थनात् । चक्रे श्रावकधर्मदीपकमिम ग्रन्थ बुधाशाधरो ग्रन्थस्यास्य चलेखितो मलभिदे मेनादिम पुस्तक ।। वही श्लोक २२ ५२ राजीमती विप्रलम्भ नाम नेमीश्वरानुगम् । व्यधत खण्डकाव्य य स्वय कृतनिबन्धनम्।। अनागार धर्मामृत भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका प्र श्लोक १२ ५३ आदेशात्पितुरध्यात्म रहस्य नाम यो व्यधात् । शास्त्र प्रसन्नगम्भीर प्रियमारब्धयोगिनाम् ।। वही श्लोक १३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३६ ५४ इत्याशाधर विरचित-धर्मामृतनाम्नि सूक्ति-सग्रहे योगो द्दीपनयो नामाष्टादशोऽध्याय । अध्यात्मरहस्य, प्रस्तावन, पृ६ ५५ वर्ष २८, अक ५ मई १६६३. कोटा, राजस्थान। ५६ नलकच्छपुरे श्री मन्नेमि चैत्यालये ऽसिधत। विक्रमाब्दशतेष्वेषा त्रयोदशसु कार्तिके।। अनागार धर्मामृत टीका, श्लोक ३१ ।। ५७ प्रमारवशवा?न्दु देवपाल नृपात्मजे । श्री मज्जैतुगि देवरिसथाम्रा ऽवन्तीन ऽवत्यलम् ।। वही ३० ५८ अनुष्टुप छन्द सामारया प्रमाण द्विशताधिकै सहस्त्रैद्वादशमिते विज्ञेयमनु मानत वही ३२ सोहमाशाधरोऽकर्ष टीका मेता मुनि प्रियाम् । स्वोपज्ञ धर्मामृतोक्तयति धर्म प्रकाशिनीम् ।। वही २० खडिल्यान्वयकल्याण माणिभ्य विनयादिमान् । साधु पापाभिध श्रीमानासीत् पापपराड मुख ।। तत्पुत्रो बहुदेवाऽ भूदाद्य पितृभरक्षम । द्वितीय पम्दसिहश्च पदमालिगित विग्रह ।। वही २३-२४ ६१ बहुदेवात्मजाश्चासन् हर देव स्फुरदगुण । उदयी स्तम्भ देवश्च त्रयस्त्रैवर्गिकादादृता ।। मन्दबुद्धि प्रबोधार्थ महिचन्देण साधुना। धर्मामृतस्य सागार धर्म टीकास्ति कारिता ।। तस्यैव यतिधर्मस्य कुशाग्रीयधियामपि। सुदुर्बोधस्य टीकायै प्रसाद क्रियतामिति ।। हरिदेवेन विज्ञप्तो धणचन्द्रो परोधत । पडिताशाधरश्चक्रे टीका क्षोदक्षमामिमाम। वही, २५-२० ६२ मुख्य सपादक बघेरवाल सन्देश (अ मा दि जैन बघेरवाल संघ वर्ष २८ अक ५ मई १६६३) प्रस्तावना पृ ५३ ६३ -योतिर्विद आशाधर (बघेरवाल सदेश, २८/५, मई १६६३ पृ ५३ ६४ (क) प कैलाशचन्द शास्त्री अनागार धर्मामत. प्रस्तावना, प ४२ (ख) प नाथूराम प्रमी जेनसाहित्य एव इतिहास (ग) प जुगल किशोर मुरतार आत्म रहस्य, प्रस्तावना, पृ 32--३७ ६५ अनागार धर्मामृत प्रस्तावना पृ ५२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३७ "हवा को तरसता मानव" हवा, पानी, प्रकृति की ऐसी अनुपम देन है जिसके बिना कोई प्राणी जीवित नही रह सकता। ___ आज हमने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर दोनो को ही विकृत कर दिया। जिस देश मे गगा, जमुना नर्मदा जैसी पवित्र नदियाँ अमृत जल प्रदान करती थी उनको गदगी से भरे सरोवर व गदे नाले की स्थिति मे पहुँचा दिया। जो मद सुगन्धित बयार हमारे फेफडो को जीवन देती थी उसी हवा को प्राण-घातक गैसो से दुर्गन्धित कर दिया । जहाँ वन-उपवनो मे वृक्ष लहलहाते थे, पुष्प प्रफुल्लित होकर हर्षाते थे, पक्षी चहचहाते थे, वहाँ सूखे जगल बनादिए और अभी भी हमारी भोगो की तृष्णा शात नही आज से ४८ साल पहले जब पराधीनता से जकडी भारत मॉ अग्रेजी शासन से मुक्त हुई, लोकमान्य तिलक, सरदार पटेल, महात्मा गाँधी जैसी महान् आत्माओ ने देश-हितार्थ स्वदेशी का नारा दिया, विदेशी का बहिष्कार किया। जीवनदायिनी गौ माता की रक्षा, शाति सुख के प्रतीक राम-राज्य की कल्पना दी। समस्त भारत मे चेतना आई, विदेशी सत्ता को भारत से भागना पडा । १५ अगस्त की वह शुभ घडी जब श्री सुभाष चन्द्र बोस का स्वप्न साकार हुआ, श्री जवाहर लाल नेहरू ने भारत की राजधानी देहली के लालकिले से स्वतन्त्रता का जयघोष किया, यूनियन जैक नीचे उतरा, जन-मन की आशाओ का प्रतीक तिरगा आकाश मे लहराया । सोचा था भारत सोने की चिडिया पुन प्रफुल्लित होगा, प्राणीमात्र को प्यार मिलेगा, भोजन मिलेगा, घर मिलेगा, खेत हरे-भरे, खलिहान अनाज से पूर्ण होगे, नदियो मेप्रासुक जल होगा, वृक्षो से सुशोभित गुरूकुलो मे विद्यार्थी विद्याध्ययन कर भावी भारत के कर्णधार होगे। विश्व में भारत अद्वितीय देश है जिसमे प्रकृति ने रामस्त प्रकार के अन्न स्वास्थ्यवर्धक फल-फूल मेवे स्वादिष्ट मिर्चमसाले, औषधियॉ, खनिज धातुऐ, सोना चॉदी, रत्न हीरे-जवाहरात सब प्राप्त है। ना कुछ बाहर से मॅगवाने की आवश्यकता ना बाहर भेजने की चिन्ता । महात्मा गाँधी जी ने विदेशी वस्त्रो की होली जलवा दी कहने लगे “ना हागा बॉस ना बजेगी बॉसुरी" विदेशी वस्त्रो की उपस्थिति मे उनसे माह बना रहेगा, स्वदेशी नही अपनाऐगे जन-जन से चर्खा चलवा दिया, छोटे-बडे की भावना से दूर खददर से शरीर सजवा दिया। नहीं पता था हमारे ग्रन इस प्रकार चकना चूर हो जाएंगे। ४५ वर्ष मे तीन पीही समाप्त हो गई दर्द बढ़ता गया ज्यो-ज्यो नवा की। उस समय का वालक वृद्ध हो गया नौजवान मृत्यु की गोद में सो गया, भारतीयता की बजाय घर--घर में विदेशी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३८ वस्तुऐ पहुंच गई वह भी निरर्थक स्वास्थ्य घातक भोग विलास से भरपूर अभिमान प्रदाता भाईचारे से दूर । हमारी भोजन सामग्री, फल-फूल , सब्जी, मिर्चमसाले व औषधियाँ सब निर्यात हो रहे है बदले मे भोगो की सामग्री आ रही है, हम मॅहगाई की मार से मर रहे है, सूखे उपवनो मे सगीत के फव्वारे लगाने की तैयारी है। अरब-खरब की सपदा, उदय अस्त लौ राज धरम बिना सब विफल है, ज्यो पत्थर भरो जहाज"। भारतवासी भूखे-नगे हो गए बदले मे भोगविलास की सामग्री, विद्यार्थीयो को बरबाद करने वाले टेलिविजन, व चारित्र घातक चित्रपट प्राप्त हुए। नशाबदी के स्थान पर शराब के ठेके सरकारी आय के साधन बन गए । गाँधी जी ने कहा था शराब की आय से मेरे देश के विद्यार्थी पढे तो मै उन्हे अनपढ रखना पसन्द करूँगा शराबी नहीं बनाऊँगा विदेशी मुद्रा की ललक इतनी बढी की चमडे व मॉस का व्यापार भी निर्यात् हेतु प्रारम्भ हो गया। अलकबीर देबनार जैसे यात्रिक कत्लखाने खोले गए जहाँ पशुओ को भूखा-प्यासा, तडफा-तडफा कर मारा जाता है हमारी पूज्य गौ-मा का वश हाहाकार, चीत्कार करता हे और हम, हमारे राष्ट्रनायक विदेशी मुद्रा की ललक मे वातानुकूलित कमरो मे आराम करते है। “मत सता गरीब को वाकी मोटी हाय मुए चाम की धौकनी लोह भसम हो जाए। कही ऐसा ना हो कि हमे भी इसी प्रकार तडप-तडप कर प्राण देने पड जाऐ। जब प्रभ के सामने उपस्थित होगे क्या उत्तर होगा हमारे पास अपने ककृत्यो का। प्रकृति का नियम है कि मेहनत करो भोजन पाओ, बिना मेहनत खाओगे तो मधुमेह, हार्टफेल जेसी व्याधियो के शिकार होकर पृथ्वी से सिधारोगे। आज हर भारतीय परेशान है न भोजन न आवास न प्रेम न भाईचारा । सब अच्छी वस्तुऐ विदेश जा रही है । बरबादी के कारण, भोग-विलास की वस्तुएं यहाँ आ रही है। परिणाम सामने है न स्वास्थ्यवर्धक भोजन न प्राकृतिक प्राणदाता जल, न जीवनरक्षक शुद्ध वायु प्राप्त है। सब तरफ चीत्कार, हाहाकार, आतकवाद भुखमरी एक दूसरे से ईर्ष्या, ऊँच-नीच की दीवारे आपस की फूट व कलह । __ प्रभु हमे सन्मति दे हम भारत का गौरव प्रकृति की अनुपम देन को पहचाने बिना भेदभाव के, बिना जाति-पांति के झगडो से समस्त बन्धु भारत मॉ की गोद मे प्रकृति की अनुपम देन का लाभ ले। विद्यार्थीयो को सुसस्कृत विद्यादान मिले, भूखो को आहार प्राप्त हो, रोगियो की औषधियो से सेवा हो, हम अपने खर्चों को सीमित कर भगवान महावीर के परिग्रह-परिमाण व्रत का आचरण करे। मधुमक्खियो की तरह सग्रह की प्रवृति अपनाकर विपदाऐ मोल न ले। -प्रेमचन्द जैन भगवान महावीर अहिंसा केन्द्र अहिसा स्थल महरौली नई दिल्ली Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/३६ जरा-सोचिए पुनर्जागरण : हमने पहिले लिखा था-हमारा अतरग कह रहा है कि स्वर्गो मे बैठे हमारे दिवंगत दिगम्बराचार्य उनकी व्याकरणातीत जनभाषा मे किए गए परिवर्तनो को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे है ओर उन्हे सन्तोष है कि कोई उनकी ध्वनि-प्रतिकृतियो के सही रूप को बडी निष्ठा और लगन से निहार, उनकी सुरक्षा मे प्राण-पण से सलग्न है। भला, यह भी कहाँ तक उचित है कि शब्द-रूपो की बदल मे दिगम्बर-आगम-वचन तो गणE र ओर आचार्यों द्वारा परम्परित वाणी कहलाए जाते रहे और बदलाव-रहित दिगम्बरेतर आगमो के तद्रूप-वचन बाद के उदभूत कहलाएँ? हमे भाषा की दृष्टि से इस बिन्दु को भी आगे लाकर विचारना होगा। भविष्य मे ऐसा न हो कि कभी दिगम्बर समाज को इस बदलाव का खमियाजा किसी बडी हानि के रूप मे भगतना पड जाय? ऐसा खमियाजा क्या हो सकता है, यह श्रद्धालुओ का विचारना है-वैज्ञानिक पद्धति के हामी कुछ प्राकृतज्ञ तो सही बात कहकर भी किन्ही मजबरियो मे विवश जेंसे दिखते है। ओर वे आर्ष--भाषा से उत्पन्न उस व्याकरण के आधार पर विद्वान बने है, जो बहुत बाद का है। ओर शौरसेनी आदि जैसे नामकरण आदि भी बहुत बाद (व्याकरण निर्माण के समय) की उपज है। क्योकि जन-भाषा तो सदा ही सर्वागीण रही है। जो प्राकृत मे डिगरीधारी नही है। और प्राकृत भाषा के आगमो का चिरकाल से मन्थन करते रहे है-उन्हे भी इसे सोचना चाहिए-हमे अपनी कोई जिद नही। जैसा समझे लिख दिया-विचार देने का हमे अधिकार है। और आगम रक्षा धर्म भी। हमारी समझ से बदलाव के लिए जो व्यय अभी होगा, वह अत्यल्प होगा-उसका पूरा मूल्य तो भाषा-दृष्टि से आगम के अप्रमाणिक सिद्ध होने पर ही चुकता हो सकेगा। और अब पाठको ने देखा-कुंदकुंद साहित्य की वर्तमान भाषा को अत्यन्त भ्रष्ट और अशुद्ध घोषित करने वाले अपनी उक्त गलत घोषणा को राही सिद्ध करने के लिए कैसी उठापटक मे लगे है-वे समाज का प्रभूत द्रव्य व्यय करा आधुनिक विद्वानो को इकट्ठा कर उनसे पक्ष मे हाँ कराने के प्रयत्न मे लगे है और इस अर्थयुग मे, जिन्हे प्राकृत का बोध भी नही ऐसे कतिपय कथित विद्वान भी बहती गगा मे हाथ धोने मे लगे है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त/४० जो भी हो, हम अपनी बात पर दृढ है-हमारे आगमो की परम्परित मूल भाषा जैन शौरसेनी है और भाषा की अनेक रूपता के कारण, सभी प्राकृत-आगमो के सभी मूलशब्द सभी जगह प्रामाणिक है और भाषा मे एक रूपता नहीं है। यदि मूलभाषा बदली जाती है तो आगमो की प्रमाणिकता सदेह मे आने से दिगम्बरत्व की प्राचीनता भी सदेह के घेरे मे आने से अछती नही बचेगी। क्योकि आगम की प्रामाणिकता से ही दिगम्बरत्व की प्रामाणिकता एव प्राचीनता सिद्ध है-जब मूल आगम ही अशुद्ध और बदलता रहा हो, तब दिगम्बरत्व और उसकी प्राचीनता ही कहॉ? स्मरण रहे-धर्म-पथ आगमाश्रित होता है। आगम बदला नही जाता । उदाहरणार्थ वेद हमारे समक्ष है-जिनमे किसी ने बदल का प्रयत्न नही किया और पाणिनीय को तदनुसार स्वर वैदिकी प्रक्रिया की अलग से रचना करनी पडी। हमे संदेह है कि शिखर जी के झगडे की भांति इसी प्रसंग में आगम की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता का एक नया बखेड़ा और ना उठ खडा हो। शौरसेनी मात्र को प्रश्रय देने से और भी बहुत से कटु-प्रसग उठ सकते है ? -सम्पादक श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ पर्वत) दिगम्बर जैन समाज की आस्था का पवित्रतम तीर्थ है । इस तीर्थ की रक्षा हेतु प्रत्येक दिगम्बर जैन का सक्रिय सहयोग आवश्यक हैं। तीर्थ के विकास हेतु दिल खोल कर दान देना हमारा परम कर्तव्य हैं। दिगम्बर जैन समाज की एकता और समर्पण भावना से ही हम अपने आन्दोलन में सफल होगे। -सुभाष जैन मंत्री श्री सम्मेद शिखरजी आन्दोलन समिति जैन बालाश्रम, दरिया गज नई दिल्ली-११०००२ Page #42 --------------------------------------------------------------------------  Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Ragistrar of Newspaper at R. No. 10591/62 'अनेकान्त' आजीवन सदस्यता शुल्क . १०१०० रू० वार्षिक मूल्य ६ रू०, इस अक का मूल्य १ रूपया ५० पैसे यह अक स्वाध्याय शालाओ एव मदिरो की माग पर नि.शुल्क विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते है। यह आवश्यक नही कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारो से सहमत हो। पत्र मे विज्ञापन एव समाचार प्राय. नही लिए जाते। सपादन परामर्शदाता श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सपादक श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक . श्री भारतभूषण जैन एडवोकेट, वीर सेवा मंदिर, नई दिल्ली-२ मुद्रक मास्टर प्रिटर्स नवीन शाहदरा. दिल्ली-३२ Page #44 --------------------------------------------------------------------------  Page #45 --------------------------------------------------------------------------  Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका प्रेमासिक by अनेकान्त बर्ष ४७:कि०२ (पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') अप्रैल-जून १९९४ इस अंक मेंकम विषय १. सम्बोधन २. बेबाक खुलासा -सुभाष जैन, सयोजक-श्रमण सस्कृति रक्षा समिति २ ३. उत्यू(च्छणक के ऋषभ जिनालय के निर्माता श्री भूषण साहु-श्री कुन्दनलाल जैन रि. प्रिन्सिपल ६ ४. आधुनिक सन्दर्भ मे आचरण को शुद्धता -आचार्य राज कुमार जैन, ५. जिज्ञासा (माधान -जवाहर लाल जैन भीण्डर ६. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि -श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली ७. जैन सस्कृति-साहित्य की रक्षा :एक चिंतन -डा. राजेन्द्र कुमार बंसल ८. सेसई का शान्तिनाथ मन्दिर -श्री नरेश कुमार पाठक ६. सत्य को पहचानिए १०. जरा सोचिए-सपादक ११. छपते-छपते आ.२ १२. श्रीलंका में जैन म और अशोक प्रकाशक: बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छपते-छपते पं० बलभद्र जी को सम्पादन शैलो : प्राचार्यश्री के उद्गार अप्रैल-जून १४ का 'प्राकृत-विद्या' अङ्क अभी मिला । पू. आ. श्री विद्यानन्द जी महाराज का चिन्तन पढ़ा। उन्होंने पं० बलभद्र जो को संपादन-विधि के विषय में स्पष्ट किया कि 'उन्होंने (संपादक जो ने) अनेक ताड़पतोय, हस्तलिखित और मद्रित प्रतियों का तुलनात्मक अध्ययन करके अपने संपादन के कुछ सूत्र निर्धारित किए और उन सूत्रों के अनुसार प्रचलित परम्परा को लीक से कुछ हटकर छानोपयोगी संपादन किया।' स्मरण रहे कि वीर सेवा मन्दिर प्रचलित परम्परा को लोक से न हटने की बात कर पाठान्तर देने की बात करता रहा है और मूल आगमों में गृहीत सभी शब्दरूपों को प्रामाणिक मानता रहा है । (देखें अनेकान्त विशषांक माच ६४)। जब कि बलभद्र जी ने अपने संपादन में परंपरित लोक से हटकर बहुत से शब्दरूपों को प्रागम-भाषा से बाह्य घोषित कर उन्हें बदलकर एकरूपता दे दो और ताडपत्रीय प्रति को आदर्श प्रति होने की बात करते रहे। वीर सेवा मन्दिर कोण के समर्थन की दिशा में उक्त तथ्य उजागर करने के लिए आचार्य श्री को प्रामाणिकता श्रद्धास्पद एवं हृदयांकित रहेगी। प्राकृत (आर्ष) में व्याकरण के प्रयुक्त होने की सिद्धि में मनि पो द्वारा 'वागरण' शब्द एवं प्रस्तुत अन्य प्रमाण चिन्तनीय हैं। इनके विषय में (यदि आवश्यक हुआ तो) Ke किसो अन्य अङ्क में निवेदन किया जायगा । मुनिश्री को सावर नमोऽस्तु । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALLL DATE MM / / P SENTER Ine IITEMIR परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्पन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष ४७ किरण २ वोर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत २५२०, वि. स. २०५१ अप्रल-जन १९९४ सम्बोधन कहा परदेसी को पतियारो। मन माने तब चलं पंथ कों, सांझि गिनै न सकारो। सबै कुटुम्ब छोड़ि इही, पुनि त्यागि चले तन प्यारो ॥१॥ दूर दिसावर चलत आपही, कोउ न राखन हारो। कोऊ प्रोति करौ किन कोटिक, अन्त होयगो न्यारो ॥२॥ घन सौं रुचि धरम सों भलत, झलत मोह मझारो। इहि विधि काल अनंत गमायो. पायोति भव पारो॥ सांचे सुख सौं विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया', आप ही आप संमारो॥४॥ कहा परदेसी को पतियारो॥ गरब नहिं को रे ए नर निपट गंवार ।। झंठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीज रे । के छिन साँझ सुहागरु जोबन, के दिन जग में जीजे रे ॥ बेगहि चेत बिलम्ब तजो नर, बंध बढ़े थिति कोज रे। 'भूधर' पल-पल हो है मारो, ज्यों-ज्यों कमरी भोजे र ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पाश्र्वनाथाय नमः सम्मेद शिखर जी (पारसनाथ पर्वत) के सम्बन्ध में बेबाक खुलासा अहमदशाह से सनद प्राप्त करने की आवश्यकता क्यों भ्रम निवारण : पड़ी? वास्तविकता यह है कि उक्त सनद जाली थी जिसे सासदों, विधायकों एवं गणमान्य नागरिको को प्रिवी काउपिल' जैसे न्यायालय ने भी मान्य करार सम्बोधित दिनांक ५ मई, ६४ के अपने पत्र में श्वेताम्बर दिया है । (वाद क्र. २८८/४ वर्ष १९१२ ए. आई. आर. मूर्तिपूजक समुदाय के श्री राजकुमार जैन ने बिहार के १९३३ प्रिबो काउसिल-१९३)। शिदोर जिले में स्थित श्री सम्मेद शिखर जी (पारसनाय टोंक और चरण अति प्राचीन : पर्वत) से सम्बन्धित तथ्यों को गलत तरीके से तोड-मरोड़ श्री सम्मेद शिखर पर बीस टोंके तीर्थंकरो की व कर प्रस्तुत करते हुए अत्यन्त उलझन पूर्ण स्थिति पैदा कर एक टोक गौतम गणधर को अत्यन्त प्राचीर है (टोंक दी है और इस प्रकार देश तथा समाज को गुमराह करने अर्थात छोटा मंदिर)। टोको में चरण चिह्न दिगम्बर का प्रयत्न किया है। इसलिए पाठकों को वस्तुस्थिति से आम्नाय के अनुसार प्रतिष्ठित है । इन टोंको को इसी मगत कराना आवश्यक हो गया है, ताकि किसी भी रूप मे मनी जैनियों द्वारा पूजा जाता रहा है, इसलिए प्रकार के भ्रम की गुंजाइश न रहे। पूजा का अधिकार सगन रूप से सभी जनो का है (ए. तीर्थ सभी जैनों का : आई. आर. १६२६ विपी काउ सिल-१३)। ___ श्री राजकुमार जैन ने अपने पत्र के प्रारम्भ मे चढ़ावे पर एकाधिकार को व्यापारिक दृष्टि : स्वीकार किया है कि बिहार राज्य के गिरीडीह जि । मे स्थिति यह है कि १७६० मे ईस्ट इण्डिया कपनी स्थित श्री सम्मेद शिखर जिसे 'पारसनाथ पर्वत' के नाम ने भूतथा मे यह पर्वत पालगं। की जमीदारी में से भी जाना जाता है और जहां वौबीस मे से बी तीर्थों मामिल iammar ने निर्वाण प्राप्त किया है, जैनियों का पवित्रतम् तीर्य है। को पर्वत के मदिर का चढ़ावा भी मिनता था (ए. आई. उनके इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह तीर्थ आर. १६२६ प्रिवी काउमिल-१३) । सन् १८७२ में जैनो के सभी समुदायो का समान रूप से वन्दनीय तीर्थ है मूर्तिपूजक श्वेताम्बर सनाज के ट्रस्ट ने राजा से ५०० चाहे वह दिगम्बर हो या स्थानकवासी अथवा तेरहपंथी रुपया वाषिक देकर पर्वत के चढ़ावे का अधिकार प्राप्त या मूर्तिपूजक श्वेताम्बर । ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कर लिया। यह कदम उनके ट्रस्ट के व्यवसायिक दृष्टिकि इसका प्रबन्ध केवल मूर्तिपूजक श्वेताम्बरों के हाथ मे कोण को उजागर करता है। १५०० रुपये के एवज लाखों ही क्यो हो? का चढ़ावा प्राप्त करना व्यवसायिक नही तो और जाली सनद : क्या है। श्री राजकुमार जैन का पदि यह कथन सत्य है कि इस सोढियों के निर्माण में बाधा: तीर्थ पर सदियो से प्रवेताम्बर मूर्तिपूजक समाज का स्वा- दिगम्बर जैन समाज ने सन् १८९८ में यात्रियों की मित्व, अधिकार व प्रबन्ध रहा है, तब उन्हें सम्राट अकबर व सुविधा के लिए पहाड़ के रास्ते मे ७०५ सीढ़ियों का Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेबाक खलासा निमरिण राजा पालगंज की सहमति से किया था, जिसमें संस्कृति की धरोहर श्री सम्मेद शिखर जी पर्वत की २०५ सीढ़ियां श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों द्वारा तोड़ दी गयीं; व्यवस्था मनमाने ढंग से केवल एकाधिकार में संचालित शेष ५०० सीढ़ियां वहां आज भी मौजूद हैं। इस पर हो, इससे अधिक अलोकतांत्रिक कदम और क्या हो विषम्बरों ने मुकदमा चलाया। (वाद नं. १ सन् १९०० सकता है ? व्यवस्था के नाम पर ट्रस्ट का कार्य शन्य है। ई०) विद्वान सब जज हजारीबाग ने अपना निर्णय पहाड की अवस्था को भक्तभोगी यात्री ही जानते है। 8-६-१९०१ को इस प्रकार दिया -.. आखिर पर्वत की आय को जनहित में व्यय करने की "यह पहाड़ राजा पाल गंज के स्वामित्व का है ओर बजाय किसी एक तिजोरी में समेट कर रख लेना वहां इस पर जैनों के दोनों सम्प्रदायो का समान रूप से पूजने तक उचित है? का हक है तथा पहाड़ की सभी टोके दोनों सम्प्रदायों बिहार सरकार पर प्रनाव: द्वारा पूजी जाती हैं । दोनो सम्प्रदायो को मार्ग के उपयोग श्री राजकुमार जैन द्वारा साह अशोक जैन व उनके और उसकी मरम्मत समान अधिकार है। दिगम्बरों सहयोगियों पर पर आरोप लगाना नितांत दविना पूर्ण, द्वारा निर्मित मीढ़ियों को तोड़ने का कार्य आपकृत्य था। बेहदा और बचाना है कि उन्होंने अपने प्रभाव से विहार श्वेताम्बरो को आज्ञा दी जाती है कि वे भविष्य में इस के मुख्यमत्री श्री लालप्रमाद यादव से यह अध्यादेश जारी तरह का कृत्य किर न करें।" करापा है। कोई भी सरकार आनन फानन में अथवा उक्त फैमा केहि मतिजक श्वेताम्बरा जो किसी व्यक्ति विशेष के प्रभाव में आकर अध्यादेश जारी अपील की वह खारिज हो गयी। नहीं करती । वास्तविकता यह है कि श्री लालुप्रसाद जी पर्वत की खरीद : एक सामन्तवादी कदम : ने स्वय शिखर जी जाकर तीर्थ की कुब्यवस्था का निरीक्षण किया और द्रवित होकर निरीक्षण के समय ८-१-१९१८ का मूर्तिपूजक श्वेताबर समाज न ट्रस्ट क नाम से भारी रकप अदा करके जमीदारी हक पालगज अपने उद्गार प्रकट किए। उन्होंने दिगम्बगे और श्वेताम्बरो दोनो की अलग-अलग बैठकें की और स्पष्ट के राजा से क्रय कर लया । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज किया कि या तो जैन समाज मिलकर पर्वत की व्यवस्था का यह कदम सामन्तवादी था। यदि वे सदियों से तीर्य करे, अन्यथा सरकार पर्वत के प्रबन्ध की दुर्दशा सहन के स्वामी थे और सम्राट अकवर श्रादि से प्राप्त सनद नही करेगी। श्वेताम्बरो ने मुख्यमत्री के सुझाव की उपेक्षा इनके पास थी, तब पालगंज के राजा को भारी रकम की । फलस्वरूप सरकार ने अध्यादे जारी किया। देकर इसे खरीदने की आवश्यकता क्यों पड़ी? सरकार का लोकतांत्रिक कदम : जमींदारी उन्मूलन : बिहार सरकार का अध्यादेश पूर्ण रूप से लोकजमीदारी उन्मूलन अधिनियम के अन्तर्गत १९५३ में मात्रिक है। अध्यादेश के अनुसार जैन समाज के सभी यह पहाड़ बिहार सरकार की मिल्कियत मे आ गया। घटको को श्री सम्मेद शिखर पर्वत की व्यवस्था मे समान श्वेताम्बर मर्तिपूजक समान ने उसे चनौती देते हुए भागीदारी प्रदान ही नही की गयी है। बल्कि सरकार मामला सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किया (वाद नं० १० वर्ष द्वारा अपने मालिकाना हक भी जैन समाज को दिये गये १९६७ एव वाद २३ वर्ष १९६८)। उच्चतम न्यायालय हैं। यदि अध्यादेश में श्वेताम्बर समाजको समान हकम ने उनका यह दावा रद्द कर दिया । दिया गया होता, तब वह इसे अलोकतांत्रिक कह सकते दृस्ट कितना लोकतांत्रिक : थे। श्री राजकुमार जैन का यह कथन कि कल्याण जी दुष्प्रचार का आधार: आनन्दजी (मनिपूजक प्रवेताम्बर) ट्रस्ट लोकतांत्रिक है, श्वेताम्बर मतिजक सेठ कल्याणजी आनन्दजी ट्रस्ट' सर्वधा म्रामक है। समस्त जैन समाज के प्राण और श्रमण इस भ्रामक दुष्प्रचार में लगा है कि बिहार सरकार ने Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ब ४७, कि०२ अनेकान्त इस अध्यादेश से जैनियो मे पहाड छीन लिया है और कर वन्दना के लिए नंगे पांव जाते हैं और पहाड़ पर भविष्य में बिहार सरकार पहाड़ की मालिक होगी, सभी मंदिरो के दर्शनो के पश्चात् ही वापस आकर जल. जबकि वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। सरकार ने अध्या- पान ग्रहण करते हैं। २७ किलोमीटर की यह पात्रा देश के अनुसार पहाड की व्यवस्था और मालिकाना हक दोपहर तीन-चार बजे तक समाप्त होती है। इसके समस्त जैन समाज को सोर दिया है। ममत जैन ममाज विपरीत श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जूते पहनकर खाते-पीते हुए इस अध्यादेश के प्रति बिहार मरकार का ऋणी रहेगा। जल-मन्दि तक जाकर वापस मा जाते हैं। वे कमी भी इस अध्यादेश से पर्वत के विकास का मार्ग प्रशस्त हो सभी मन्दिरों, टोंकों की बम्बना नहीं करते। तीर्थयात्रियो गया है। मे केवल १० प्रतिशत मूर्तिपूजक श्वेताम्बरी तथा सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त होगा : ९० प्रतिशत अन्य जन यात्री होते हैं। अधिक संख्या बिहार मरकार का यह लोकतान्त्रिक अध्यादेश दिगम्बरों की ही होती है। 'मतिपूजक श्वेताम्बर ट्रग्ट-समाज' को मामन्तवादी सामन्तवादियों द्वारा शोषण : व्यवस्था पर अवश्य ही कुठाराघात है। आज समूचे देश में यह अकल्पनीय है कि रात के समय अंधेरे में लालटेन लोकतांत्रिक प्रणाली है, इसलिए सामन्तवादी व्यवस्था के सहारे कंकरीले मार्ग पर यात्रियों को किन-किन असुविधाओं का सामना करना पडता है? पहाड पर उसका प्रजातांत्रिक हक देना ही होगा। मई १६६४ बिजली नहीं है। वर्षा मे कही सिर छिपाने का स्थान को शिखरजी मुक्ति अभियान में जो रंनी दिल्ली में सीनियर नही है। तिस पर असामाजिक तत्वो द्वारा लटपाट भी आयोजित हुई थी, उस मनिपूजा श्वेताम्बगे के अति- की जाती है। ऐसी कोई भी दुर्घटना हो जाए तो उसकी रिक्त देश का समस्त जैन समाज मम्मिलि हुआ । लाखों सूचना तलहटी तक पहबाने का कोई साधन नहीं है। महिलाओं, बच्चो, युवको और वृद्धो ने तेज धूप की पहाट पर पीने के जल की कोई व्यवस्था नहीं है । मलपरवाह न करते हए, गाह अशोक जैन के नेतृत्व में अहिंसा मव त्यागने का कोई प्रसाधन-कक्ष नही है । यह सब इन सिदात के अनुरूप मौन जलूस निकाल कर बिहार तथाकथित प्रबन्धकर्ता सामन्तवादियो की व्यवस्था के सरकार के अध्यादेश द्वारा उठाये गये लोकतांत्रिक कदम प्रति अमानवीय उपेक्षा नही तो और क्या है ? का समर्थन किया। इतिहास साक्षी है कि पाण्डवो को साघओं का अनपात: सूई बराबर हक न देने के कारण महाभारत हुआ था। तथ्यों से ध्यान हटाने के लिए उपरोक्त पत्र में साधुओं मतिपजक श्वेताम्बर रामाज अयवा ट्रस्ट के अधिकारी की गिनती में ६५५६ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक और ४७५ इस प्रसंग से अवश्य ही सीख लेंगे, हम ऐमी आशा दिगम्बर साधु दर्शाये हैं। पत्र में तथ्यों को जानबूझकर करते है। छिपाया गया है । दिगम्बर आम्नाय में साधुओं की कई जंन संख्या का अनुपात : श्रेणियां हैं, जैसे नग्न मुनि, ऐल्लक, छुल्लक, ब्रह्मचारी पा के प्रेषक श्री राजकुमार जा ने माधुओ को आदि । ये बेणियां उनके परिग्रह परिमाण (वस्त्र आदि संख्या यात्रियो की संख्या - मिलाकर सहु श्री अशोक की सीमा) के अनुरू। हैं । मुनि नग्न रूप हैं, ऐल्लक एक जैन द्वारा उठाये गये थगन गुढे 'श्री सम्मेद शिखर जी लगोटी रखते है और क्षुल्लक एक लंगोटी व चादर और की यात्रा करने वाले तीथ यात्रियो में ८५ प्रतिशत दिगंबर ब्रह्म वारी वृछ और अधिक सामग्री ख सकते हैं। जैन होते हैं" को गौण करने का असफल प्रयास किया है। श्वेताम्बर मा-पूजक साधु (जिनके प्रति हमारे मन में वास्तविकता यह है कि श्री सम्मेद शिखर जी जैन समाज पूर्ण आदर है) दिगम्बर आम्नाय के ब्रह्मचारी की तरह का पज्य तीर्य है और इसी श्रद्धावण जैन तीर्थयात्री रात ही बरत्र धारण करते है। इस प्रकार के त्यागियों की एक बजे स्नान आदि से निवृत्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण सध्या दिगम्बरों में कई हजारों में है जो श्वेताम्बर मति Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेबाक बुलासा पूजक साधुओ से नि.संदेह कई गुनी है। हां, सभी प्रकार हारने के बाद भी बड़ी चालाकी से अन्य जनो को अंधेरे के परिग्रह त्यागी नग्न दिगम्बर मुनि ४७५ हैं। कठिन मे रखकर १९६५-६६ मे सरकार से अनुबंध कर लिया तपस्या का तो गिने-चुने लोग ही पालन कर सकते हैं। कि यह ट्रस्ट सरकार से ६० प्रतिशत पहाड़ की आय वैसे यहां यह बताना आवश्यक है कि जिस बिहार प्रदेश लेगा। इससे ट्रस्ट को करोड़ों रुपये की आय हुई। किन्तु मे यह तीर्थ है, वहां श्वेताम्बर मूर्तिपूजको को सख्या पहाड़ के विकास के नाम पर एक पैसा भी खर्च नही वहां के समूचे जैन समाज की संख्या के मुकाबले एक किया गया। प्रत. यह पावनिक धन पर्वत के । प्रतिशत भी नहीं है। अतः यह आश्चर्य की बात है कि पर न लगकर व्यक्तिगत तिजोरियों में जाता रहा है। बिहार से बाहर अहमदाबाद के कुछ सेठ-सामन्तों ने इस मैन समाज जागचका है: क्षेत्र पर कब्जा कर रखा है। उपरोक्त तथ्यो से यह स्पष्ट है कि समस्त जन समाज विकास के नाम पर : ___ की इस परम पावन धरोहर श्री सम्मेदशिखर जी पर इनका यह आरोप भी निराधार है कि कल्याणजी पवेताम्बर मतिपूजकों का कब्जा अलोकतात्रिक है। अब मानन्दजी ट्रस्ट को साहू अशोक जैन 'स्टे आर्डर' लेकर समस्त जैन समाज जाग चुका है, जिसका प्रमाण दिल्ली विकास कार्य से रोकते रहे हैं । वस्तुस्थिति इसके विपरीत रली है। अतः सामन्तवादियो के मनसूबो को अब और है। सारा चढ़ावा यह ट्रस्ट लेता है जबकि इस ट्रस्ट ने सहन नहीं किया जा सकेगा। बिहार सरकार का अध्याआज तक कोई विकास कार्य पहाड़ पर नही किया इसके देश लोकतात्रिक, वैधानिक और न्याय पर आधारित है। विपरीत सम्नेदाचल विकास समिति द्वारा किये जा रहे इस अध्यादेश के लागू होने पर समस्त जैन समाज को विकास कार्य को जबरन रोका और अदालत से स्टे इस पवित्र तीर्थ क विकास, सचालन एव व्यवस्था में आर्डर लिए हैं। पर्वत पर बिजली नही लगने दी। पेयजल योजना का तीव्र विरोध कर उसे रुकवा दिया। समान रूप से मागीदारी के अलावा मालिकाना हक भी प्राप्त होगे। इससे अल्पसंख्यक जैन समाज में एकता प्राचीन चरण बदलने का दुष्कृत्य : बढ़ेगी और यात्रियो को सुविधाए मिलेगी। पहाड़ पर बीस मदिरो (टोंकों) मे पुरातन श्रमण परम्परा के अनुरूप तीथंकरों के चरणचिन्ह दिगम्बर गांधी जी का स्वप्न साकार होगा : आम्नाय के अनुसार स्थापित हैं, जिन्हें जैन समाज सदियो सम्मेदशिखर पर्वत के विकास के साथ-साथ इस से पूजता रहा है। इस ट्रस्ट ने विकास के नाम पर चार आदिवासी बहुल अंचल का भी विकास होगा। वहीं रह टोको पर जब पुगने चरण उखाड कर नये स्थापित कर रहे पिछड़ी जाति के नागरिको को विशेषकर भील जाति दिये और आगे भी विकास के नाम पर अन्य टोकों के के लोगों को रोजगार के अधिक अवसर चिकित्साचरण बदलने जा रहे थे, तब दिगम्बर समाज ने मुकदमा मकमा सुविधाएं तथा शिक्षा के साधन प्राप्त होगे । यह सर्वविदित सुविध करके इस कुकृत्य को रोका था। प्रिवी काउंसिल' ने है कि सदियों से इस अचल के नागरिको का शोषण होता सब जज रांची के आदेश को बरकरार रखा, जिसमें जज रहा है और कल्याण कार्यों की दृष्टि से आज भी इसकी महोदय ने बदले गये चरणों के स्थान पर पुनः पुराने उपेक्षा हो रही है। यदि यहां वास्तविक कल्याण कार्य चरण स्थापित करने के आदेश दिए थे। परे कार्यकाल में किये जा सके तो आजाद भारत म निर्ब नो के उद्धार का विकास कार्य के नाम पर यही उलटफेर श्वेताम्बर मनि. महात्मा गाधी का स्वप्न समुच साकार हो सकेगा। पूजको के ट्रस्ट ने अजाम दिया है। हमारी अपोल : आय कहां जाती है? हमे पूर्ण आशा और विश्वास है कि श्री सम्मेदशिखर जमीदारी उन्मूलन नियम के अनुसार १८५३ मे जी पर्वत की मुक्ति के लिए भारत सरकार, सम्बन्धित बिहार सरकार इस पहाड़ की स्वामी हो गयी। चूकि मत्रीगण, सांसद, विधायक, अधिकारी, गणमान्य नागरिक इस ट्रस्ट का अनधिकृत कम्जा था, अतः ट्रस्ट ने मुकदमा (शेष पृ०६ पर) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थू(च्छ)णक के ऋषभ जिनालय के निर्माता ___"श्री भूषण साहु" ले० कुन्दनलाल जैन रिटायर्ड प्रिन्सिपल उत्पणक नगर संवत् ११६६ के आपास राजस्थान पत्तन के नाम से विख्यात था। आजकल इसकी सोमा का एक विख्यात व्यापारिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र था, जो मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले की सीमाओं से मिली जुली तलपाटक जनपद के नाम से विख्यात था। उत्थूणक है। बागढ़ देशीय परमारो की प्रसिद्ध राजधानी केन्द्र था। पनापगढ भाज भी हम्बड़ जैनो ग प्रमुख केन्द्र है, परमार शासको को कई शाखाए भारतीय इतिहास में पूर्वका न मे यह सम्पूर्ण क्षेत्र तलपाटक पत्तन के नाम से विख्यात हैं जैसे मालवा के परमार, लाट न परमार, विम्यान जैन धर्मावलम्बियो का प्रमुख धार्मिक एव आब के परमार, बागह के परमार, चन्द्रावती के परमार, सास्कृतिक केन्द्र रहा होगा। अर्धगणा ग्राम से दो विस्तृत किराड़ के परमार, अर्बुद के परमार आदि भाद। जैन शिलालेख प्राप्त हुए है जिनमे ये पहला म० ११५९ उत्थूण शब्द काल परिवर्तन के कारण उत्थण हुआ, का ने दी बिल्कुल ही जीर्ण शीर्ण दणा मे है, इममे केवल फिर अत्थरण बना आगे अत्यण में अन्यं णक हुआ और अब उत्थण के शासक विजयराज प मार के पिता श्री अर्थणा के नाम से प्रसिद्ध है। आजकन यह राजस्थान चामुण्डमाज के बारे में थोटी-पो सामग्री प्राप्त होती है, के बासवाडा शहर से पश्चिम की ओर लगभग ४०.४५ पर दूर शिलालेख जो सवत् १९६६ का हे बिल्कुल कि मी० दूर एक छोटा-सा नाम है, पास ही हूगरपुर शहर माफ और स्पष्ट है । इस शिलालेख से यहां के राजधेष्ठी भो है । बांसवाड़ा के पूर्वोत्तर मे प्रतापगढ़ नगर भो है। श्री भूषण साहु द्वारा निर्मित ऋपम जिनालय का तया अनुमान है प्राचीन काल में यह सम्पूर्ण क्षेत्र तलपाटक श्री भूषण माहु के पारिवारिक जनों का भी विस्तृत परि चय मिलता है साथ ही माथ रान्वयी आचार्य छत्रसेन का (पृ० ५ का शेषांश) भी उल्लेख मिलता है जो शोध की दष्टि से अत्यधिक तथा भारत की जनता हमें न्याय दिलायेगी। सभी न्याय महत्वपूर्ण है क्योकि अब तक माथुरा-नय से सबंधित शील बुद्धिजीवी मूर्तिपूजक श्वेताम्बर समाज अथवा उनके किसो छत्रमेन पावार्य का कही भी उल्नख नहीं मिलता ट्रस्ट द्वारा किये जा रहे दुष्प्रचार मे न आकर वास्तविकता को समझेंगे और बिहार सरकार के लो तात्रिक अध्यादेश को पारित करायेंगे । हमारी श्वेताम्बर मूति यह संवत् ११६६ का शिलालेख संस्कृत भाषा में उत्कीणित हे, इसके श्लोको की संख्या कुल तीस है । इन पूजक समाज व उनके ट्रस्ट से भी यह अपेक्षा है कि वह भगवान महावीर के सिद्धांत अहिंसा, अपरिग्रह व 'जीओ श्लोको की भाषा उच्च कोटि की अलकारिक है तथा और जीने दो' के अनुरूप, सामन्तवादी दृष्टिकोण के मुपु! सस्कृतमय है। यह शिलालेख अर्थणा के जैन मदिर क वसावशेषो से प्राप्त हुआ है और अब यह अजमेर के बजाय समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाकर, जैन समाज की म्यूजियम में सुरक्षित है। इस शिलालेख को विज्ञानिक एकता मे योगदान देकर अपने शिाल हृदय का परिचय सूमाक नामक शिल्पी न उकेरा था। इस शिलालेख के पहले तथा चोथे से बीसवें छदो तक की रचना कट नामक सुभाष जैन, संयोजक विद्वान ने की थी बाकी छदो की रचना माइल्ल वशी श्रमण संस्कृति रक्षा समिति साबड़ ब्राह्मण के पुत्र श्री भादुक विप्र ने की थी। इस Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी भूषण साह शिला लेख की रजिस्ट्री बालम वंशी राजपाल कायस्थ के सुन्दर जिनालय था जिसकी वजाओं के विस्तार ने सूर्य पत्र सन्धिविग्रहिक मंत्री वासव ने की थी। आजकल के भगवान की किरणो के प्रसार को भी रोक लिया था ॥४॥ रजिस्ट्रेशन की भांति प्राचीन काल मे भी ऐसे लेखोकी इस तलपाट क नगर मे नागर वंश के मधंन्य, समस्त प्रामाणिकता के लिए शासकीय अधिकारियो द्वारा लिपि __शास्त्र ज्ञान के मगर तथा जिनकी अस्थि मज्जा जिनागम बद्ध कराया जाता था। इससे ज्ञात होता है कि श्री वासव की अभिलाषा रूपी रमामत से परिपूर्ण थी ऐसे अम्बर तत्कालीन प्रतिष्ठित पुरुष थे और कायस्थ होते हुए भी नाम + श्रेष्ठतम वैद्यराज थे, जिन्होंने सद्गृहस्थ होते हुए जैनधर्म के प्रति विशिष्ट अनुरागी थे। बैशाख शुक्ला भी इन्द्रियो पर पूर्ण नियन्त्रण कर रखा था, पापो मे रहित तृतीया सोमवार संवत् ११६६ को राजभेष्ठी श्री भषण पूर्ण सयमी तथा गहम्थ के बारह व्रतो (देश व्रत, अणुव्रत, साह द्वारा निर्मित इस विशाल जिनालय मे भगवान शिक्षा व्रतादि) से अलकत थे। जो पट आवश्यक कर्मों का ऋषभदेव के जिनविम्ब की प्रतिष्ठा कराई थी। इस समय निष्ठा पूर्वक पालन ; ते थे, उन्होंने एकान वन प्रान्त मे उत्थ(च्छू )गक पुर मे परमार वंशी महाराज विजयराज अन्तवासि (प्रिव्य) की भानि अननिबद्ध होफर चक्रेश्वरी का राज्य था जो चामुण्डराज के पुत्र तथा माण्डलीक के देवी की उपासना को तवा गंगी की भाति अनन्य भाव प्रपौत्र थे । अब हम पुरे शिलालेख का हिन्दी रूपान्तण से देवी की सेवा की। अत: उनको इम असाधारण भक्ति प्रत्येक श्लो क्रमसे प्रस्तुत कर रहे हैं : और श्रेष्ठ गुणो के कारण चक्रेश्वरी देवी को उन पर कृपा सर्व प्रथम 'ॐ नमो वीतरागाय' अति वीतराः हुई और उन्होंने देवी की सिद्धि प्राप्त की ॥५-६।। प्रभु को नमस्कार के बाद प्रथम श्लोक मे जिनेन्द्र प्रभ की। वदना की गई है। वे जिन प्रभ जयवंत हों जो भग जन इन नम्बर वैद्य गज के पाक नाम का पुत्र उत्पन्न रूपी कमल राशि के लिए मर्य तुल्य है, जिन्होंने लागेको हुन जो भर पुरुषो को अनेक मानन्द का दाता या, जो ज्ञान का प्रकाश देकर उन्हे पूर्ण विक मित कर दिया है, मल बुद्धि का धारक था, सम्पूर्ण शास्त्र ज्ञान का पारजिनके समक्ष परवादी रूपी अधकार क्षणभर को भी नही दशा था, मम्पूर्ण आयुर्वेद का ज्ञाता था तथा दयालता टिक पाता है, तथा चचल कूवादी रूपी जगन क्षणभर में पूर्वक समी रोगो से प्राक्रान्त लोगो का निदान जान उन्हे विलीन हो जाते है ऐसे जिनेन्द्र भगवान जयवत हो ॥१॥ नीरोग करता था ऐसे पापाक वैद्य के आलोक, साहस हा उच्छ (त्थ )णक पुर में परमार वशी राजा श्री भद. और लल्लुक नाम के तीन पुत्र उत्पन्न हए जो सम्पूर्ण लीक नाम से विख्यात थे जिन्होने कन्ह और मिन्धराज शाहक पारगत एव पारखी थे ॥७-८॥ जैसे सेनापतियों का विनाश किया था, इनके पुत्र चामड- इनमे से ज्येष्ठ पुत्र आलोक महज रूप से विशुद्ध एव गय ने या आनी कोतिपताका लहराई थी तथा विशद बुद्धि मे सुशोभित था, जिमने अपनी आन्तरिक विपद बति में पति था जिसे या स्थली देश (गजस्थान) मे अवन्ति (उज्जयनी) प्रभु के दष्टि से मपण इतिहास और नवजात के मा को सभी साधनो को नष्ट कर विनाश किया था इनक पुः स्फूरित किया था, तथा संवेगादि गुणो से अपने सम्यक विजयराज जयवत हो, जिन्होंने अपना या समारम प्रभाव को व्यक्त करने वाला था, तया अपने धन का प्रसारित किया था, वे सौभाग्यशाली थे, उन्होंने शत्रु सम्पात्रो को दानादि प्रवृत्तियो में उपयोग किया करता था, समूह को जीत लिया था, वे गुणरूपी रलो को सागर को तथा अपनी कुल परम्परा के अनुमार ममस्त साधुवर्ग की भाति धारण किया करते थे तथा बे शूरवीर और बल- मेवा मे तल्लीन रहता था, तथा समस्त जनता को आल्हाद शाली थे॥२-३॥ करने वाले उत्तम शील स्वताव को धारण करने वाला इस स्थली (राजस्थान) देश में तलपाटक नाम का था तया यतियो, धैर्यवानो, विद्वानों आदि के भार को एक श्रेष्ठ नगर था, जिसकी ललनाओ ने देवांगनाओ के आनन्द पूर्वक धारण करते हुए वह आलोक माह योगी सौन्दर्य से भी अधिक सुन्दरता पाई थी। यहां एक विशाल और भोगी के स्वरूप को एक साथ ही धारण करने वाला Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८, ४७, दि.१ अनेकान्त था अर्थात घर गृहस्थी का भोग करते हुए भी योगी की लाओं के नयन कमलों के लिए सुन्दर चन्द्रमा की भांति तरह जीवन यापन करता था।!-१०॥ आनन्ददायक था। विचक्षण जनों का प्रिय, सुन्दर सरस यह आलोक साह छत्रसेन नामकः श्रेष्ठ गुरु स्वरूप व्यक्तित्व वाला उदार चित्त, बुद्धिमान, सुभगता और मुनि (आचार्य) की अनन्य मन से सेवा में तत्पर रहता सोम्यता की मूर्ति था। प्रासाद गुण से युक्त था, महान था ये छत्रसेन आचार्य माथुरान्वय रूपी विशाल आकाश विपदा रूपी गड्ढों के समूह को सरलता से पाटने वाला, के प्रखर सूर्य तुल्य थे। वे अपनी बक्तृत्वकला से समस्त स्थिर बुद्धि से अपने कुल परम्परा रूपी रथ को उन्नति के सभाजनों का मन ज्ञान से अनुरंजित कर देते थे। इन चरम शिखर पहुंचाने वाला, ऐसे अनेकों सद्गुणों का आलोक साह की श्रेष्ठ धर्मपत्नी का नाम हेना था जो भण्डार श्री भूषण साहुपा ||१५-१६॥ समस्त निर्मल गुणों से युक्त अति शीलवती थी, जिससे इन भूषण श्रेष्ठी की लक्ष्मी और सीली नामक की इनके तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो नय नीति के ज्ञाता विवेक- दो पत्नियां थीं, जो पतिव्रत धर्म और चरित्र गुणसे सयुक्त बन्त और पृथ्वी पर रत्न रूप से विभूषित थे ॥११-१२॥ थी। उन गुरु और देव भक्त भूषण श्रेष्ठी से सीली के आलोक, साधारण और शांति नाम के तीन पुत्र उत्पन्न इनमे से ज्येष्ठ पुत्र का नाम पाहक था जो निर्मम हुए जो अपने बन्धु-बान्धवोके चित्त रूपी कमलो को विकज्ञान वाला था, गुरुजनों की भक्ति मे सदैव तत्पर रहता सित करने के लिए सूर्य तुल्य थे और सवंगण सम्पन्न थे पा, सुतीक्ष्ण बुद्धि से युक्त था जिसके जिनागम सबंधी एवं योग्य थे॥२०.२१॥ ज्ञान के प्रश्नों से गणधर जैसे विशेषज्ञ भी विमुग्ध हो एक दिन भूषण श्रेष्ठी ने सोचा कि यह नश्वर आयु जाते थे फिर किसी और की बात ही क्या कहना ? श्री तो तप्त पर्वत पर गिरे पड़े थोड़े से जल विन्दु की भांति श्री पाहुक श्रेष्ठी करणानुयोग और चरणानुयोग रूपी नश्वर है और लक्ष्मी हायो के कानो की भांति चंचल शास्त्रों में अत्यधिक प्रवीण था, इन्द्रिय जनित विषय भोगों और अस्थिर है तथा अपने शास्त्र ज्ञान से उसने निश्चय से विमुख रहता था, आहार, औषधि, अभय, शास्त्रादि किया कि स्व पर कल्याण के लिए तथा स्थायी यश के दान तीर्थ का प्रवर्तक था, समता भाव से अपने चित्त को लिए कोई मङ्गल कार्य करना चाहिअतः भूषण श्रेष्ठी नियषित रखता था, मन वैराग्य भाव से ओत प्रोत रहता ने यहां एक जिनालय का निर्माण कराया। श्री भूषण श्रेष्ठी था, सांसारिक पापो से विमुक्त हो धर्म की उपासना करते का छोटा भाई श्री लल्लाक वहां बहुत अधिक विख्यात हए व्रतों का आचरण किया करता था ॥१३.१४॥ था, वह नित्य प्रति जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता था पाहक मे छोटा भूषण साहु या जो ससार मे भली तथा अपने बड़े भाई भूषण की आज्ञाओं का सविनय भांति विख्यात था तथा कुल परम्परा से साप्त लक्ष्मी का पालन करता था॥२२-२३॥ पाया. सरस्वती का भण्डार और निर्मल ज्ञान का श्री भषण श्रेष्ठी के ज्येष्ठ भ्राता जिनका १३३ श्लोक रसिक था, तथा क्षमा रूपी लता से युक्त अत्यधिक मे पा लिखा लिपिra कृपालु था। यह भूषण श्रेष्ठी सुन्दरता मे कामदेव तुल्य से उत्कीर्ण किया है । सम्भवतः "प" व 'बा" के पढ़ने में सौभाग्यशाली, बलिष्ठ तथा नेतृत्व गुण से सम्पन्न, धन मे भी शिलालेख के पाठकों को भ्रम हो गया हो अस्तु । इस कुबेर तुल्य अत्यधिक विवेकपूर्ण बुद्धि वाला, उन्नति मे लोक के बाहक और १३ श्लोक के पाहक दोनों एक ही सुमेह तूल्य तथा मानसिक गम्भीरता मे अगाध जलनिधि व्यक्ति हैं । अतः हम पिछला बाहुक नाम ही प्रयोग करेंगे। तुल्य तथा चातुर्य में विद्याधर की भाति ऊंचा था। जिन इस तरह भूषण श्रेष्ठी के अग्रज पाहु श्रेष्ठी की धर्मपत्नी शासनरूपी सरोवर मे राजहस की भांति कल्लोल करने का नाम सोडी था और उससे अनेक शुभ लक्षणो से सयुक्त वाला, मुनी जनों के चरण कमलो में प्रमर तुल्य सम्पूर्ण अम्बर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था ।२४ विक्रम संवत शास्त्र समूह रूपी सागर में मकर की भाति, तथा महि. २१७७ मे स्थली (राजस्थान) वेश में महाराज विजयराज Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी भूषन साहु के शासन काल मे बैशाख शुक्ला तृतीया सोमवार अक्षय (मास्त्र आगम) के रूप मे लोग सुनते रहेगे तब तक श्री ततीया के दिन श्री भपण श्रेष्ठी ने वृषभनाथ के जिना- भूषण श्रेष्ठी को यह यशोगाथा पृथ्वी तल पर चिरकाल लय में भगवान ऋषभदेव के जिनविम्ब की प्रतिष्ठा तक गाई जाती रहेगी ।.३०॥ कराई थी। यह ऋषभ नाथ का जिनालय स्थली देश के विज्ञानिक सूमाक ने इस प्रशस्ति को शिलापट्ट पर उत्थ (च्छणक नगर में था ॥२५-२६।। उत्कीर्ण किया। मगल हो, महा श्री: इस शिलालेख के प्रयम तथा चौथे से अठारहवें श्लोक नक के कुल सोलह श्लोक श्री कट क नामक विद्वान ने रचे नोट:-प्राय: आशीर्वचनो मे लिखा जाता रहा है कि थे। शेष १४ छद भाइल वशीधी सावड ब्राह्मण के पुत्र "यावद्गङ्गा च गोदा च" "यावरचन्द्र दिवाकरौ" श्री भादुक ने रचे थे ॥२७-२८॥ आदि आदि पर इस प्रशस्ति के आशीर्वचनात्मक उस समय यहां बालम वशी राजपाल कायस्थ के पुत्र पद मे जो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं वे अपने आप में श्री वासव उस राज्य सधि विग्रहक अधिकारी थे। उन्होंने अनूठे हैं तथा कहीं पढ़े सुने भी नहीं गये। इस उस शिलालेख को अधिकारिक रूप से लिखा था अर्थात् सम्पूर्ण प्रशस्ति मे स्थली (राजस्थान) तथा विष्णरजिस्टर्ड किया था ॥२६॥ पदी (गङ्गा) शब्द ऐसे अप्रचलित संस्कृत शब्द है आशीर्वचन-जब तक पृथ्वी पर राम रावण का जिनका प्रयोग सामान्यत: अन्यत्र कम उपलब्ध होता है। चरित्र लोग बखान करते रहेगे, जब तक गङ्गा (विष्णुपदी) मे जल बहता रहेगा, आकाश में चन्द्रमा विद्यमान रहेगा श्रुत कुटीर, ६८, विश्वास नगर तथा श्रमणों द्वारा उपदिष्ट अरहन्त के वाक्यो को श्रुत शाहदरा दिल्ली-३२ भावेण होइ णग्गो बाहिर लिगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीण णियरं णास भावेण ॥ जग्गत्तणं अकजं भावणरहियं जिणेहि पण्णतं । इय गाऊण य णिच्च माविजहि अप्पयं धौर ॥ -भाव पाहुड ५४-५५ __ भाव से नग्न होता है, केवल बाहिरी नग्न वेष से क्या लाभ है ? भाव सहित द्रव्यलिंग होने पर कर्मप्रकृति के समूह का नाश होता है, मात्र द्रव्य के होने पर नहीं । भाव रहित नग्नपना कार्यकारी नहीं है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। ऐसा जानकर हे धीर, सदा आत्मा का चिन्तन कर । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक संदर्भ में आचरण की शुद्धता - आचार्य राजकुमार जैन समाज और देश के विकास, प्रगति और समृद्धि के पूर्ति का साधन बनाया जा रहा है । जो धर्म अन्त.करण लिए इकाई के रूप मे जनसामान्य को भागीदारी सर्वाधिक और भावना से जुड़ा रहना चाहिए उसे आज वहां में महत्वपूर्व है । उसकी मनोवृत्ति, प्राचरण और नैतिकता निकाल कर बाह्याडम्बर के आवरण मे लपेट कर प्रस्तुत समाज के निर्माण को जो दिशा प्रदान करती है उसी में किया जा रहा है। धर्म के नाम पर आजकल जो कुछ उमका स्वरूप और ढांचा स्थिर होता है। आज देश मे भी किया जा रहा है वह धर्माकरण नही, धर्माचरण के समाज की जो स्थिति है उसे उत्साहजनक नही माना जा विरुद्ध है।। सकता । गत कुछ वर्षों की तुलना मे समाज के स्वरूप मे समाज मे एक ऐना वर्ग भी आजकल पनप रश है जा जो बदलाव आया है उसे भले ही आधुनिकतावादी धर्म की माड लेकर समाज में नफरत और वैमनस्य के समस्कृत और प्रगतिशील मानें किन्तु देश के लिए किसी बीज पैदा कर रहा है। लोगो मे धार्मिक भावनाए भडका भी रूप में उसकी प्रासंगिकता तब तक रेखाकित नहीं की कर अपनी स्वार्थ पूर्ति करना ही उनका मुख्य उद्देश्य है। जा सकती जब तक देश के सर्वागीण विकास में उसका माग समान ऐसे मुटी भर लोग समाज के सम्पूर्ण वातावरण को न पूर्ण योगदान न हो। केवन जगात कर रहे है, वरन उसमे अराजकता की ___ आज समाज का जो स्वरूप हमारे सम्मुख है वह स्थिति पैदा कर रहे है । सम्भवन. यही कारण है कि पूर्णतः स्वस्थ नहीं कहा जा सकता । आधुनिकता का सहिष्ण मसाज धीरे-धीरे जमहिष्णु होना जा रहा है। आचरण जिस प्रकार उसे घेरता जा रहा उससे उसम एक ही मान अब धर्म के आधार पर विभाजित हो रहा फैशनपरस्ती, कृत्रिमता (बनावटीपन), दिखावा और है और उनमे सौमनस्य एवं भावनात्मक एकता के स्थान आरम्बर की प्रवृत्ति को विशेष रूप से प्रोत्साहन मिला पर साम्प्रदायिकता की भावना पनप ही है। उदारताहै। परिणामत. उसकी परमारात्री सस्कृति और सभ्यता वादी दृष्टिकोण वीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है। मेर्याप्त बदलाव आया है। लोगो मे दूसरो की परवाह अनैतिक और अलगाववादी तत्वो के द्वारा जब भडकाने न कर आग बढ़ने की प्रतिमन्द्वता तेजी से पनप रही है। वाली स्थिति उत्पन्न की जाती है तो लोगो में विरोध अपरे यहा विलासिता के आधुनिकतम साधन अधिक-से- और ईष्या की आग को फैलाने के लि! वातावरण तैयार अधिक एकत्र करने मे लोग किसी से पीछे नहीं रहना किया जाता है और उनकी धार्मिक भावनाओ को उकसा चाहते । उसके लिए चाहे उन्हें कोई भी उल्टे सोधे तरीके कर उनसे खिलवाड़ किया जाता है। अन्तत: समाज के क्यो न अपनाने पड़ें। यही बजह है कि आज लोग निरोह और बेकसूर लोगों को उसदा शिकार होना पड़ता भावनात्मक रूप से समाज से उस प्रकार नही जुड़े है जिस है। धर्म के नाम पर की जाने वाली आडम्बरपूर्ण प्रकार जुड़े रहना चाहिए था या पहले जुड़े रहते थे। प्रवृत्तियो की परिणति अन्ततः विद्वेष, ईष्या और हिंसा मे इसका एक परिणाम यह हुआ कि लोगों मे धार्मिक भावना होती है जिसका परिणाम निरपराध लोगों को भगतना का शन. शन. लोप होता जा रहा है। धर्म भी आजकल पड़ता है।। भावना और मन से जुड़ा हुआ नही लगता है, उसे भी प्रगनिशील कहे जाने वाले वर्तमान वैज्ञानिक एवं भाडम्बर और दिखाया का माध्यम बनाकर अपनो स्वार्थ भोतिकवादी युग में प्राज मनुष्य की प्रवृत्तियां अन्तर्मखी न Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक सन्दर्भ में माचरण को शुद्धता होकर बहुर्मुखी अधिक हैं । इसी प्रकार मनुष्य की समस्त विहार । आचरण से अभिप्राय यहाँ दोनों प्रकार के प्रवृत्तियों का आकर्षण केन्द्र वर्तमान में जितना अधिक आचरण से है-शारीरिक और मानसिक । शारीरिक भौतिकवाद है उतना आध्यात्मवाद नही। यही कारण है आचरण शरीर को और मानसिक आचरण मन को तो कि आज का मनुष्य भौतिक नश्वर सुखों में ही यथार्थ प्रभावित करता ही है साथ में शारीरिक आचरण मन सुख की अनुभूति करता है, जिसमे अन्तिम परिणाम को और मानसिक आचरण शरीर को भी प्रभावित विनाश के अतिरिक्त कुछ नही है। वर्तमान मे किया ना करता है। इन दोनो आचरण से मनुष्य की आत्मशक्ति रहा सतत चिन्तन, अनुभूति का घरातल, अनुशीलन की भी निश्चित रूप से प्रभावित होनी है। क्योकि आचरण परमरा और तीव्रगामी विचार प्रवाह सब मिलकर की शुद्धता आत्मशक्ति को बढ़ाने वाली और आचरण को भौतिकवाद के विशाल समुद्र में इस प्रकार विलीन हो अशुद्धता आत्मा का ह्रास करने वाली होती है। गए हैं कि जिसके अन्तर्जगत की समस्त प्रवृत्तियां अवरुद्ध इसका स्पष्ट प्रभाव मुनिजन, योगी, उत्तम साधु ओर हो गई हैं। इसका एफ यह परिणाम अवश्य हुआ है कि सन्यासियो में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे वर्तमान मनुष्य समाज को अनेक वैज्ञानिक उप-ब्धिया गृहस्थ श्रावको में भी प्रात्म शक्ति की वृद्धि का प्रभाव प्राप्त हुई है, जिससे सम्पूर्ण विश्व मे एक अभूतपूर्व दृष्टिगत हआ है जिन्होने अपने जीवन में आचरण की भौनिकतावादी वैज्ञानिक क्राति का प्रभार लक्षित हारहा र लक्षित हो रहा शुद्धता को विशेष महत्व दिया । है । यह कानि आज वैज्ञानिक प्राति के नाम । कही जाती है और इसमें होने वाली प्रधान यद्यपि भार वर्ष आरम्भ मे ही धर्मप्रधान और धामिक उपलब्धिया कहलाती है। आधुनिक विज्ञान प्रत्येक वृत्ति वाला यश रहा है आर देशवासियाका प्रत्यक गातावाध क्षेत्र मे ये वैज्ञानिक उपलब्धिया हुई है, और हो रही है। एवं आचरण धार्मिकता और प्राध्यात्मिकता से अनुप्राणित इस वैज्ञानिक कानि ने जहां धर्म और समाज को सावित रहा है, तथापि आज जनसाधारण धर्म और सम्प्रदाय में किया है, वहा मनुष्य जीवा का कोई भी अश उसके प्रभाव सट भेद नहीं कर पा रहा है । इतना ही नहीं, अपितु से अछूता नही रहा है। यही कारण है क मनाय के जनमाधारण सम्प्रदाय को ही धर्म मान कर तद्धत आचार, विचार एष आहार विहार में माज अपेताकृत आचरण कर रहा है। यद्यपि देश का प्रबुद्ध वर्ग एव अधिक परिवर्तन दिखलाई पड़ रहा है। आज मनुष्य । विद्वान जन धर्म और सम्प्रदाय मे स्पष्ट भेद करने और पुरातन परम्पराओं का पालन करते हए स्वय रूढिवादी उसे समझने में समर्थ है, किन्तु दुराग्रही विचारणा के कहलाना पसन्द नहीं करता है, क्योंकि हमारी प्राचीन कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा है। वास्तव में धर्म परम्पराए आज रविवादिता का पर्याय बन चको है। इस ओर सम्प्रदाय में बहुत बड़ा अतर है। धर्म उदार, विशाल परिस्थिति ने हमारे आहार-विहार तथा आचार-चार और सहिष्णु दृष्टिकोण अपनाता है जबकि सम्प्रदाय को भी अछु ।। नही रखा। इसी सदर्भ में हम अपने सकुचित दृष्टिकोण को जन्म देता है। अत. धर्म को वर्तमान खान-पान एव आचरण को देखना परखना व्यापक दष्टिकोण के रूप में देखना और समझना चाहिए । चाहिये । भारतीय मस्कृति में मनुष्य के आच ण को इस यथार्थ के साथ यदि देशवासी अपनी मानसिकता, शुद्धता को विशेष महत्व दिया गया है। जब तक मनुष्य दृष्टि कोण और वैज्ञानिक अवधारणा को अपनात है तो अपने आचरण को शुद्ध नही बनाता, तब तक उसका देश मे कही भी कभी भी धार्मिक उन्माद की परिणति शारीरिक विकास महत्वहीन एव अनुपयोगी है। मनुष्य के दगा-फसाद, हिंसा या रक्तपात के रूप में नहीं हो सकती आवरण का पर्याप्त प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर पडता है। है। किन्तु स्थिति प्राज ऐमी नहीं है । सम्पूर्ण दश आज विपरीत आचरण या अशुद्ध आचरण मानव स्वास्थ्य को साम्प्रदायिक उन्माद की गहरी गिरफ्त में है, जो उसी प्रकार प्रभावित करता है जिस प्रकार उसका आहार धर्मान्धता, धार्मिक कट्टरता, पारसारिक विष और Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, ४७, कि.२ अनेकान्त नफरत के कारण उत्पन्न हआ है तथा धर्म निरपेक्षता की तत्व तथाकथित आधुनिक सभ्यता के अंग है। आधुनिक भाड़ में पनप रहा है। सभ्यता मे से यदि ये तीनों तत्व निकाल दिये जावें तो न एक समय था जब समग्र भारतीय जनजीवन तो आधुनिकता रहेगी और न ही उस आधुनिकता के आध्यात्मिकता से अनुप्राणित था जिससे प्रत्येक देशवासी परिवेश में लिपटी हुई तथाकथित सभ्यता रहेगी। चाहे वह सत्तासीन हो या साधारण नागरिक हो, नैतिकता यह एक सुज्ञात तथ्य है कि जहां भौतिकता का के सामान्य नियमो से बंधा हुआ था। समाज और राष्ट्र साम्राज्य है, वहा आध्यात्मिकता का टिकना सभव नही के प्रति वह अपने कर्तव्यबोध से युक्त और उसके निर्वाह है। यही कारण है कि भारतीय जनजीवन मे शनैः शनै: के लिए जागरूक एव तत्पर था। किन्तु आज भारतीय आध्यात्मिकता का ह्रास होता जा रहा है । इस स्थिति जनमानस से बाध्यात्मिकता का भाव तिरोहित हो गया मे मानवीय आचरण को प्रभावित कर उसे इतना हीनहै और भौतिकवादी विचारधारा के बीज तीव्रगति से स्तरीय बना दिया है कि उच्चतम आदर्शों एवं मूल्यो की अंकुरित होकर सम्पूर्ण जीवन शैली में इस प्रकार व्याप्त कल्पना मात्र स्वप्न बनकर रह गई है । आधुनिक मानव हो गए हैं कि उन्होने सभी जीवन मूल्वो का ह्रास कर समाज अपने आपको अधिक सुसस्कृत और सभ्य मानता उन्हें बदल दिया है। भारतीय जन जीवन मे आध्या है, क्योकि उसके रहन-सहन और आचरण में व्यापक स्मिकता के स्थान पर भौतिकवादी विचारों का प्रभाव परिवर्तन आ गया है। वह अपने रहन-सहन और आचरण स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। इसके साथ ही देश को अधिक उन्नत अनुभव करता है। उसके आहार और की वर्तमान धर्म निरपेक्ष नीति को जो राजनैतिक रंग व्यवहार में होते जा रहे परिवर्तनों ने शुद्धता और दिया गया है उसके कारण उत्पन्न प्रान्त धारणा ने केवल अशुद्धता के विवेक को एक ओर रख दिया है और ४५ वर्ष के अल्पकाल मे ही भारतीय जनजीवन मे शिथिलाचार को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया है । मनुष्य के नैतिकता और सदाचार का जो अवमूल्यन किया है आज आचरण, आहार और व्यवहार में आए शिथि लाचार ने वह हमारे समक्ष विचारणीय है। एक ओर तो उसके नैतिक मूल्यो का ह्रास किया है, प्राधुनिक विलासितापूर्ण भौतिक वातावरण ने साथ ही, दूसरी आडम्बरपूर्ण दिखावटी सभ्यता को जन्म भारतीय समाज को जिस प्रकार आक्रान्त कर उसे देकर स्वय को सभ्य एवं सुसम्कृत कहलाने का प्रयत्न दूषित और प्राडम्बरपूर्ण बनाया है, वह सुविदित है। किया है । आज सम्पूर्ण समाज मे इसी दिखावटी, आडंबर इस प्रगतिशील कहे जाने वाले आधुनिक वातावरण ने पूर्ण एवं कृत्रिम मभ्यता का प्रमार एव प्रचार व्यापक रूप भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परम्परा को जिस प्रकार से है। छिन्न-भिन्न कर भारतीय जनजीवन से उसे पृथक करने ___ वस्तुतः प्राधुनिकता सर्पनिर्मोक की भाति एक का प्रयास किया है, वह भी आज हमारे सम्मुख बिल्कुल आचरण है, जिसमे आज सम्पूर्ण विश्व आवेष्ठित है। यह स्पष्ट है। आधुनिकता के नाम पर आज समाज मे जो एक ऐमा आवरण है, जिसने हमारे सभ्यता, संस्कृति, bur आवण जिम मीठा जहर घोला जा रहा है, उमसे भला आज कौनसा रीति-रिवाज, सामाजिक स्थिति, धामिक सस्कार, रहनपरिवार अछुता है। आधुनिकता का विष भारतीय समाज महन, खान-पान आदि को बुरी तरह अपने शिकजे मे मे इस द्रुतगति से फैला है कि अत्यल्प समय में ही उम जकड़ रखा है। कोई गलत काम हो, कोई बुरी आदत अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ कर दिया है । आधुनिकता हो, कोई बुरा पहनावा हो, किसी भी तरह की कोई की बाड़ मे हमारे समाज में एक ऐसी सभ्यता ने जन्म बुराई हो, आधुनिकता के आवरण मे सब आकर्षक और लिया है, जो यथार्थ के धरातल से हटकर कृत्रिमता, सह्य मानी जाती है । आधुनिकता को इस व्यापकता से आसम्बर दिखावे की तिपाई पर टिकी हुई है। ये तीनो जहां जीवन का कोई पहल अछूता नही रहा है, वहा भला Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुनिक सन्दर्भ में प्राचरण को शुद्धता धर्म और उसके साधन की विधिया प्रभावित हुए बिना भाव का उदय नही होता है, वह मात्र ढोग एव आडम्बर कसे रह सकती हैं ? है। जन धर्म में इस प्रकार का आचरण सदैव गहित किया गया है, वह कदापि उपादेय नही है। मानव जीवन में आचरण को शुक्रता को विशेष महत्व दिया गया है। सांसारिक बधनो के अधीन तथाकथित आधुनिक सुसंस्कृत समाज के सदर्भ मे गहस्थाश्रम में रहते हुए मनुष्य के लिए हिताहित विवेक आचरण की शुद्धता तिनी उपयोगी, श्रेयस्करी एव एव हेयोपोदेय की बुद्धि परम आवश्यक है। उसो के उपादेय हो सकती है-इसकी प्रामाणिकता केवल कथम आधार पर वह अपने आचरण की शुद्धता पर अपेक्षित मे नही, प्रयोग और आचरण को कसौटी पर ही कसी ध्यान केन्द्रित कर सकता है। अचरण की शुद्धता मनुष्य जा सकती है। हमारी संस्कृति मे प्रतिपादित सिद्धात को सभी बुराइयो एव मिथ्याचरण से बचाती है, उसे एव प्राचार मीमासा समग्र विश्व एव सम्पूर्ण प्राणी अहिंसक एवं सात्विक वृत्ति की प्रेरणा देती है तथा स्वभाव समाज के लिए ऐसा अनुपम वरदान है, जो अन्यत्र दुर्लभ को सरल एवं विनय सम्पन्न बनाती है। यहाँ आचरण से है । उसका अनुकरण पारिवारिक विवाद एव द्वेष भाव तानो प्रकार का आचरण अभिप्रेत है-कायिक आचरण, को निर्मल कर सौहाई भाव एव स्वस्थ वातावरण का वाचिक आचरण एवं मानसिक आचरण । इनमें भी निर्माण कर समाज मे सुख और शान्ति का प्रादुर्भाव कर नजर मानसिक आचरण की शुद्धता पर विशेष बल दिया गया सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि उसे पूर्वाग्रह है। शुभ या अशुभ, अच्छे या बुरे मनोभाव ही मनुष्य के से मुक्त होकर देगा और परखा जाय । सात्विक आचरण शारीरिक एव वाचिक आचरण को प्रभावित करते है। की सार्थकता उनके जनकरण, अनुपालन एव आचरण मे यदि मनुष्य की भावनाए शुद्ध एव स त्विक है तो उसे निहित है, न कि आडम्बर और दिखावा मे । वस्तुतः अच्छा बोलने और अच्छा आचरण करने की प्रेरणा यदि देखा जाये तो आधुनिकता के नाम पर हम जहर मिलेगी। मनुष्य का अपना आचरण उसके अपने वैयक्तिक को अमृत मानकर पी रहे है और अमन को पुरानी बातें जीवन को तो प्रभावित करता ही है, उसके सम्पर्क में कह कर तिरस्कृत कर रहे है। यह एक विडम्बना है कि आने वाले अन्य लोगों एवं समाज को भी अपेक्षित रूप जो आचरणीय एव जीवन में उतारने योग्य सर्वथा व्यवसे प्रभवित करता है। हारिक है, उसे तिलाजलि दी है और अनुपादेय एव हेय भारतीय धर्म और सस्कृति मे मनुष्य के लिए को अपनाकर आचारित किया जा रहा है। युगो से चली आचरणीय जिस प्रकार का आधार प्रतिपादित है, वह आ रही मूढ बनाने वाली मूलतः परम्पराए एव सामाजिक आधुनिक वातावरण के सन्दर्भ मे विशेष उपयोगी है। बेड़ियो तोड़कर वर्तमान प्रगतिशील समय मे अमूढ-दृष्टि पथभ्रष्ट एवं विवेकशून्य मनुष्य और समाज आज जिस बनाना तो प्रशसनीय है, किन्तु जीवन के शाश्वा नैतिक प्रकार दिशाहीन होकर अभक्ष्य भक्षण एव विभिन्न मूल्यों को 'पुराना" कह कर अवमानना या तिरस्कार कुप्रवृत्तियो में सलग्न है, उसे समुचित मार्गदर्शन एवं करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता । जीवन के दिशानिर्देश मात्र आचार शास्त्र द्वारा ही प्राप्त हो सकता शाश्वत नैतिक मूल्यो को अपने आचरण में उतारकर है । आचार शास्त्र में कही भी रवमात्र भी ढोग, बाबर, विस्तार देना हो रचनात्मक आधुनिकता एव प्रगतिकृषिमता एवं दिखावा के लिए कोई स्थान नही है। जिस शीलता है। आचरण के द्वारा मनुष्य के हृदय मे शुद्धता एव सात्विक १-ई/६ स्वामी रामतीर्थ नार, नई दिल्ली-५५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा एवं समाधान लेखक - जवाहर लाल जैन, भोण्डर, (राजस्थान) श्री शान्तिलाल कागजी की जिज्ञासा : जो मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व प्राप्त करता है उसे अनादि मिध्यादृष्टि जीव जब प्रथमोपशम सम्यक्त्र मिय्यात्त अवस्था मे ही पापकर्मों का होन-हीन रूपेण के सन्मुख होता है या सम्यक्त्व को प्राप्त करता उदित होना, पुण्य प्रकृतियों का ही प्रायः बन्ध होना, है तब उसके परिणामो की क्या स्थिति होती है? और अशुन (पाप) परिणामों को निवृत्ति होना, तथा ऐसी ही उसे किम-किस प्रक्रिया से गुजरना होता हे और वर्तमान स्थिति में तत्वो का उपदेश देने वाले सत्परूपो की या में उसे प्राप्त करने के लिए किन-किन परिणामो की सारी पाप्ति हो जाना।। आवश्यकता है उम जीव को जिज्ञासा किस प्रकार की होगी? उसके बाद उसी तत्वज्ञान (मै आत्मा र ज्ञायक सांसारिक कार्य में लिप्त रहने के क्षण में भी मम्यक्त्व शाषक बस; ज्ञायक । शगेर पड़ोसी है, पर पुद्गलाय है, रत्न प्राप्त कर सकता है? कैमे विस्तृत समझा। अनोवाच स नही। अतः उपादेय नहीं। उपादेय समाधान-सम्यक्त्व सम्मुख जीव तथा तरका नानयो में एक मात्र प्रात्मा ही है।) [नियममार प्राप्त सम्यक्त्त जीव अतिशय निर्म न होता है। इसी कारण ता.व. ३८ परमात्मप्रकाश / जिपरमात्मानम् अत रेण करण लब्धि में स्थित जीव अपूर्वकरण मे गुजरता हुआ ' न कि बद् उपादेयमस्ति] । गुणधीरण निर्जरा यानी अविपाक निर्जरा करता है। हम कौ की स्थिति तथा रस (अनुभाग) शिथिल जबकि वह अब भी मियादृष्टि ही है। [पं० रतनचन्द होते जाते है। यह! (इस स्टेज पर स्थित) मनुष्य ८ वर्ष मुख्तार व्यक्तित्व एव कृतित्व पृ० ११०८, १११३] आयु वा नो हो ही जाता है। वह ज्ञानोपयोगयुक्त होता किर सम्यग्दष्टि होकर भी वह अन्तर्महतं तक अति है, सोम हुआ नही होता, जागता हुआ होता है, शुभ विशुद्ध परिणामों वाला होने से गुणश्रेणि निर्जरा यानी लेश्या परिणाम को ओर गमन करता हुया होता है, मनुष्य अविपाक निर्जरा को करता है। [वही ग्रन्थ पृ० ११०६ के अशुम लेश्या नहीं होती। [ल० सा० पृ० ८५ शिवतथा जयघवला जी १२/२८४] सागर ग्रयमाला] कषायें घटती हुई होती है [ज०५० क्योंकि प्रथम अन्तर्महतं मे वह सम्यग्दष्टि जीव १२/२०२-२०३] ऐसा मनुष्य चाहे द्रव्य व भाव मे एकान्तानुवृद्धि परिणामो से परिणत रहता है। [ज. प. नपुसक भी भले होवे । [ज० ध० १२/२०६] १२/२८४] इस स्टेज को प्राप्त वह मिध्यादष्टि मनुष्य (जो ___ फिर लन्ध सम्यक्त्व जीव एक अन्तर्मुहतं बाद सम्यग- अभी ज्ञान मे प्रात्मवस्तु को विषय भी नहीं बना पाया है, दर्शन के साथ सामान्य परिणामयुक्त हो हो जाता है। पर सत्पुरुषो से उदेश लाभ प्राप्त कर च का है, इसलिए फलस्वरूप अविपाक निर्जरा उसके ही होती। [ज०० कमो को शिथिल कर रहा है . ऐसी सज पर-) बहु१२/२८४ चरम पेरा] आराम बहुपरिग्रह से उदासीन हो जा" है ताकि नरकायु उसके बाद के सामान्य मम्यक्त्व काल में तो उसके बन्ध नष्ट हो । मायाचार छूट जात है ताकि नियंचायु निर्जरा से बन्ध अधिक होता है। [५० रतनचन्द मुख्तार बन्ध नष्ट हो। अल्पारंम परिग्रह परिणाम भी उसके उस व्यक्तित्व कृतित्व पृ० ११.६ : मूलाचार समयसाराधि । समय नष्ट हो जाते हैं । दयादान परोपकार आदि से मिल कार ४६] रहा जो अल्पारभ तथा अल्पपरिग्रह है ऐसा मनुष्यायु का Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा एवं समाधान बधक परिणाम भी उसके छूट जाता है । [श० वा. मे बह श्रेष्ठतम (बनिवृत्ति करण) परिणामो मे पहुंच ६/५१८ ल. सा.पृ० ११] कर "ऐगो मे बादा; मेरा तो एक आत्मा ही है"। उस __योगो की कुटिलता तथा धोखा देने रूप परिणाम यात्मा को आने मतिश्रुत ज्ञान का विषय बनाता है। उसके नष्ट भये, क्योकि अब वह अशुभ नाम कर्म का बध अपनी भान पर्याय मे अरूपी निज वात्मा का स्वानुभव प्रायोग्य लब्धि मे नही करता। सन्मार्ग प्रवर्तक दूसरे रूप ज्ञान कर लेना उस समय उसके होता है । यह क्षण जीव को अपनी विपरीत कायिक मानसिक वाचिक अनिवृति करण के चरम समय के बाद बाला यानी चेष्टाओ मे बह मिध्यादृष्टि अन्य जीव को धोखा नहीं देता सम्यक्त्व का प्रथम समय होता है । (६० पन्नालाल जी है तथा अपने आप अपनी आत्मा मे भी कुटिलता नहीं साहित्याचार्य तथा) पंचाध्यायीकार कहते है कि स्वानुभूति बरतता, तथैव पिशुनता, वाडोल स्वभाव, झठे बाट स्वानुभत्यावरण नामक मतिज्ञानावरण के अवान्तर भेद नाप बनाना, कृत्रिम सोना, मणिरत्न बनाना, मुठे गवाही के क्षयोपशम से होने वाला क्षायोपशमिक शान है जो देना, यत्र पिजरा आदि का निर्माण करना, इट पकाना, सम्यग्दर्शन के साथ नियमसे होता है। [पत्राहगयी उतरा कोपला बनाने का व्यापार करना आदि कार्य वह तथा सम्मक्त्व कितामणि प्रस्ता० पृ. ३२ युगवीर समत नहीं करता । क्योकि इनसे उसके अशुभ नाम कर्म का मद्र ग्रन्थमाला] आस्रव होगा। [. बा. भाग ६ पृ. ५२०] जिमका कि स्वानुभूति =म्ब का ज्ञान; ऐसा अर्थ यहा विवक्षित उमके निरोध हो चुका, मिध्यात्व अवस्था मे ही। यही है। परन्तु प्रात्मा अमूर्त होने से छमस्थ का ज्ञान उसे अशुभ नाम की व्युच्छत्ति रूप प्रायोग्य लम्धि है। प्रत्यक्ष नही देख पाता । आत्मा का आकार तथा प्रदेशादिक पर की निन्दा तथा अपनी प्रशसा (अहगाव Ego) उमे साक्षात् नही दिखते। कहा भी है-"आत्मा का भाव तो उसके ऐसे नष्ट हो चुके कि कभी नही आदेगे। प्रत्यक्ष जानना तो केवली ही के होय है।" (रहस्यपूर्ण क्योकि सासादन सम्यदृष्टि तक ऐसे भाव होत हैं या चिठ्ठी) परन्नु अन्धा व्यक्ति जैसे मिश्री को डलो को नहीं फिर प्रायोग्य लब्धि से पूर्व समयवर्ती मिथ्यात्सी के एसे देख पाता, आकार, रग, रूप नही जान पाता; तथापि भाव होते है। दमगे के गुणों से ई तथा स्व क नही रसास्वाद तो कर लेता है। नव यह गृहस्थ भी आत्मा गुण हैं तो भी गुण बनाकर कहना यह कार्य यह नही ।। जानना, जाना, अनुभव यानी 'उसे विषय करना' तो करता । दु.ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वत्र, यनो रोना, कर सकता है। यही स्वानुभव (स्वज्ञान) या स्वानभव इत्यादि न करता है, न कराता है । अरे ! यह स्टज तो प्रत्यक्ष है । स्वानुभव-प्रत्यक्ष रूप स्थिति चौथे मे सम्भव मुनियों को भी दुर्लभ है। अर्थात् मुनियो का भी जो है। (रहस्यपूर्ण चिट्ठी का सार) प्रकृतिया बधती है ऐसी अस्थिर, अशुम, असाता, अगश. परन्तु सासारिक कार्यों में लिप्त होने के क्षण में वह कीति, अरति, शोक नामक ६ प्रकृति इस मिध्यादष्टि : मिथ्यादृष्टि गृहस्थ सम्यक्त्वरत्न को प्राप्त नही कर बंधती समाप्त हो जाती है । (यही प्रायोग्य लब्धि + सकता । मविशुद्ध (धवल ६/१०६) अर्थात् त्रिकरण= अन्तिम ३४ा बन्धापसरण है।) [जवल ६/१३८. करण लब्धि धवल ६/२१४)मे स्थित सातिशय मिधात्वी १३६] नोकिसी अपेक्ष. मुनि से भी विशुद्ध होता है। मुनि तो अतः इन के बाधने का परिणाम सामान्य मुनिराज आस्थर अशुभ असाता आदि ६ प्रकृतियों का बन्ध करता के तो होते हैं, परन्तु सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्यात्वी के नहीं है, पर वह करणब्धिम्य मियादृष्टि इन प्रकृतियो का होते । अत अहो, वह जी। तो मुनि से भी उत्तन रिणाम बन्ध नहीं करता। (बड़ी तो अन्तिम बघापसरण है) वाला हो जाता है। यही प्रायोग्य लब्धि है। तब फिर क्षाधिक गम्यक्त्वो तसा तीर्थकर प्रकृति के बन्धक प्रथम बही जोब करण लब्धि को प्राप्त होता है तथा भावपार गृथ्वीस्थ श्रेणिक आदि या यहा के क्षायिक सम्यक्त्वी निर्जरा भी उसके (अपूर्वकरण मे) प्रारम्भ होती है। ऐसे भवनी गहस्थी विदेह क्षेत्रीय भव्य ग्रहस्पों से भी बह Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, ४७, कि०२ अनेकान्त मिथ्यात्वी विशुद्ध हो जाता है, करण लब्धि के क्षणो में। हो जाता है वह छह मास बाद भी यदि नहीं विनशता तो क्योकि उसके तो अविपाक निर्जरा-गुणश्रेणिनिर्जरा हो समझ लेना चाहिए कि आप मिथ्यादृष्टि हैं तथा जो शुरू रही है करण लब्धि मे । (मुख्तार अथ ११०८) पर इस मे मद उपजा था वह भी मिथ्यात्व सहित था। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यक्त्वी के गुणणि निर्जरा सम्यक्त्वी के क्रोध मान माया तथा लोभ के संस्कार नही हो रही है।[१० टोडरमल जी मो० मा० प्र० ६ माम से अधिक नही रहते । यह आगम है उसे इष्ट सस्ती० ३०८, ३४१, ३६४] अनिष्ट तो परपदार्थों के प्रति भासित होता है। पर वह बताओ, उस करण लब्धि में विगजमान सर्वविशुद्ध पर पदार्थों के प्रति इटानिष्ट रूप अवभासना आसक्ति सत्पुरुष सातिशय मिथ्यास्वी के ऐसे क्षण में मांसारिक सहित नहीं होती। इसीलिए तो इष्ट वियोम तथा अनिष्ट कार्यो में लीन रहना सम्भव है ? कदापि नहीं। उस क्षण सयाग आतध्यान छठ गुणस्थान तक कह ह । वह घर मे विराजमान हो सकता है। पर सांसारिक- सम्यग्दृष्टि की एकान्त दृष्टि समाप्त हो जाती है। गाईस्थिक काया से उस ममय वह निश्चित ही विरत हो वह "आत्मा कथंचित् द्रव्पकमो के परतत्र हैं, कथचित जाता है । उस समय वह ब्रह्म = आत्मा को पाने ज्ञान स्वतत्र है", (धवल १२) इत्यादि स्याद्वाद के वाक्यों को हृदय मे आने ज्ञान मे सोल्लास स्वीकार करता है । तो का विपप बनाता है उस क्षण उस पर चेतन अचेतनकृत उपसर्ग युगपन अनेक भी आ जावें तो भी उसमे वह पूर्ण उमी क्षण अपनी श्रद्धा में शुद्धात्मा के प्रति ही लक्ष्य तथा रूप से अप्रभावित रहता है। कहा भी है ---दर्शन माह के उपादेयता रूप बुद्धि धारण किए रहता है । दृष्टि व ध्यान उपशामक सर्व ही जीव निर्व्याघात अर्थात उपसर्गादिक के मे शुद्धात्मा ही अभीष्ट होती है उसे । पर उसके ज्ञान में आने पर भी विच्छेद नथा मरण से रहित होते है । [धवल द्वादशाग के एक वाक्य के प्रति भी अपलार नही रहता जो ६/२३६ तथा जयध० १२ पृ० ३०२-३०३] एक भी जिन वचन को नही मानता वह मिथ्यादृष्टि है। [भगवती आराधना ३६] उस समय उसका विषय एक मात्र यात्मा=ब्रह्म वह साधु मे यथार्थ मे कोई दोष हो तो उसे सबके ज्ञानप्रकाश =ज्ञापक ही रह जाता है । [उसकी कारणा सामने नहीं कहता, ढांकता है। अन्य कहता हो तो उसे नयोगिक विशेषताए धवल ६/२३८ से २४२ तक का भा भी रोकता है। पिपुराण ०६/२३२] देखनी चाहिए ऐसा सकल भूषण केवली ने कहा था (वही प्रमाण) सम्यग्दष्टि के प्रतिशोध के भाव समाप्तहा जात है। दारो की परीक्षा हेतु ऊट-पटांग प्रश्न पूछकर उसे नीचा बुरे का जवाब बुरे से नही देता । [पचाध्यायी २/४२७ दिखाना नही चाहता। [न टक समयसार साधक साध्य सद्य कृतापराधेषु-] २६] बनारसीदास आदि निश्चित ही सम्पष्टि रहे थे, वह खाने-पीने की इच्छा अवश्य करता है, पर ऐसा भासित होता है। (श्रीमद् राजचन्द्र) जिसके भोगाआसक्ति नही, उनमे आसक्त नही होता । आपने आज भिलाषा भाव है वह मिध्यादृष्टि है। प० ध्या० सुबोधिनी सर्वाधिक मोटा आम खाया और बारह मास बाद भी प. ४१४.४२० उस आम को स्वाद को याद आती रहे तया वैमा आम कदाचित् वह राम व युधिष्ठिर की तरह आत्मरक्षा खाने की इच्छा (लोभ, बनी रहे तो समझनो कि आपत यदादि भी मजबूरी वश करता है। वह मिध्यात्व, मिथ्यादष्ट हो। किसी ने आपको गाली दी हो या यप्पड अन्याय तया अभक्ष्य का त्यागी हो जाता है। सम्यक्त्व मारी हो तो ८-१०-१२ माम बाद उसे देखते ही उप्त पर चिन्तामणि प्रस्ता• पृ० ३८] देष, करता, क्रोध जाग्रत हो जाता है कि यह वही है वह परिस्थितिवश श्रेणिक की तरह आत्मघात या जिसने मुझे गाली दी अर्थात उम पर या उसके प्रनि वैर- सीता प्रतीन्द्र की तरह मोह । चारित्र मोह) वश राम भाव नष्ट नहीं हुआ तो आप मियादृष्टि है (क्रोध)। मुनि का ध्यान से डिगाने का भी यत्न करता है। [महा ग्वय के देह पर परिजन आदि को लेकर ना मद उत्पन्न धवल प्रस्ता० ८३ पृ० ६ वस्तुत: उसके जान चेतना ही Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिनासा एवं समाधान नही, कर्म तथा कर्मफल चेतना भी होती है। मिथ्यावृष्टि सोचता है : इस जग मे ७०० करोड अव्रती सम्यक्त्वी मनुष्य चाहत हो, धन हो विधि. है । जबकि कुल मनुष्य पांचवे वर्गस्थान बादाल के धन तो सब काज सरै जियराजी। प्रमाण हैं। [षट्ख पृ. ६४, ब्रह्मविलाम पृ० ११०, धवल गेह चिनाय करू गहना कछ, /२५२] व्याह सुनामुन बाटिये भाजी॥ (सकल मनुष्यो की संख्या २२ अंक प्रमाण भी मानी चिनत यो दिन जाहि चले जाए तो भी १३ अफ सख्या पर यानी औसतन १० खरब जम आन अमानक देत दग'जी। मनुष्यों पर एक सम्यक्त्वी गृहस्थ प्राप्त होता है।) सारतः खेनत खेर खिलारी गये, औसत की दृष्टि से इस सकल ६ अरब सख्या वाले इस रहजाय रूपी शतरंज की बाजी ।। आधुनिक विश्व मे तो एक भी सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं सम्यग्दष्टि सोचता है : होता । स्मरण रहे कि यह औसत को अपेक्षा कथन किया दुखमय जगत के विभाव को चाह नहीं, है । फिर हम मुण्डे मुण्डे मनो मन सम्यग्दृष्टि बनते हैं। चाह नही नाथ मुझे पदाधीश कर दे। यह हास्यास्पद बात है। सम्यग्दष्टि अवती की दशा भी पराधीन रोगगम कोगों को न चाह मुझे, बडी अलौकिक हो जाती है। दौलतराम जी ने ठीक ही चाह नही बड़े-बड़े महलो मे धर दे ।। मोहकारी पुत्र पौत्र मित्रो को न चाह मुझे, गही पे घर में न रच, ज्यो जल ते भिन्न कमल है। चाह नही स्वर्णमयी जेवर और जर दे। नगर नारी को प्यार यथा, कादे मे हेम अमल है। छोड जग राह नाथ चाह एक चाहता हूँ, जिसे संमार से रोना आ जा, सपार वास न सुहाए भक्त मणि मानस मे भक्तिभाव भर दे। उसे यत्न करने पर आस्न-बोध हो सकता है। सम्यग्दष्टि मिथ्यादष्टि सोचता है: तथा मिध्यावृष्टि के परिणामों मे अन्तर का परिज्ञान रागउ भोगमाव लागत सुहावने से, करने के लिए तथा सम्यक्त्वी परिणामों का बोध कराने । बिसाराम ऐसे लाग जैसे नाग कारे हैं। लिए नीचे मैं डा. मुलचन्द जी सनावद द्वारा सकलित राग ही सौ पाग रह न मे सदैव जीव, पयो को उढ़ा करता है राग मिट गुमा अपार खेल सारे हैं। रागी बिन रागी के विचार मे बहो ही भेद सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि जमे भटा पण काहू काहू को बयारे हैं । सम्यग्दृष्टि सोचता है: सम्यग्दष्टि: जोई दिन कट, सोई आयु मे अवश्य घटै। भेद विज्ञान जम्यो जिनके घट, बूंद-बद बीते जैसे अंजुरी का जल है । शीतल चित्त भयो जिमिचदा । देह नित झोन होत, नन तेज हीन होत । केलिकर शिव मारग में, यौवन मलीन होत, क्षीण होत बल है ।। जगमाहि जिनेश्वर के लघु नदन । बाव जरानेरी, तक अंतक अहेगे आय । शान्तस्वरूप दशा तिनकी. परभो नजीक आय नरभो निफल है ॥ प्रगटी अवदात मिध्यात्व निकंदन । मिल मिलापी जन पूछन कुशस मेरी। णान्त दणा तिनको पहचान, ऐमी दशा माहि मित्र, काहे को कुशल !? करें कर जोड बनामि दन ।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ४७, कि. २ अनेकान्त मिथ्यादष्टि : इन्हे आदि सेवै छुट ते करम सो ॥ धरम न जानत बखानत भरम रूप, सम्यग्दृष्टि: ठोर ठोर ठानत लड़ाई पक्षपात की। विकार हेतो सति विक्रियते येषा न घेामि त एव फिर डावाडोल सो करम को कलोलन मे, धीराः। है रही अवस्था ज्यो बभला कैसे पातको । विकार का कारण पैदा हो जाने पर भी जिन के चिन जाकी छाती ताती कारी, कुटिल कुवाती भारी। मे विकार पैदा नही होता वे धीर है, वो ऐमो ब्रह्मघाती है मिथ्यान्वी महापानकी॥ सम्यग्दृष्टि है। सम्यग्दृष्टि : मिण्यादष्टि : बाहर नारक कृत दुख भोगत अन्तर मगरमगटागटी। परचाह हार परचाह दाह दलो सदा कबहू न साम्य सुधाचरू। मन अनेक सुरनिसा पैतिस परनति तें नित हटाहटी सम्यग्दष्टि : मिथ्यावष्टि : तोते को सोने के पिंजडे मे रखो। पिना, बदाम णास्त्र पढे मालाए फेरी, प्रतिदिन रहा पुजारी। खिो तो भी वह इम ताक में रहता है कि पब किन्तु रहा कोरा का कोरा, मन न हुआ अविकारी। बंधन मुक्त होऊ। यही सम्यग्दष्टि का विचार माठ बरस की उमर हो चला, फिर भी ज्ञान न जागा। रहता है। मच तो यह कहना ही होगा, जीवन रहा अभागा ।। मिथ्यादष्टि : सम्यग्दष्टि : पालतू कबूतर को जिडे से बाहर निकालकर उड़ा कवगृहवाससो उदास होय वन सेऊ। दो फिर भी वह वापिम पिजडे मे आता है। वेऊ निजरूप गतिरोक मन करोकी ।। सम्यग्दृष्टि : रहिहो अडोल एक आसन अवल अग। एकाको निःस्पृहोशान्त: पाणिपात्रोदिगबर सहिहों परीषह शीतधाम मेष सरोकी। कदाऽह सभविष्यामि, कर्मनिमल नक्षमः ।। ।।। बिहारी यथाजात लिंग धारी कब । सम्यग्दृष्टि के विचार स्वपर कल्याण के लिए होते हैं। होहु इच्छाचारी बलिहारी हूवा घरी की। मिध्यादष्टि-स्वपर कल्याण के विचारो से रहित होता है मिथ्यावष्टि : सम्यग्दष्टि सोचता है: अतर विषय वासना बरत, बाहर लोकलाज भयभागे। एगामे सासदो आदाणाण दसण लावणो । नाते कठन दिगबर दीक्षा' घरनहि सके दीन संसारी।। सेसा मे बाहिराभावाः सब्बे सजोग लवणा।। सम्यग्दृष्टि : न मे मृत्यु कुतो भीनि: न मे व्याधि कुलो व्यथा । नाहं वालोनवृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ।। श्री राम ने राजा दशरथ के विरुद्ध भड़काये जाने अह न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानष । पर भी कहा था-राजा में दण्डकारण्ये राज्य दत्त न देवः किन्तु सिखात्मा सर्बोऽय कर्म विक्रम. ।। शुभेखिलम् ॥ मिथ्यावृष्टि : मिथ्यावृष्टि : एक बूढ़े सेठ को उसी के लडको ने मारा। बूढा सिधारी देवमाने लोभी गुरु चित्त माने। सेठ साधु के पास आकर बोला, महाराज ! बाप हिंसा मे धरम माने दूर रहे धरम सों॥ बहुत सुखी हैं । साधु ने कहा तो तू भी साधु हो जा, माटी जल भागि पोन वमपशुपक्षी जोन । दूभी सुनी हो जायेमा । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निनासा एवं नाबान (जन सुनकर सेठ बोला-महाराज गृहस्थी मे ऐसा स्वभाव की ओर करने पर मति तज्ञान द्वारा मात्मा चलता है आखिर बम्चे ही तो है, सब कुछ सहन ज्ञात होमा । यही सम्यग्दर्शन है। जब मति श्रमज्ञान की करना पड़ता है । ऐसा कहकर झट बदल गया। पर्याय में अन्य ज्ञेय नहीं रहे तथा अपना निज ज्ञायक ही जेयपमे को प्राप्त होता है तो उस ममय प्रात्म साक्षात्कार सम्यग्दष्टि जीव एकान्तवादी नहीं होता हुआ कहलाता है । वही सम्यक्त्व हुआ कहना चाहिए। इस आत्मा की ओर आने के लिए निम्न विचार शास्त्रो ने जहा-जहा निश्चय नय का वथन किया। करणीय हैंही उसी उसी को प्रमाण करना, उसी उसो को सत्य (१) पर वस्नु मे शरण दूढना, विश्राम करना मानना यह मिथ्यादृष्टि का लक्षण है । टोडरमल जी भव धंक है। कहते है कि यह अपने अभिप्रायत निश्चनय की मुरूपता (२) अभ्यास करे, गहराई में जाए नपा तल में करि जो कथन किया होय ताही को ग्रहि करि मिथ्यादृष्टि जाकर पहिवाने तथा वहाँ स्थिर हो तो नन्द (आत्मा) को धार है।" [मो० मा ० प्र० पृ० २७१] प्राप्त होता हैं। यही बात श्रीमद राजच द्र भी (भाग :/६८८ मे) (३) बधन को तो मूर्ख भी नहीं चाह करता । फिर मैं कहते हैं । सम्यक्त्वी तो ऐसा होता है कि "निश्चय तथा शरीरादि का बधन, उसी मे जुडान+ तथा उसी का रख व्यवहार के वास्तविक स्वरूप को समझ कर दोनों नयो रखाव आदि करता आया हू, अर्थात् अभी तक तो मैं के विषय मे मध्यस्थता को ग्रहण करने बाला मन्य हो बहिरात्मा ही बना रहा है। जिनागम मे प्रतिपादित वस्तुम्बरूप को अच्छी तरह समझ (४) हे भाग्यशाली | ध्येय तो एक "जानप्रकाश, मकता है।" इस अमतचन्द्राचार्य के [पू. सि० उ० व्यव- ज्ञानप्रकाश बस, ज्ञान प्रकाश का हो रख। हार निश्चयो यः .... ] में उसे प्रगाढ श्रद्धा होती है। (५) इस जीव को आत्मा पर प्रेम है ही। व्यवहार नय भी झूठ नही होता है । [ण च व्यवहारणओ पुरुषार्थ करे ही करे। चप्पलओ जयधवला जी १/७] इस वाक्य पर उमे ही (६) हे भव्य ! इस नर देह को पाकर एक पल भी श्रद्धा हो सकती है जिमका होनहार उत्तम है. अथवा जो व्यर्थ न गवा । निकट भव्य है। (७) हे मुमुक्षो! एकान्त मे जितना समार घटता है सम्यक्त्व उपाय : उमका शताश भी घररूप काजल की कोठरी मे नही घटना। सर्वप्रथम श्रुतज्ञान द्वाग तन्त्र स्वरूप आत्म स्वरूप (८) इस जोव ने जितना श्रम आजीविका के लिए को समझना चाहिए । "मैं ज्ञानप्रकाश मात्र है" यही स्व किया उतनाही श्रम ह चेतना के लिए करे तो सूलट । है। शेष मब पर है-द्रव्य कर्म, शरीर, रागादि भाव ये (६) यह मिथ्यात्वी जोव पुद्गल मे ही रचा पचा है। भी पर है। फिर पांच इन्द्रिय व मन द्वारा पर द्रव्यो को सेतो हार का सखी चा िनशा इसे तो शरीर का सुख भी चाहिए तथा आत्मिक सुध जानने वाले ज्ञान को, वहाँ से तोड कर उसी अपने मति- पोरी भी। ऐसा कैसे हो सकता है? ज्ञान को आत्मा की ओर करते है। यानी मनिज्ञान को (०) जिस होनहार पुरुष को ऐसा लगता हो कि । पर ज्ञयो से हटाकर आत्मा रूप ज्ञेय मे लगाते है । तो पौदगलिक सुख मिथ्या है, सच्चा सुख इससे भिन्न हो स्वानुभव होगा। श्रुत ज्ञान भी समस्त नय विकल्पो स छूट कोई होना चाहिए तो उसे पुरुषार्थ रन की चटाटी कर आत्मस्वरूप [-ज्ञान प्रकाश मात्र] मे एका हो भी होवे । तभी आत्मानुभव होगा । सम्यग्दर्शन होगा । अपनी मति- (११) समस्त विकारो से रहित अनन्त गणमय अभद ज्ञान तथा श्रृत ज्ञान की पर्याय जो पर पदार्थों की ओर आत्मा मे दृष्टि कगे, सकिन मिलेगा। मुकी हुई हैं जिससे हमे पर पदार्थ ही ज्ञात हो रहे हैं। (१२) "शाम प्रकाश का पुज" यही आत्मा है। इन्ही मति श्रुतज्ञानो को स्वसन्मूख करने पर-अन्तः बस, इसी का अनुभव करना । यही करने योग्य है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वर्ष ४७, कि० २ अनेकान्त (१३) विभाव तथा सयोगो की समीपता छोड़कर यही ब्रह्म है आत्मा की पहिचान ज्ञान भाव से है यह एक आत्मा की समीपता करना। इसी का ज्ञान करना सम- भाव बैठ जाए कि मैं ज्ञान स्वरूप हू, जानन स्वरूप हैं। कित है। जानन स्वरूप क्या है ? शुद्ध जानना ही जान स्वरूप है। (१४) हे मानव ! मतिश्रुत का व्यापार स्वसन्मुख इस ही लक्ष्य में लग जाएँ और जानकर केवल अपनी करो और समकित पाओ। आत्मा मे, जिसे कहते हैं 'ज्ञान ज्योति', उसमे ही लन (१५) सर्व प्रथम जीव सात तत्त्व का स्वरूप समझे जाएं तो ज्ञानानुभव [=सम्यक्त्व होता है । फिर विशेष रूप से द्रव्य गुण पर्याय को पहिचाने। फिर रे ! बाह्यवस्तु को सुखकारी मानते हो, कल्याणकारी आत्मदव्य के सामान्य स्वभाव को जानकर, उस पर दृष्टि मानते हो; असल मे देखा तो वही निमित रूप से द ख का करके. उसका अभ्यास करते-२ उसी मे स्थिर हो जाए। कारण बन रहा है। (१६) सब प्रथम चेतन का ज्ञान करना । फिर उसी जितना राग बुरा नही, उतना मोह बुरा है। जा मे विश्वास करना, फिर उमी में स्थिर होना, सम्यक्त्वो. बाह्य वस्तुएँ सुहा जाए यह राग है । बाघ वस्तु को मेरी पाय है। समझना मोह है। बाह्य वस्तु मे ममत्व मान लेना हो (१७) इसके लिए निरन्तर ज्ञायक का ही अभ्यास, मोह है तथा बाह्य वस्तुएं सुहा जाने का नाम राग है। जायक का ही मन्थन : इसी का चिन्तन हो तो समकित मोह अर्थात राग मे राग। पर वस्तु मे राग हो गया। प्रकट हो। नो तत्त्वो मे मात्र जीव तत्व ही उपादेय है। उनमे यह राग मै हू । राग से हो मेरा कल्याण है, मेरी भलाई है। यह हुआ राग का राग । राग मे राग हो जाने का मैं स्वय एक ही जीव निज के लिए उपादेय है। शेष जीव । नाम ही मोह या मिथ्यात्व है। तत्त्व तथा अन्य सर्ब अजीवादिक तत्त्व उपादेय नही। सवर मैं तो केवल एक ज्ञानमात्र, जो पकडा नही जा निजंग तथा मोक्ष तो पर्याय हैं। ये भी दृष्टि के विषय सकता, छेदा नही जा सकता, घेरा नही जा सकता, आंखो नही (भले ही कचित् उपादेय हो) मेरी दृष्टि का विषय से देखा नहीं जा सकता; ऐसा ही मै एक चैतन्य वस्तु है। तो ध्र वतत्व "मेग आत्मा" ज्ञायक, शायक बम शायक मेरा किसी से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं पृथक् ह, सबसे जब वह मतिश्रत जान का विषय बन जाए ता मम्य- न्यारा है। जिसकी इस कार को दृष्टि होगी उसको पत्व हो। शान्ति प्राप्त हो सकती है । आश्चर्य की बात है कि ह आत्मा स्वय अपने ही जगत के सभी समागमो से हट कर मैं उपयोग को अस्तित्व पर शंका करता है अथवा उसे मानने से इन्कार अपने ज्ञानमात्र, ज्ञायक स्वरूप मे लाऊँ; यही विबेक है। करता है। मैं निज जानन मे हो रम, यही प्रभु का दर्शन है। सत्य हे द्र! किसी पर पदार्थ पर मोह दष्टि न रख, का पाग्रह हो तो सत्य का दर्शन होगा ही। उस पर आसक्त न हो। मेरी जाननमात्र ही चेष्टा हो, बाकी सब काम नही हो यदि यह उपयोग बन जाए कि मेरा प्रभु मैं ही है। बाहर मे दृष्टि गई तो वहाँ शान्ति नही मिलेगी । शान्ति मैं जगत के सब पदार्थों से न्यारा है। यदि ऐसा उपयोग तो वहाँ है जहाँ बाहर मे दृष्टि न हो। कुछ मत सोचो, बन जाएगा तो तेरा उत्थान होगा। कुछ मत बोलो, कुछ मत करो। कल्पना जल्पना चलपना हे आत्मन् । पर मे दृष्टि न रख, पर मे दृष्टि रखने से तुझे दुख होगे। क्या है ? कल्पना का सम्बन्ध मन से है। जल्पना का बारमा की पहिचान ज्ञान लक्षण से होती है और सम्बन्ध वचनो से होता है। चलपना उठकर चल देना है। जान लक्षण का कोई आकार नहीं है। ज्ञान ही ज्ञान का जहाँ न कल्पना हो, न जल्पना हो न चलपना हो; केवल आकार है और ज्ञान हो आत्मा का लक्षण है। इसलिए स्वरूप काही परिग्रह हो तो तत्त्वज्ञान की प्रवृत्ति बढ़े, भात्मा निराकार है। यह तो केवल "ज्ञान ज्योति" है। वहाँ शान्ति मिलती है। जिसने अपने स्वरूप को लक्ष्य में Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा एवं समाधान न लिया, अपने को ही पर का उपादान रूप कर्ता-धर्मा जगत में मिला हुआ देख । जो अपने को जगत से भिन्न माना तो समझो कि वह दूसरी दुनिया मे चला गपा, देखना है वह भिन्न हो जाता है और जो जगत से शकर अपने स्वरूप से हट गया । यदि जीव अपने स्वरू। से हट यानी मिला हुआ अपने को देखता है वह शंकर यानी गया तो समझो कि दुखो को परम्परा आ गई। क्योकि जगत् से मिला हुआ (ससारी) ही रह जाता है। अपने स्वरूप को भूलकर कही भी लगो, सर्वत्र क्लेश ही सम्यक्त्व पाने के लिए शान्ति के मार्ग मे बढने के क्लेश है। लिए सबसे पहला कदम है दन्द्रि विजय । अर्थात इन्द्रियो अपने आप मे मा अनुभव बन बन जाए कि ब ह्य के विषयों पर विजय प्राप्त करना । इन विषयो से पृथक, पदार्थ उपयोग में नहीं है वेवल 'ज्ञानरस" का अनुभव विषयो के ग्रहण की साधनभूत द्रव्यन्द्रियो से पृथक, ओर होता रहता है, ज्ञान दृष्टि होती रहती है तो उसे सम्यक्त्व विषयग्रहण के विकल्प भाव रूप भावेन्द्रिय से पृथक ज्ञान निश्चित हुआ जानो। अपने आपको सहज चैतन्य के रूप मात्र अपने आत्मतत्व का अनुभव करूं। इसके लिए हम मे पहिचान होगी तव सम्यक्त्व होगा। स्वभाव दर्णन सीधा इतना ही करे किषियो के निमित्तो को दूर करें। (सम्यग्दर्शन) क्या है ? जैसा खुद का स्वरूप है तैसा ही तथा विष के कारणभन इस शरीर को आत्मा से अलग उपयोग बन गया, यही स्वभावदर्शन है। मुझे करना वेतन समझे । फिर इन विकल्पो के दूर होने पर आत्मा में परम एक ज्ञानानुभव ही है। ज्ञान मे ज्ञान का अनुभव कर विश्राम होगा। जिससे शान्ति के स्वरूप और शान्ति के मैं अपने में अपने आप आनन्द स्वरूप होऊँ। मार्ग का साक्षात्कार होगा। सुख इसी विधि से है। तू अपने को यह समझ कि मै ज्ञानमात्र है। इसके अन्यत्र विषयो मे गुख खो नना महामूढता है । भागे में कुछ नही है । इस ज्ञान मे ही सब कुछ आ गया। इस कला से तू जगत् के अन्य प्राणियो से भिन्न हो सम्यक्त्व उपाय : - यह आत्मा क्या है ? जरे आत्मा मे अनन्त शक्ति है जाएगा। मेरे में क्या है ? मेरे में सब कुछ है। मेरे में ज्ञान है, और उम शक्ति के प्रतिसमय परिणमन चनते रहते हैं। अनादि में परिणमन चला पाया और अनन्त काल तक वह ज्ञानही सब कुछ है । ज्ञान की कला से तो देखो, यह राग है, मोह है, ज्ञान का अधेरा है, ज्ञान का ही उजेना परिणमन चलेगा। परिण मन तो होगा, परन्तु परिणमन है। ये सब ज्ञान के ऊपर ही निर्भर है। बडो-२ विपदाओ या शनि भेद (गुणभेद) की दृष्टि से परिचय नहीं होगा। के सामने यदि ज्ञान से काम ले तो विपदाएँ दूर हो मक। आत्मा का अनुभव नही होगा। यह ऐसा पकड़ में नही है । ज्ञान के बिना आकुलताएं-व्याकुलताएँ दूर नहीं हो आ सकता जिससे स्पष्ट पहिचान मे आवे। अरे, यह है सकती हैं। कहा भी है . आत्मा । जैसे हाथ में रखी स्वर्ण की डली है। वह पहिभिन्नदर्शी भवेद्भिन्न. मकरेषी च शकर.। मान मे आ जानी है कि यह है । एक ज्ञान-दृष्टि से आत्मा तत्त्वतः सर्वतः प्रत्यक स्याम् स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम् ॥ का सोचो कि यह ज्ञानम्वरूप आत्मा है जो जानन का हो हे ग्रात्मन् ! तुझ जगत से न्यारा बनना है या जगत काम करता है वही आत्मा है । इतना ही नही, जानने की से मिला हुआ बनना है? पहले इसका निर्णय कर । जगत् जो शक्ति है, कालिक जो ज्ञान स्वभाव वह आत्मा है। से न्यारा रहने की स्थिति कैसी होगी? तो देखो, वहां न इस तरह केवल ज्ञानस्वरूप को ही लक्ष्य में रखो तो ज्ञान कुटुम्ब है, न समागम है, न शरीर है, न कर्म है, न क्रोध स्वरूप ही लक्ष्य में रहत-२ यह लक्ष्य भी छुट कर ज्ञानहै, न मान है, न माया है । जाननमात्र शान्त आत्मा की और अनुभव हो जाता है। यह चीज प्रयोग सामान्य स्वरूप तेरी स्थिति होगी। यदि तुझे जगत् से की है । भीतर में उपयोग बने कि मैं ज्ञानमात्र हू और भिन्न रहना है तो अपने को जगत से भिन्न देख। और जानन (ज्ञान) का जो स्वरूप है उसे ही लक्ष्य मे लेवे; यदि जगत् से अपन को मिला पा रखना है तो अपने को इतना मात्र ही मैं हूँ", ऐसा रहे तो आत्मा का परिचय Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, बर्ष ४७, कि०२ इमेकाम्त मिलता है; आत्मा की पका होती है। [आत्मपरिचयन (अर्थात् ये सब परिजन दिन का स्वप्न है)। अहो! इम का सार। मोह की नीन्द के स्वप्न में कितनी लोटापाई की जा रहो सम्बत्व उपाय : है ? हे कल्याणाथियो ! देह के मोह को छोडो। हे योगी पुरुष ! कर्मकृत भावो को और अन्य चेतन अचेतन द्रव्यो तत्त्व निर्णय करने विषं उपयोग लगावने का अभ्याम को भिन्न समझो। अहो ! सम्यक्त्वी तो पिण्ड छुडाने क राखे, तिनिकै विशुद्धता बधे, ताकरि कर्मनि को शक्तिहीन लिए भोग भोगता है और मिथ्यात्वी भोगो को चाहकर होष । कितक काल विर्ष आप आप दर्भननोह का उपशम भोगता है। जो कुछ-कुछ जान रहा है उसके ही जानने में होय तप या तत्त्वनिकी यथावत प्रतीति आव। सो पाका लग जाए यही दुखो से मुक्त होने का उपाय है। वार्तध्य तो तत्वनिर्णय का अभ्याम ही है। इस होते दर्शन "जो जानने वाला है उसको जानो" केवल जानन मोह का उपशम तो स्वयमेव हो होय । यामैं जीव का का ही सदा पुरुषार्थ करना चाहिए । ज्ञान से बढ़कर तप कर्तव्य किछु नाही। बहुरि ताको हो। जीव के स्वयमेव क्या हो सकता है ? (कुछ नही)। सम्पदासन हीय । बहुरि सम्यग्दर्शन होते श्रद्धान तो यह हे आत्मन् ! गृहस्थ तो उसका नाम है जिसके यह भया-मैं आत्मा हूं। मुभको रागादि न करने । परन्तु भावना रहती हो कि मैं कब मुनि बन ? चारित्र मोह के उदय ते रागादि हो है। [मा० मा० प्र० "जो जानन (ज्ञान) का हो जानन कर लेता है" ६/४६. सस्ती ग्रन्पमाला] है भव्य ! पर वस्तु से मोह न करो, तो क्या जीव मिट जाएगा? पर माने कौन? उसका सम्यग्दृष्टि कहते हैं। [प्र.प्र. ४/५७ भानपुन [५० प्र० २/५४२ रामगज मण्डी] जीव के मरण का भय प्रकाशन मिथ्यात्व है । [५० प्र० १/४३] सर्व पदार्थों को हम कहाँ चाहे मर जाओ पर परद्रव्य मे आत्मबुद्धि न करी । "मैं" में सबका अनुभव चलता है। मैं कर रहा हू, मैं जा तक हटाएं? एक अपने पापके स्वरूप के ग्रहण करने में सबका त्याग हो जाता है। कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य को रहा हू आदि कथनों मे जिसके लिए "मैं" कहा जाता है अपना परिणमन नही देता। वही तो मैं आत्मा हूं। [प० प्र०प्रवचन ४/०१६ भानपुग प्रकाशन मेरा काम केवल जानन [ज्ञान करना] मानन्द ये दो इस प्रकार सम्यक्त्व का सक्रम/प्रक्रम उपाय कहा हो काम हैं। (प० प्र० १/१६४) । गया। राग का राग करने से राग हरा रहता है। इस प्रकार यह जीव स्यावाद को ज्ञान में पूरी तौर सब पदार्थ न्यारे-२ अचने लगना; यही धर्म है। यह पर सोल्लास स्वीकार करता हुआ बद्धा दृष्टि मे शुद्धात्मा ज्ञात हो जाए कि सब पदार्थ मुमसे न्यारे हैं यही अन्तस्तप के प्रति लक्ष्य रखता हुआ उसी को उपादेय मानता हुआ, है। अशुद्ध रहते हुए भी शुद्धता को देखें तो कभी अशु- चारित्र पथ मे स्वय अचारित्री होता हुआ भी जिन मुद्राउता मिट जाएगी । म अवस्था मे भी शुद्ध (शक्तित:) धारी का अनपमान करता हुआ यह जीव आत्मानुभव ) देखा जा सकता है। [५० प्र. ३/१०, ७/४६४ भानपुरा (प्रात्मज्ञान) से सम्यग्दृष्टि हो सकता है; अन्य प्रकार से प्रकाशन] ये मोही बन परिवार के दो तीन जीवो को कभी नहो। सम्यग्दर्शन कहो या आत्मश्रद्धा कहो, या पिमा मान रहे हैं। ये दो-सीन जोब भी तो एक दिन प्रात्मरुचि कहो, या आत्मस्पर्श कहो या आत्मप्रत्यय विदा हो बाएगे। यह मानने वाला भी तो नहीं रहेगा, (पात्मप्रतीति) कहो; से सब एक थं वाचक नाम है। यह भी विदा हो जाएगा । सारा स्वप्न का तो काम है महापुराण ६/१२३] सपादकीय-लेखक विद्वान् ने बड़ा श्रम कर पाठको को अमूल्य निधि दो है, और इस सम्बी निधि को हमने एक ही बस मे पाठको के लाभा अजोयी है। पाठक लाभ ले। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बरत्व और दिगम्बर-मुनि 0 पाचन शास्त्री 'सम्पादक' श्वेताम्बर आगम 'स्थानांगसूत्र' मे सात निन्हव बत- 'एव एए कहिआ ओमप्पिणीए उ निण्हया मत्त । नाए हैं और उनके नायों, आचार्यों के नामो तथा उत्पत्ति वीर वरस्स पवयणे सेसाण पक्यणे नस्थि ।। स्थानों को बतलाया गया है और कथन का उपसहार --विशेषाव.२०१३ करते हरा भी सात का ही निर्देश किया गया है। पर, फिर भी उक्त आजायं ने स्वय की ओर से 'वोटिक विशेषावश्यक भाष्यकार श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने निन्हव' नाम का आठवा निन्हव गतु दिपा । और उसकी अपने भाष्य मे 'वोटिक' नाम का आठवां निन्हव पुष्टि मे रयवीपुर के शिवभूति नामक व्यक्ति को कथा और गढ बिया और उमकी का भी गढ़ दी -जो गढ दी-कि वह गम के मना कने पर भी न । हो गया दिगम्बर मत की उत्पत्ति को पश्चाद्वर्ती मिद करने के और तब से दिगम्बर मत का प्रचलन वीर निर्माण के लिए गढी गई है। पर वह कथा म्वय ही दिगम्बरो की ६०६ वर्ष बाद से हुआ। पर, वे स्वय पह भूल गए कि प्राचीनता को सिद्ध करती है। पाठकों की जानकारी के शिवभति को मबोधन करते हुए उसके गुरु ने उसे यह लिए हम मभी विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं और उन्ही के स्पष्ट कर दिया था कि- सप्रति दुखमा काल मे जिन. आगमो से कर रहे हैं । तथाहि कला व्युच्छिन्न हो गया है यह सत्य है-'सप्रति दुषमासमग्गस्म ण भगवओ महावीरस्स तिथीस मत्त पव- काले म्युच्छिन्नो जिनकला इति सत्यमेतत्'-(देखें टीका यण णिण्हगा पण्णता । तं जहा-नहुरया, जीवपएसिया, ३०७५) इसके प्रागे यह भी कहा है कि जम्बू स्वामी के प्रवत्तिया, सामुच्छे इया, दो किरिया, तेरामिया, अब- बाद निम्न बातें भी व्युन्छिन्न हो गई :द्धिया। ए एसि ण सत्तण्हं पवयणं णिण्हणाण मत्त धम्मा- 'मण परमोघि पुलाए आहारगखवग उसमे कप्पे । यरिया होत्था -जमाली, तिस्सगुत्ते, आमाढे आसमते, मजमतिय के वनिसिझण। य जबुम्मि बोच्छिण्णा ॥ गगे, छल्लुए, गोट्ठामाहिल्ले । एएसि ण सत्तण्ह पवयण -विशेषा० ३०७६ णिण्हगाण सत्त उपपत्तिनगरे होत्या । त जहा-मावस्थी, मन पर्य यज्ञान, परमावविरुत्कृष्टमवधिज्ञानम्, पुलाकउमभपूर, मेयविया, मिहिल, उल्लुगानीर पुरिमंतरजि, लब्धि, आहार शरीरकलन्धिः , क्षयोपशमश्रेरिणद्वयमदमपूर णिण्हग उत्पत्ति नगराई ।।-स्थानागसूत्र अमो- कल्पग्रहणाजिनकल्प , सपत्रिक-परिहार विशुदिसूक्ष्मनक ऋषि सूत्र ८८ पृ०७०८)। माराय-यथारूपातानि, केवलज्ञान, सिद्धगमनं च । एते. श्रावस्ती नगरी में जामाली ने बहुरमन, रिषापुर में जिम्बुनाम्नि सुधम गणषरशिष्ये व्युरिछन्ना -तस्मिन तिष्य गुप्त जीवपएसियामत, आसाढ़ाचार्य ने सेतबिका सति अनुवत्ता: तस्मिन्निर्वाणे व्युण्डिन्ना इति।'-(वही मे अम्बत्तिया मत, गांगेय ने मिथिला मे सामुच्छेइया मत, टीका)। प्रासमित्र ने उल्लकानीर में दो किरियामत, बहुलक ने उक्त संदर्भ में स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि जब पुरमताल में राशिक मन और पोष्ठमाहिल ने दशपुर स्वामी के बाद जिनकल्प' व्युग्छन्न हो गया। ऐसी मे अवधिया मत थापा। अवस्या में यह तो स्वयं ही सिद्ध है कि 'जिनकला' पहिले इन श्रीजिनभावणि भमाश्रमण ने ही उपमहार से रहा। भले ही श्वेताम्बरों की यह मान्यता रहे कि करते हए मात ही संख्या निर्दिष्ट की है । तथाहि-- दिसम्बगल बाद का है। पर, इम मचाई पर कोई परदा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, वर्ष ४७, कि० २ अनेकाम्त नही मल सकता कि लोग अस्तित्व का ही होता है, यदि वस्त्रादि क्यो रखे? 'जिनकल्प' पहिले नही था तो लोप किमका शोर कैगे 'ग्नान राग नेपथ्य वस्त्राणि स्वीकारोतिस । माना जायगा? यो भोगेच्छु' स्वामिनस्तु तद्विरक्तस्प कि हिते।' वस्तु स्थिति ऐसी है कि श्वेताम्बर यह स्वीकार इमसे स्पष्ट ही सिद्ध है कि ऋषभदेव नग्न (निर्वस्त्र) करते हैं कि प्रादि के और अन्न के दो तीर्थकर अचेल थे। (निर्वस्त्र) रहे-नग्न रहे। उनके ऊपर दीक्षा के ममय पाणिपात्र के विषय में विशेषावश्यक भाष्य में लिखा इन्द्र द्वारा दिया देबदुष्प, मदाकाल नही रहा और इसमें 'निम्बम धमघरणा च उनाणाइ सयसत्त सरणा। कोई प्रमाण भी नही है । म विीर का देवदूष्य तो ब्राह्मण प्रच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जिय पगेमहा मब्वे ।। के पास या काटो मे चला गया-गा कयन श्वेताम्लगे - गाथा ३०८३ के 'कल्पसूत्र' में है । फिर कही ऐसा उल्लेख भी नही । जिना जिम निमामधतयो वज्रकट कसमान परिमहावीर को किसी ने पून वस्त्र दिया हो। फलत:-- णामा भवन्ति, नया चतुर्जानिन छद्मस्था: मन्तोऽतिशयदिगम्बरव की मत्यता और प्राचीनता स्वय सिद्ध है। वन्तश्व, तया प्रच्छिद्रपाण्यादय जित पोषहा।' इस विषय मे हमने मन् १९८७ के अनेकान्त किरण ३ मे -गाया ३०८३ टीका काफी प्रकाश पहिले ही डाल दिया है-- वहा देखे । दिगम्बरस्व कारक रूप अनीत सभी चौबीमियो मे श्वेताम्बर साधु भोजन के निा पात्र और शरीर पर । विद्यमान रहा है और दिगम्बर माधु मदा ही अट्ठाईस वस्त्र धारण करते है और दिगम्बर माधु 'पाणि पाव भाजी' मूलगुणधागे रहे है। वे ५ महाव्रत ५ ममिति, पचेन्द्रियथे। इममे भी यह सिद्ध है कि ऋषभदेव स्वय दिगम्बर दमन, पट आवश्यको का पालन करते रहे हैं। केशलोच, थे। तथाहि खडे हो। र आहार लेना, एक बार नवधा भक्तिपूर्वक आहार 'प्रभुरप्य जलुकृत्य पाणिपात्रमधाररत् ।'-२६२ दातुन स्नान त्याग, भू-शयन, नग्न रहना-इन अठाईस 'भयानपिरमः पाणिपात्रे भगवो पपी।'-२६३ मूल गरगो का निरतिचार पालन करने में सावधान रहते ---त्रिषष्टिश पु च. (आदीश्वर चरित्र, पर्व रहे है। बाईस परीषहो मे समाविन परीषहो को महन ., सर्ग ३ श्लोक २६२, २६३ करते रहे है . दिगम्बर माधु के विषय मे लिखा है किश्वेताम्बर प्राकृत कोश अभिधान गजेन्द्रीयह सकेन 'मुण्णहरे तम्हटठे उजनाण तह ममाण वासे वा । भी स्पष्ट है कि ऋषभदेव नग्न थे। - यहि गिरि गुह गिरिमिहरे वा भीमवणे अहव वसिमे वा ।। 'भगव अरहा उमभे कोमलिए मच्छर साहिय सवसामत्त तित्थ वन च इदा लत्तय च तेहि (?) चीवरधारी होत्था ।'--'उमहेण अग्हा कोमलिए संबच्छर जिणभवण अहवे ज्झ जिणमग्गे निगावग विति । सायि चीवरधागे होत्या तेण पर अचेनए।' पचमहन्वय जुता पंचिदिय सजया णि गवेक्खा । अभि. श पृ. ११३२ उन्म झाणजुत्ता मुणिवरवसहा णि इच्छति ॥' भगवान अरहत ऋषभदेव कौशल मे माम अधिक -वोधप्रामत ४२-४४ एक वर्ष (मात्र) वस्त्रधारी थे और वह देव दूष्य वम्प दीक्षा मुनियो को शन्य घर मे, अथवा वृक्ष के नीचे अथवा के समय इन्द्र ने दिया था। उद्यान में, अथवा स्मशान भूमि मे अथवा पर्वतो की गुफा हेमचन्द्र के विपष्ठि शलाका पुरुषचरित आदीश्वर में, अधवा पर्वत के शिखर पर, अथवा भयंकर वन मे, चरित्र पर्व १ सगं ३ श्लोक ३१३ मे राजा श्रेम द्वारा अथवा वसतिका मे रहना चाहिए । ये मभी स्थान स्वाधीन ऋषभ की प्रशसा मे लोगो से कहा गया है कि - जो भोगो है। अपने अधीन हो, ऐसे तीर्थ, चैत्यालय और उक्त स्थानो का इच्छुक होता है वह स्नान, राग और वस्त्रो को स्वी- के माय-माथ जिनभवन को जिनेन्द्रदेव जैनमार्ग में पवित्र कारता है। प्रभु ऋषम तो भोगो मे विरत है-वे (शेष पृ० २५ पर) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-संस्कृति-साहित्य की रक्षा : एक चिंतन -- डा० रामेन्द्र कुमार बंसल आत्म-धर्म अनादि और शाश्वत है जो जीव और जड़ कारण कुछ मरकृति यिरोधी प्रवत्तियां पनपी हैं जिन पर के सम्बन्धों की व्याख्या करता हुआ शुद्धता का मार्ग यदि तन्काल नियत्रण नही किया गया तो उसके फमित बताता है। श्रमण-संस्कृति का मूल आधार है वीतरागी दुष्परिणाम पातक सिद्ध होगे । व्यक्ति का व्यक्तित्व तो देव, वीतरागी गुरु और वीतरागता-पोषक शास्त्र । वीत- उम्र समाप्ति पर विस्मति के गर्त मे चला जाता है किन्तु रागता के तत्व के कारण यह तीनो त्रिकाल, पूज्य और उसके इतिहाग एवं सस्कृति-विरोधी कृत्य समूची मानवता वंदनीय हैं। यदि कोई देव, गुरु या शास्त्र समग्र रूप से को प्रनावित करते रहते है। प्राचीन आचार्यों द्वारा वीतरागता का पोषण या प्रतिनिधित्व नहीं करते तो वे लिखित आप-ग्रन्थो मे मशोधन, खडित मूर्तियों को पुन: वंदनीय होने की पात्रता खो देते है । वदना पात्र की नही, उकेरकर पुनः प्रतिष्ठापित करना, मूर्ति-तस्करी, एवं गुणों की होती है । इमी दृष्टि मे जैन समाज मदेव में इस माहित्य में वर्णित भावो के विपरीत भावो का प्रकाशन, ओर सजग रहा है कि उसके इस विश्वाम मे कही स्खलन कुछ गाधनी द्वारा प्रकट मे गृहस्थोचित कार्य कर २८ मूल न हो और कहीं कोई ऐसा कार्य जाने-अनजाने में न हो गुणो की खुली विराधना करना, रागात्मक साहित्य का जाये जो वीतरागता एव वीतराग मार्ग के विपरीत हो। प्रकाशन, अनेक गजरथों का चलवाना आदि कुछ ऐसी इस सम्बन्ध मे जैन सस्कृति की परम्पराबद्ध सुनिश्चित प्रवत्तिया है जो जन-सम्कृति को चुनौती बन गयी हैं। यदि धारणायें एव व्यवस्था है जो उसके मूलस्वरूप के अस्तित्व यह कार्य इतर-धार्मिको द्वारा किए जाते तव बात उतनी को बनाये रखे है, यद्यपि समय-समय पर आततायियों एवं भयावह एव नाजुक नही होती जितनी अभी है क्योकि शिथलाचारियो के कारण उसमे स्खलन हुआ है, फिर भी यह कार्य उन व्यक्तियो एव संस्थाओ द्वारा किये जा रहे वह दीर्घकालिक सिद्ध नही हुप्रा । है जो जा-मकान के कथिन रक्षक/पोषक है और जिन्हे हाल ही मे कुछ नया कर गुजरने की भावना के किसी साध का आशीर्वाद प्राप्त है। बड़ी विचित्र बात है, ममुद्र मे आग लगी है, बुझावे कोन और कैसे? (पृ० २४ का शेपाश) र आर्ष-ग्रथों में संशोधन परिवर्तन मानते हैं। पाच महाव्रतो के घारक, पाचो इन्द्रियो को जीतने वाले, भोगो की इच्छा से रहित और स्वाध्याय तथा प्राचीन आचार्यों ने त कालीन प्रचलित जन-भाषा में ध्यान में लगे रहने वाले श्रेष्ठ मुनिवर उक्त स्थानो को माहित्य का निर्माण किया । यह जन-भाषा प्राकृत, जनही दसन्द करते हैं। शौरसेनी आदि के नाम से चिह्नित की गयी। तत्कालीन इसके अतिरिक्त वेदो आदि हिन्दु प्रयोब बौद्ध ग्रन्थो भावलिंगी मती ने, स हित्य रचना के समय भावानुकल मे ऐसे अनेक प्रमाण हैं जो दिगम्बर मत की ततालीन प्रचलित शब्दो का गाथाओ मे उपयोग किया। अध्यात्मप्राचीनता को सिद्ध करते है कि दिगम्बर मुनि ऋरमदेव काव्य-रचना करते समय आचार्यों को व्याकरण, जो प्राय: के समय से निरन्तर विद्यमान रहे है और दिगम्बर बाद में बनता है, की मुद्धता-अशुद्धता ध्यान मे रखकर मान्यतानुसार इस कान के अन्त तक किसी न किसी रूप काव्य रचना करना इष्ट नही था। उन्होने तो लोकमे विद्यमान रहेगे। यह दिगम्बर मुनियो का भागमोक्त भाषा मे रचनायें लिख दी। यही कारण है कि एक हो प्राचीन रूप रहा है। रचनाकार ने मुविधानुसार एक ही ग्रन्थ में एक ही भाव Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष ४७, कि० २ अनेकान्त बोधा अनेक शब्दो का प्रयोग किया जैसे होदि, होइ, सम्पादकगण एवं संस्थायें विद्वत परिषद की भावनाओ का हवइ, हदि, हवेई आदि । यह शब्द आध आध्यात्मिक महत्व समझकर आगम/मार्ष-ग्रन्थो को विकृत होने से कवि एव चिार्य न्दवन्द की रचनामी में प्रयोग किा बचाने में सहयोग देगे। गये हैं। हाल ही में कुन्द भारती दिल्ली द्वाराचाय "वर्तमान काल में मल आगम ग्रन्थों के सम्पादन एवं कुन्दकुन्द को वन ओ का प्रकाशन किया गया है जिसमे प्रकाशन के नाम पर ग्रन्थकारों को मल गाथाओ मे परिमम्पादन एवं व्याकरण की शुद्धि नाम पर मल गाथाओ वतन एवं सशोधन किया जा रहा है जो भागम की मे मगोधन/परिवतन किया है। यह कार्य किमी भी दष्टि- प्रमाणिकता, मौलिकना एवं प्राचीनता को नष्ट करता कोण मे चि- नही है। प्राच्य रित्य व इनिहाम की है। विश्वमान्य प्रकाशन संहिता में व्याकरण अन्य दष्टि में यह कयं अप घरी जावेगा। किमी प्राधार पर मात्रा, प्रक्षर आदि के परिवर्तन को भी गतान भबार में मोई धर्मग्रन्थ नही लिखा/ मल का घातो माना जाता है। इस प्रकार के प्रयासो से लिगवाया । ग धर, अ'च यं पगप से हमे धर्म साहित्य अन्धकार द्वारा उपयोग की गयी भाषा की प्राचीनता का विरासत में लिया। मे यथावन शुद बना रखा लोप होकर भाषा के ऐतिहामिक चिह्न लुप्त होते है। जैन समाज औ. रमन नागकी का कर्तव्य । अनाव आगम/आर्ष ग्रन्थो की मौलिकता बनाये रखने के कृगनगरीप, राम धर्म का मनधर्म पन्थ है। उद्देष मे अ. भा. दि. जैन विद्वत परिषद विद्वानो, इमकी आय को पाने परत मोम्म . साहब। मम्पादको, प्रकाशको एक उन ज्ञात-अज्ञात महयोगियो से माध्यम में उतरी थी बसला अनुवाद उर्दू व अन्य साग्रह अनुरोध करती है कि वे आचार्यकृत मूलमन्थो मे भाषाओ मे दिया गया। चौदह सौ ६ को नम्बो यात्रा भाषा, भाव एव अर्थ-सुधार के नाम पर किसी भी प्रकार मे अभी न : कुरान शरीफ में एक नुस्ते का भी हेरफेर का फेरबदल न करें। यदि कोई संशोधन/परिवर्तन माय नही हआ। कगन शेफ गाण की दृष्टि से परिपूर्ण श्यक समझा जाये तो उसे पाद-टिप्पण के रूप में ही रचना है या नही, यह प्रश्न म.न्तपूर्ण नही है। प्रश्न दशांपा जाय ताकि आदर्श मौलिक कृति की गाथायें धर्मग्रा की विTIT के पाग क..:ोविणाल यगावन ही बनी रहे और किमी महानुभाव को यह कहने मग्लिम समाज के हदयो में विधान है। हम गौतन का अवमर न मिले कि भगवान महावीर स्वामी लेकर आगामी आचार्य परम्पराको प्रमाणिता निर्वाण के ५०० वर्ष उपरान्त उत्पन्न जागरूकता के की नमरते नही पाते किन्तु उनके द्वारा रचित धर्म- बाद भी मल आगमो मे सशोधन किया गया है।" गयोबा माविक छिद्रान्वेषण करने में भी नहीं प्राचीन मतियों का जीर्णोद्वार एवं गजरथ महोत्सव: चकते। - 01: कि हम अपने को आचार्यों मे देवदर्शन थावकों की दैनिक आवश्यकता है। इस अधिक श्रेष्ट-द्वान सिद्ध करने तु उनी प्राचीन रहश्य हेतु जिन-मन्दिरों का निर्माण किया गया/किया रचनामा रण को शुद्धि के नाम पर परिवर्तन/ जाता है। मदिर निर्माण के साथ पचकल्याणक प्रतिष्ठा सशोधन मदत के बाहर जाकर कर रहे है । साहित्य समारोह भी होग है। हाल ही एक दशक से त्यागी वर्ग शटिकरा के मे प्रयोग किसी भी क्षेत्र में नही किर के कुछ महानभवी को ऐसी धून सवार हो गयी है कि वे गये। अखल भारतवर्षीय विद्वत परिषद का ध्यान इस जीर्णोद्वार के नाम पर अतिप्राचीन कलात्मक मूर्तियों को महत्वपूर्ण प्रकरण की ओर गया और उसने अप: खरई छनी-हथोड़े से तराश कर विकृत/बेमेल बनाकर उनकी अधिवेशन मे दि. 1क २८-६-६३ को निम्न प्रस्ताव स्वीकृत प्रतिष्ठा करवा रहे हैं । यवनो के विनाश से जो कुछ बचा कर प्रकाशको एव लेखको मे अनुरोध किया है कि वे था, उसका विनाश अब हमारे ही हाथो हो रहा है। पार्ष-ग्रन्थो मे संशोधन करने से विरत रहे । प्रस्ताव भोली-भाली जनता इन सब बारीकियों एवं उनके महाय निम्न प्रकार विश्वास है कि जैन समाज के विद्वान, को नही समान पाती त्यागियो को प्रमाणिक मापकर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति साहित्य की रक्षा : एक चिंतन २७ उनके आदेशानुमार अपनी अजित धनराशि धार्मिक कार्य समाज का करोडो रूपया लग रहा है। बागोदा एव के नाम पर दान मे दे देती है। धर्म-प्रभावना का क्षेत्र मुगावली मे ३३, जबलपुर एव देवगे ५-५, अशोक भी मर्यादित है। देवगढ, मेरोनजी, चन्देरी आदि के नगर मे ७ गजरण चले । जब ललितपुर में गजरथ चलाने प्राचीन कलात्मक क्षेत्र इस कृत्य के शिकार हो गये। इम को तंगारी हा रो। जता ३.५ ७ ग. रथ चले वहा प्रवृत्ति को रोकने हेतु अखिल भारतीय जैन विद्वत पर द मर्वेक्षण करने ना जरूरत है 'क इन नाममनोग समाज ने पुर्रा अधिवेशन में निम्न प्रस्ताव पारित किया जो का कितना धन-जन का यहुआ और समाज या सम्याओ अनुकरणीय है को इमने कितनी क्या उपमान हुई। यह वा. जोप __ "वर्तमान काल मे जैन समाज में कुछ ऐमी प्रवृत्तियों है कि कदम धन का उपयोग शिकत्सा, स्वास्थ्य, प्रारम्भ हो गयी है जिनमे प्राचीन कलाकृति पो, मनियो निधन माायता, 'प-निबाण, पगे।11', णुद्ध आहारमोर पुरातन शिल्पावशेपो को जीर्णोद्धार कर पुन प्रनि- स्था, काम के य .:/4 कर स्थायी ष्ठित करने के नाम पर मनमाने ढग मे काटा-छाटा जा लाभ 11.1 जागरता है। रहा है जो उनकी ऐतिहासिकता व उनके मल स्वरूप पर एक 'पच . ल्या. क माय इ.1.1 At कान भाषात है। देवगढ़, सेरोन एवं चन्देरी आदि स्थानो पर पाका ओय है। जनतो गमनागमभिरा" इसी प्रकार के भागमविस्द्ध कार्य किए गये जिनमकना नेला मीन- नि.पं. दीपा में कृतियों पर अकिन चिह्नो के स्थान पर नये चिह्न अकिन ठहरहा। दस प्रत । प्रजाकिए गये हैं। कही-कही तो इम प्रकार के कयों में त्यागी हिना और पानामनी गानुपादक वर्ग की प्रेरणा एव सक्रिय सहयोग भी लक्षिन होता है। काय? म ममा l धन व्यय होगा। विगान इस प्रकार के भागम-विरुद्ध कार्यो से हमारी सस्कृति और हाथी-समूह से जन रक्षा गुरक्षा की ममता पैदा होती है। कला की जो हानि हो रही है वह अक्षम्य है । अतः विद्धन कभी-कभी हागो-उन्माद में निरसा भी हो परिषदका सभी त्यागियो व श्रावको से यह सविनम्र अनुरोध जाती है जमी जोक नगर में याद किमी का कहीहै कि इन प्राचीन कला-कृतियो व पुरातन शिल्पावशेषो के कुछ-करने की तमन्न, है तो उन्ह चाहिये कि उचित सरक्षण मे सजग सहयोग प्रदान करे।" वेशधारण कर धर्म या समान के न्याण का कार्य गरे । पचकल्याणको के साथ गजरथ चलवाकर 'सिंघई", इममें वीतरागी चिह्न का दुपयोग व बलन सक "सवाई-सिंधई" की पदवी देने की प्रथा चन्देरी में चली जायेगा । विश्वास है 11 समा। क. प्रवीजन इन बिंदुओं यो । गजरथ चलवाना कोई धार्मिक-क्रिया का अग नही पर मम.कणिप लेंगे जोर जपत धन का मानवहै यह तो मात्र धन-प्रदर्शन का तरीका था जिसे ध मिक- सेवा/पाणी सेवा के क्षेत्र में करन का विचार करेंगे। किया से जोड़ दिया था। पहले गजरय महोत्मव यदा कदा दर्शन भाव में हाथियोपारियो पा गये करोडो होवा करत थे और वह भी किसी परिवार विशेष द्वारा रुपये के व्यप म कोई धर्म नही गोता भा ही प्रे पादाना चलाये जाते थे, अब इनका स्वरूप शुद्ध व्यवसायिक एव एव व्ययकर्ताओ के अह नी नुष्टि होती हो, यह पृथक मत्र प्रदर्शन का हो गया है। पहले एक पचकल्याणक के बात है। साप एक गजरथ चलता था, अब एक पचकल्याणक के प्राचीन मंदिरोंके स्थान पर खले परिसरका निर्माण : साथ बनेकों गजरथ चलाए जाने लगे है। गहत्तीजन पहले मूर्तियो की रक्षा सुरक्षा का टिम मदिरा का होड़ लगाकर मामहिक रप से एक गजरथ के स्थान पर निर्माण इम ढग मे किया जाता था f: २०-२५ फोट उत्तरोत्तर बढ़ती संख्या मे गजरथ चलवाने की कीर्तिमान ऊनी विशाल मूरि या शिखर महिन म.द. एक मामान्य स्थापित कर रहे हैं। एक साधु महानुभाव तो अब श्री मंदिर जमा लगता था। दूर म कार्टनर कपना भी नहीं गजरबसायर ही कहलाने लगे हैं। इन गजरयो में करता . दरम1111शिलाँ'वया। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९, बर्ष ४., कि०२ अनेकान्त पूजा-दर्शन आदि की सुविधा की दृष्टि से ऐसे मदिरों के स्वणिम-चरागाह सिद्ध हुआ। तस्करी एवं पंचकल्याणक स्थान पर विशाल भवनो का निर्माण किया जा रहा है। का भायोजन दोनो एक-दूसरे के पूरक हैं। मंदिरो से इस व्यवस्था से विशाल मूर्ति खुले में आ जाती है जो मूर्तियों की चोरियों एवं बडी मतियो के सिर काटने की सुरक्षा की दृष्टि से सर्वथा अनुपयुक्त एव अवरोध रहित घटनाये होती रहती है। हम पुलिस रिपोर्ट और दुकानें है। अब जबकि जैन मतियों एवं जन-सस्कृति को जैनो से बन्द कर अपना कर्तव्य पूर्ण कर लेते हैं किन्तु समाज एव हो खतरा पैदा होने लगा है उनकी सुरक्षा की समस्या त्यागीवर्ग मे इतना नैतिक साहस नहीं कि वे मूर्ति तस्करी बढ़ गयी है । दिनांक २५.६.६३ को बुदार नगर के मदिर । दनाक २५-६-६३ का बुदार नगर के मदिर के जानकार महानुभावो का हृदय परिवर्तन या बहिष्कार में एक जैन नवयुवक ने इस स्वप्न के अनुसार कि उसके द्वारा मति तस्करी को हतोत्साहित करें। निश्चय-व्य संकट दूर होगे पांच जैन मतियो को माइक के राड से के नाम पर कटु से-कट पाब्द उपयोग किसी भी प्रसंग निर्ममतापूर्वक खण्डित कर शास्त्रो को फाड दिया। यदि प्रवचन में सुनने को मिल जावेंगे किन्तु धर्म-संस्कृति की वेदी-मूर्तियां आवृत्त होती तो सभवतः ऐसी दुर्घटना रक्षा के नाम पर दो शब्द भी नही मिलते। प्रसन्नता सरलता से नही घट पाली। धार्मिक-विद्वेष के उन्माद एव की बात है कि दिगम्बर जैन महासमिति ने इस पीडा को अन्य कारणो से मतियों की सुरक्षा हेतु यह आवश्यक है समझा और दिनाक ३.-१२-६० को जयपुर अधिवेशन मे कि प्रथमतः प्राचीन मदिरों का मूल-स्वरूप न बदला जाये निम्न प्रस्ताव पारित कर मति-तस्करी के विरोध मे और दूसरे जहां विशाल मूर्ति को अनावृत्त कर दिया है अपना दृढ़ संकल्प स्पष्ट किया। जरूरत है कि समाज वहाँ तत्काल कोलेपसेवस-गेट लगाकर मूर्ति को सुरिक्षत कर दिया जाये जैसे धूवोनजी, आहारजी ग्रादि, तीमरे एव संस्थाए इस प्रस्ताव के अनुसार कार्यवाही कर अपना बदि प्रवचन हेतु विशाल हाल बनाया जाना आवश्यक है मूति-तस्करी-विरोधी सकल्प प्रमाणित करें। यदि ऐसा वो उसका निर्माण मदिर से पृथक किया जाये। नहीं हुआ तो दक्षिण भारत का मति-वैभव भी हमारे देश से लुप्त हो जावेगा। इस सम्बन्ध में सम्माननीय स्वस्ति मूति-तस्करी से सुरक्षा : श्री चारुकीति भट्टारक स्वामी श्रवणबेलगोल का भी विगत तीन दशको से भारत मे मतिरकी का ध्यान आकषित किया है। उद्योग खुब पनपा है। जैन-सस्कृति ऐमे तस्करी के लिए ओ०पी० मिल्स अमलाई-४०४ : ११७ -भक्ति-परक सभी प्रसंग सर्वाङ्गीण याथातथ्य के स्वरूप के प्रतिपादक नहीं होते। कुछ में भक्ति-अनुराग-उद्रेक जैसा कुछ और भी होता है। जैसे- 'शान्तेविधाताशरणं गतानाम्', 'पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः', 'श्रेयसे जिनवृष प्रसीद न.' इत्यादि । इन स्थलों में कर्तृत्व को स्पष्ट पुष्टि है जब कि आत्म-स्वभाव इससे बिल्कुल उल्टा। ऐसे में विवेक पूर्वक वस्तु को परखना चाहिए कि वक्ता को दृष्टि क्या है ? x -तू जानो, धनो या कहीं का कोई अधिकारी है, यह सोचना महत्त्वपूर्ण नहीं। मपितु महत्वपूर्ण ये है कि तूने कितनों को जानो धनी या अधिकारी बनने में कितना योग दिया: 'जो अघोन को आप समान। करेन सो निम्वित धनवान ॥' Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सेसई का शान्तिनाथ मन्दिर" श्री नरेश कुमार पाठक सेसई मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले को कोलारस नवीन रूप दे दि : गया है । ले कन मन्दिर के गर्भगृह का तहसील में स्थित है। आगरा-बम्बई मार्ग पर ग्वालियर द्वार प्राचीन दी है। ल-विन्स मे गर्भगह मण्डप एवं से १३२ किलो मीटर एव शिवपुरी से २० किलो मीटर प्रदक्षिणापथ में विभाजित है। ऊर्य विन्यास मे जगति, की दूरी पर सेसई ग्राम है। यह ७७°३७' पश्चिम, जघा एव शिखर है । मन्दिर का गर्भगृह मादा हैं, जिसमे २५.१६' उत्तर में स्थित है। समुद्र की सतह से ऊँचाई कोयोत्सर्ग मुद्रा में नीथंकर शान्तिनाप की विश लकाय १७३६ फीट है। यहां से गुप्तलिपि मे उत्कीर्ण स्मारक प्रतिगा प्रतिष्ठापित है। पास में ही एक अन्य तीथंकर स्तम्भ लेख जिसमे कुछ ब्राह्मण युवको द्वारा किसी युद्ध मे प्रतिमा पद्यानन मे बैठी है। गर्भगह के द्वार की देहरी मारे जाने तथा उसकी माता द्वारा दु.ख से जल मरन का पर लडने हए गज, सिंह पुजक एव पूर्ण विकसित कमल उल्लेख है। यहां से एक अन्य ६वीं शताब्दी ईवी का लिए है। द्वार गाना में दोनों ओर नदी देवो गगा-यमुना स्मारक स्तम्म लेख है। जैन मन्दिर के पश्चिम की आ. एव युगल प्रतिमा गोरा अनि है। सिरदल पर पद्मासन मे स्मारक स्तम्भ जिस पर लगभग ६-७वी शताब्दी ईसकी नीयकर बैठे हुए है, जाप्रमण्डल स पलकृन है। पादका लेख उत्कीर्ण है। लेख मे एक माता द्वारा अपने पुत्री पीठ पर विशन .. म मुखकिय सिंहा का अकन है। के युद्ध मे मृत हो जाने के शोक मे आत्मदाह करने का ऊपरी पाट्ट ITTI . पसार एवं ना कायोताग मुद्रा उल्लेख है। स्मारक स्तम्भ के निकट २रो शती म्मार में जिन प्रतिमा वाम कारा पाट्टका पर नवजिस पर अस्पष्ट लेख उत्कीर्ण है। विक्रम संवत् १३४(:) गह यक्षणी चोप यादवा सरस्वती एव अन्य (ईस्वी सन् १२८४) का सती प्रस्तर लेख जिममे मलय- प्रतिभाओ का अ ण्ड । द्वार स्तम्भ घटपल्लव देव की मत्यु तथा मती का उल्ख है। सती स्मारक के एव कीवोमबलका। पीना और के स्तम्मी पर दक्षिण की ओर प्राचीन बावडी के भग्नावशेष' गाँव के दोनों पापर्व मनापान, जो एक भुग म चावर एव दक्षिण-पश्चिम में प्राचीन शैव मन्दिर के भग्नावशेष व दूसरी भजा पाप है, यह कुण्डल, गया , कयर, लगभग १०वी-१२वी शताब्दी ईस्वी का सूर्य मन्दिर है। बनय, मेखताव बनाने धारण किया है। स्तम्भो के इन्ही मन्दिरों के पास लगभग ११वी-१२वी शताब्दी ईस्वा दोनो ओर काल्पग म जिन प्रा.मा एव मालाधारी के जैन मन्दिर के अवशेष है।' विद्याचगेका अनि है। इनी मन्दिरका एजप्रतिमा यह मन्दिर दिगम्बर जैन मन्दिर नौगजा अतिशय कायात्सर्ग मुद्रा में निाम गूर्य मन्दिर म रखी है। यह क्षेत्र के नाम से जाना जाता है । मन्दिर पश्चिमाभिमुखी मन्दिर काफी महत्वपूर्ण है, जिमा विस्तार में अध्ययन एव तक र शान्तिनाथ को अपित है। प्राचीन मन्दिर आवत क है। इसके अलावा जिला मग्रहालय शिव [ मे काफी नष्ट हो जाने के कारण उसका जीर्णोद्धार कराकर यहाँ की दो तीर्थ र सिमा सुरक्षित है। सन्दर्भ-सची १. ग्वा. पु. रि. वि. सवत् १९८६ पृष्ठ ३७ । वि. मा १६७१ क्रमाक २१ । , १९२६-३० पृ. २६-६३ । ६. , , १६२६-३० पृ. २६-६३ १६१६-१७ १६१४.१५ * ; Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य को पहचानिए "हमारे साथ जो हाक्टर विद्वान थे, जिन्होने पहनी गत दिनों हमारे पास एक नेता का पत्र आया है कि बार साधु संघों में कुछ ऐसा देखा, जो वीतरागता के फेम 'क्या गत्य है और क्या असत्य इसका कभी कोई मूल्याकन में फिट नही बैठता, उन्होने कुछ दशो पर साश्चर्य वेदना इस समाज मे नही होगा।' व्यक को। हमने उनसे इतना ही कहा उक्त सभी प्रसग सामाजिक मनोदशा एव त्याग की रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय। बिगडी स्थिति को जिस रूप में प्रस्तुत करते हैं वह सर्वथा सुनि अठिलंहें लोग सब, बाटि न लहें कोय ॥" । चिन्तनीय है पर हम निराश नहीं हैं। हमारी दृष्टि तो -जैन सजट, सपादकीय ३० जन ६४ इसी समाज पर लगी है । हम यह जानने के ही प्रयत्न मे उक्त विचार एक प्रबुद्ध सपादक के है। सपादक है कि क्या वास्तव में ही समाज अच्छे बुरे की पहिचान में जी स्वयं चारित्रवान् और सच्चारित्र समर्थक है. नाकारा है? यदि ऐसा होता तब न तो पं० नरेन्द्र प्रकाश उन्हें मुनि पोर श्रावक की चर्या का भी पूरा ज्ञान जी ही गत्य मनोभावना उजागर करते और न महासभा है। वे धर्म-संरक्षणी विशेषण-युक्त महासभा के ही पू०० शान्निसागर जी को मान दे-अकलीकर प्रतिष्ठित सक्रिय कार्यकर्ता भी हैं। उनके उक्त कथन में प्रमग के पटाक्षेप की बात कहती। कितना दर्द और कितनी वेदना है-इसे पाठक महमूम करें। इसी लेख में उन्होने समाज के प्रति भी लिखा स्मरण रहे लोग असलियत भी समझते है -हाँ, धर्म भीगत्व, अन्धधता, स्वार्थपरता और बुराई उजागर 'एक दूसरे के सनमे-समझने की पद्धति का अभी होने का आत आदि उन्हे मोन के लिए प्रेरित करते हैं। अपने समाज में विकास नहीं हुआ है।' और उनकी इमी कमजोरी का गलत फायदा उठाकर कुछ इसी प्रकार दिगम्बर जैन महासभा ने अपने लखनऊ लोगो ने परपरित मूल-आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विहिन अधिवेशन में चा० च० पू० प्रा० शान्तिसागर महाराज श्रावक व मुनि के आचार को मिट्टी खराव कर रखी है। को इस सदी का प्रथम आचार्य घोषित कर अकलीकर और दिगम्बर विहिन दिगम्बर-धम दिनो-दिन क्षीण हो प्रसम के पटाक्षेप की कामना की है। स्मरण रहे यह रहा है। पाशा है कुछ प्रबुद्ध-!न धर्म-रक्षण रूप यज्ञ कलहकारी प्रसंग भी किन्हीं पूज्य मुनिराज द्वारा ही। प्रारम रंग और आहुति डालेग। ताकि दिगम्बरस्व की उछाला गया है। सच्चाई को उजागर करने के लिए रक्षा हो। महासभा को धन्यवाद । -सम्पादक मत परिग्रह कर यहां कुछ थिर नहीं है, व्यर्थ है संग्रह, जरूरत चिर नहीं है । हो सको अपना न बोलत रूप सो मो, मौत से पहिले निजी तन, फिर नहीं है। 'छयस्थ-लौकिक पुरुष चाहे कितने भो प्रसिद्ध विद्वान क्यों न हों ? उन सभी के सभी लेख, वार्तालाप सैद्धान्तिक-प्रसंगों में जिनागम का रहस्योद्घाटन नहीं करते-उनमें कुछ और भो हो सकता है। अतः ज्ञानी पुरुष प्रमाण और नय को कसौटी पर परखकर हो उनको हेयोपदेवता का निर्णय करते हैं। वे उनके मन्तव्यों को प्रचारित मी तभी करते हैं।' Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा-सोचिए १. दिगम्बरत्व की रक्षा एक समस्या: अपनी अयाचीक वृत्ति को भी लांछिन करते हैं, बादि। इसी अंक मे दिगम्ब रत्व के प्राचीनत्व को दर्शाया ऐसे मे हमारी भावी पीढी भविष्य में अवश्य कहेगी कि गया है और वर्तमान समाज के समक्ष उसकी रक्षा का हमारे बुजुगों ने हमें ऐसे ही दिगम्बर दिए और ये हो उत्तरदायित्व है। यतः वर्तमान काल में उक्तरूप मे धोरे मच्चे गुरु के रूप हैं, आदि। धीरे शिथिलता आती परिलक्षित हती है और कहीं-कही मोचिए उक्त स्थिति में क्या हम दिगम्बरत्व के उस तो उसके नियमो के पालन मे विरूपता भी दृष्टिगोचर प्राचीन का को खो न देंगे जो ऋषभ और भगवान महाहोने लगी है। यदि ऐमा ही चलता रहा तब इममे मन्दह वीर का है ? ऐसे मे क्या हम कह सकेंगे कि हमारा आगमनही कि दिगम्बरत्व की प्राचीनता पूर्णरूप में नवीनता हित प्रावीन दिगम्बरवरूप यही है? का रूप धारण कर ले और दिगम्बत्व का ऐमा वैभाविक स्मरण रहे कि आज के कुछ नवयुवक और वयस्क (दोषपूर्ण) रूप ही भविष्य में प्रानीन दिगम्बर कसला भी बडे गावधान है। वे बातो को गहराई मे मोचते है। यदि ऐसा होता है तो यह अवश्य ही उन वकानी धम उग दिन बाहर से पधारे कुछ युवको ने हमे घेर लिया पति मरान कतघ्नता होगी जो अपने सामारिक भयो और चर्चा करने लगे कि-कोई-कोई मुनिराज एकही की वादि देत प्रकारान्तर से दिगम्बरो को विरुद्ध मार्ग पर शहर मे वर्षों डेरा क्यों डाले रहते हैं, जब कि कहा जाता बलने के साधन जुटाते रहे है और अब भी दूभरा का है कि पानी बहता भला और साधु चलता भला।' कहमे का अवसर देने का सामान कर रहे है कि ये दिगबर बोले-आचार्य विद्यासागर जैसे कुछ मुनि तो ऐसे भी है तो उनके देखते-देखते इसी कार की उपज है। जो यदा-कदा ही अल्पकाल के लिए शहरो मे जाते हैंयह बात किमी से छिी नही है कि कई ब ह्य वेष साधारण स्थानो मे ही अधिक भ्रमण करते हैं । पोर भी धारी व्यक्ति आगमानुरूप आचरण का तिरस्कार कर नकी शास्त्र-विहित बहुत सी क्रियाओ का उन युवको ने मनमानी यथेच्छ प्रवृत्तियो में लग रहे हैं और यदा-कदा वणन किया। समाचार पत्रों में भी ऐम समाचार देखने में अन्न है। हमने कहा-शहरों का वातावरण अधिक दूषित यदि आचार में मनमानी स्वच्छन्द प्रवृत्तियो में विस्तार होना बनिस्वत देहातों और कस्बो के। ऐसे में जो साध होता है तो यह धर्म-रक्षा के प्रति अत्यन्त चिन्तनीय अधिक शाता और परोपकार की भावना रखते हों व होबा। जन-सुधार के लिए यदि शहरो मे डेरा हाले रहे तो जनता जब हमारे पूर्वजो ने हमे चारिच चक्र if आचार्य का लाभ ही है-सुधार ही होता है। निमार जी के दिगम्बर रूप के दर्शना का सौभाग्य व बोले-यदि ऐसा है तब तो आप ही बताइए कि प्राप्त कराया था वह सच्चा दिगम्बर रूप था। तब आज पहले जिस शहर मे प्रावक के साधारण नियम (रात्रि म अपनी भावी पीढी को आज के पतिपय ऐसे दिगम्बर भोजन त्याग जैसे नियम) पालको को बितनी सख्या घी, हैरहे, जो कुन्दकुन्द के वचनो की अवहेलना कर, सुख- उन शहरों में इनके रहने से उस सख्या मे किसमो बरि सविधायुक्त स्थानो को चुनते हैं, एकान्तवाम (विदित हुई ? ऐसे ही अन्य धार्मिक माचार पासकों की सध्या सन्यासन) नकर भीड से घिरे रहते हैं। कुछ तो धर्म- भी देखिए । हमे तो उस सख्या में शिके स्थान पर प्रचार संस्थाबादि के मामो पर चन्दा-चिट्ठा कग ह्रास ही अधिक दिखा, उल्टे श्रावको में शिथिलताको Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, षष ४७, कि. २ अनेकान्त बढवारी दिखी। यह कैसा प्रचार ज पल्लाझाह श्रोता मे मोचें और अपने खान-पान आदि मे भी श्रावकोचित हो और याचार के नाम पर शुन्य । कार्य करे। वे आगे बोले-प्रचार मनमाहक भाषणो की २० से २. स्वागत की विडम्बना: अपेक्षा स्वयोग्य शास्त्रावहित आचार के पालन में स्वागत शब्द वडा प्यारा है। ऐसे विरले ही व्यक्ति अधिक होता है। और वास्तव में ब भाचार में धार होगे जो स्वागन के नाम से खश न होते हों. मन ही मन न हो तब प्रचार का महत्व बापणो से जिनके मनों में गुदगुदी न उठती हो। प्रायः सभी को ही धर्म-प्रचार हान--होगदम्बगेको मलगण इममे खुशी होती होगी-भले ही दूसरों का स्वागत होते गभित 'भापा ममा मि (-1) पान पर अनि देख कम और अपना होने पर अधिक स्वागत अबलोकबोलना होला । पर, मानी है। वं बाल -- हम तो व्यवहार जमा बन गया है जो नेता, अभिनेता या अन्य व्यवहार जमा बन गया है ज इममे उन श्राव ही दोगामागी... मतमो जनों के उत्साह बढाने के लिए, उनसे कोई कार्य साधने के दिगम्बरल की मेनारे भी पारिक नोयत बरतत है। लिए भी निभाया-सा जाने लगा है। खैर, जो भी हो बे धतूरे का फूल ढा र महादे। गे - टूट धन-सम्पदा परम्परा चल पडी है-कोई स्वागत न भी करना चाहे चाहने जसे वरदान की नन दिगम्बगे तो उसके स्वागत करने को गोटी बिठाने की। लोग को अपने निवामो का पवित्रता और काली-वद्धि जैम गोटी बिठाए जाते है-कभी न कभी तो सफलता मिल आशीर्वादो को नाम निर्मोही परी मांजाल फैकते हो जाती है और यदि न मिली तों मिल जायगी। है। और उनसे माफी पर सब "मौन महमति देने मे बडप्पन का भाव व्यक्ति का स्वभाव-सा बन गया है। लगे रहते हैं। मेगा के परसन व्यवहार से कभी लोगों का बडापन गाधने के लिए जन-सभाषो मे ऊंचे मंच कभी ऐसा सन्देह हो लगता है कि ऐसे लोग को मानो र ननाए जाते है-नेताओ को बड़प्पन देने के लिए, मयो धर्म-श्रावक और गुदी निया से वाई प्रयोजन न १ पर रवय बैठकर अपना बडप्पन दिखाने के लिए भी। हो और जयकारे और माला प्रदान करने जैसे कोई आखिर, मत्र निर्माता इमी बहाने ऊंचे क्यों न बैठे ? या मानसिक भाव जगे हो, तब भी आर-पी अपने सहकमिगे को ऊंचा क्यो न बिठाए ? आखिर वे आदि। यह जो न कह बैठे कि बडा आया अपने को ऊंचा विठा हमने कहा-उक्त सचाई सर्वथा म देहास्पद ही है। पर लिया, आदि । मो मब मिल बॉट कर श्रेय लेते हैं। किसी यदि यह मच हो तो चिमनीग अवश्य है। यदि दिगम्ब रत्व को कोई एतराज नही होता। आखिर, होते तो सभी एक के पूर्व प्राचीन रूप मे स्थिरता नहीं आती ता दिगम्बर थली के चट्टे-गट्टे जैसे ही हैं। और दिगम्बरत्व न बचेंगे और लोग हाथ मलते रह हमने कई मगाओ मे आंखो से भी देखा है-स्टेज जाएंगे। और हाथ मलना भी वहाँ ? जब बाम ही नही पर अपनो मे आनो मे एक दूसरे को माला पहिनते पहितो बांसुरी किमकी बनेगी। और बजेगी भो क्या ? मब नाते, पहिनवाते हुए । कोर लोग हैं कि नीचे बैठे इस शून्य मौन होगा, न दिगम्बर जैन होगा और न इस धर्म द्रामे को देख राश होते--ताली बजाते नही अघाते-जैसे के पालक दिगम्बर जैनी ही। आज नो कुन्दकुन्द-विहित वे किसी लका को विलय होते देख रहे हो। पर, हम नही पाचार भी बदला जा रहा है। दिगम्बर चर्चा कहाँ और ममझ पाए कि इस व्पर्थ की उठा-धरी से क्या कोई लाम कैसी होनी चाहिए, इसे सोचे । हम श्रावक अपने आचार होता है ?--केवल समय की बरबादी के। जरा सोचिए ! में कहीं पाप के पुंज तो नही हुए जा रहे इसे भी गहराई Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ष ४६ अंकका शेष भाग: श्री लंका में जैनधर्म और अशोक 0 भी राज मल जैन, जनकपुरो, बिल्ली यदि सचमुच ही अशोक ने बौवधर्म का प्रचार किया विद्यमान था। यहां नाग या असुर जाति के लोग बसते होता, तो वह अपने शिलालेखों में इस बात का उल्लेख ये तथा नग्न मुनि भी वहां थे। प्रश्न हो सकता है कि अवश्य करता कि उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघ- नग्न जैन मुनि वहां कैसे पहुंचे ? बीच में तो समुद्र है। मित्रा को श्रीलंका मे बौद्धधर्म के प्रचार के लिए अपने इसका उत्तर डा० पपनाभन ने इस प्रकार दिया हैशासनकाल के अमुक वर्ष में भेजा है। उसने बौद्धग्रन्थों "Presumably the Jain monks wbo had bcen का तो तथाकथित उल्लेख किया, पुत्र पुत्री के महत्त्वपूर्ण in Garl in Ceylon migrated from Iddia through Karअभियान का उल्लेख नही किया । क्या उनकी महत्ता उन yakumari, to the South of which was a large अशो से कम थी? डा० भाडारकर, विन्सेन्ट स्मिथ, काशीप्रसाद जायस mass of land, subsequently swallowed by sea. वाल (मौर्य साम्राज्य का इतिहास) जैसे अनेक इतिहास the fact that the Jain doctrines do not allow कार यह स्वीकार करते हैं कि अशोक अपने प्रारम्भिक their monks to cross the sea must be rememजीवन में अवश्य ही जैन था। ऊपर दिये गये अनेक तथ्य bered." अतएव यह कथन कि श्रीलंका में जनधर्म भी यही सकेत देते हैं कि अशोक ने जैनधर्म का ही प्रचार तमिलनाडु के पूर्वी तट से पहुंचा होगा युक्तिसंगत नही किया और उसके जैनधर्मानुयाधी शिलालेखों का केरल लगता। अतः केरल में ईसा पूर्व पांचवा-छठी शताब्दी में पर भी प्रभाव पड़ा। जैनधर्म विद्यमान होने की सम्भावना प्रबल है। कालातर में अशोक के "देवानांप्रिय"-देवताओं को प्रसिद्ध पुरातत्वविद फर्ग्युसन ने लिखा है कि कुछ भी प्रिय की वडी दुर्गति हुई जान पड़ती है। इस शब्द का यूरोपियन लोगों ने श्रीलका में सात और तीन फणों वाली अर्थ पशुप्रो के समान मूर्ख या बकरा हो गया (देखिए मतियों के चित्र लिए थे। सात या नौ फण पाश्वनाथ को आप्टे का सस्कृत-अग्रेजी कोश)।। मति पर और तीन फण उनके शासनदेव धरणेन्द्र एवं __ अशोक के पूर्वज चन्द्रगुप्त और बिदुमार जैन थे और शासनदेवी पावती की मूर्ति पर बनाए जाते हैं। इस उसके उत्तराधिकारी कुणाल, सप्रति, दशरथ और बृहद्रय प्रकार के बहुत से जैन अवशेष नष्ट हो गए। ईसा पूर्व सभी जैनधर्म के अनुयायी थे। ऐमा लगता है कि अघकचरी ३८ मे श्रीलका के शासक वगामिनी ने जैन मन्दिरों जानकारी के आधार पर उसे बोर कह दिया गया है। और मठो का ध्वस कराकर उनके स्थान पर बोर मंदिर ऊपर लिखित तथ्य यह सकेत देते हैं कि अशोक के और विहार बनवाए थे। समय में भी केरल मे जैनधर्म का प्रचार रहा और उसने भी जैनधर्म के समता या मधमाका श्रीलका सम्बन्धी उक्त तथ्य यह प्रमाणित करते है दया आदि का प्रचार किया। कि चन्द्रगुप्त मौर्य के दक्षिण आगमन से पूर्व ही जैनधर्म श्रीलका सम्बन्धी तथ्यों के आधार पर यह मम्भव केरल के रास्ते श्रीलका में फैल चुका था। जान पड़ता है कि श्रीलका मे जैनधर्म बौद्धधर्म से भी पहले B-1/324, Janakpuri, New Delhi-58 आजीवन सदस्यता शुल्क । १०१.०... वाषिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मस्यः १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह मावश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। कागन प्राप्ति:-श्रीमती अंगरोवेवी बैन, धर्मपत्नी श्री शान्तोलालबन कागजो के सोजन्य, नई दिल्ली-२ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन माय-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत पौर प्राकृत के १७१ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं. परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द। ... मपन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पोर परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । १५... पवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य जन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जन ... म साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ सस्या ७४, सजिल्द । अनसनपावती (तीन भागों में): स०५. बालचन्द सिदान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... Basic Tenents of Jainism : By Shri Dashrath Jain Advocate. 5-00 Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain Referenccs.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contains 1045 to 1918 pages size crown octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to oach library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. 600-00 सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पपचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-भारतभूषण जैन एडवोकेट, वीरसेवा मन्दिर के लिए, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०.१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५१ द्वारा मुद्रित प्रिन्टेड पत्रिका बक-पकिट 'ANEKANT' Periodical - June 1994 Page #82 --------------------------------------------------------------------------  Page #83 --------------------------------------------------------------------------  Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6607 वीर सेवा मन्दिरका प्रेमासिक अनेका Mantra 192NOfornia HimroPINTrir+Tr..Banty - Vir run ar ir bk सम्मेदशिखर-चिशेषांक) : .:. ''' ' RT प्रवर्तक मासागल किशोर मुख्तार युवकोर TWITTry Irior intim , repr. in in winter I, tr " tri...: .. . Frism is INR 2 विषय " trn 615 10. --.,! २. श्री संमेदशिम्बर प्रसंग ३ श्री सम्मेदशिखर सम्बन्ध में महत्वपूर्ण खण्य · tv .. . . . . . ) ४. कुन्दकुन्द और पुद्गल दम्य-श कपूरचन्द जैन ११ . . PROFrPartfeltodan.. ५.मौचित्य,धम का-श्री राजकुमार जैन बाचार्य १५ । . .:::) ..1::. . . . । ६. जैन मोर बोड मूर्तियाँ-श्री राजमल जैन १८ मुहमरमसमुविधी कामकुममन्दी, २२04..किरातं चाति मोर उसकी ऐखिलासिकता . .. -डा. रमेशचन्द जैन . . .२१-. VE. आगमों के संपादन की 'घोषित विधि' पातक है -सम्पादक २८ १०. जरा सोचिए " irmier :पज्य बडे वर्णी जी ने कहा टाइटिल २ 1 hrayan MPPOHTTA बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य बड़े वर्णो जी ने कहा श्रोताओं को मनमानो सुना देना, अपनी प्रभुता जमाना, पाण्डित्य प्रदर्शन करना तथा 'हम ही सब कुछ है' इत्यादि मनोविकारों के होते आत्मकल्याण को लिप्सा अन्धे मनुष्य के हाथ में दर्पण सदृश है। दूसरा मनुष्य उस दर्पण से चाहे मुख देख भी सकता है परन्तु अन्धे को कोई लाभ नहीं। (२५८।४८) यदि आत्म कल्याण करना चाहते हो तो बाह्याडम्बरों का प्रभुत्व देख इनसे पृथक होने की ष्टा करो। व्यर्थ की प्रशंसा में पड़कर मात्मा को वंचित करने का ढंग मत बनो। जितने भी प्रशंसा करने वाले हैं सभी आत्मतत्त्व से दूर है। प्रशंसा करना और प्रशंसा की लालसा करना दोनों ही सहोदरी हैं। भगवान को आज्ञा तो यह है कि यदि कल्याण चाहते हो तो न तो झूठी प्रशंसा करो, न कराओ।' (२६।४।५१) _ 'किसी से विशेष परिचय मत करो' यही शास्त्र को आज्ञा है परन्तु हे आत्मन्, तुम इसका अनादर करते हो अतः अनन्त मंसार के पात्र होगे। तुमने आज तक जो दुख पाए उनका स्मरण दखदायी है। परन्तु तुम इतने सहिष्णु हो गए हा कि अनन्त दुखों के पात्र होकर भो अपने आपको सुखी मानते हो। (२२॥१॥४७) जो घर छोड़ देते हैं वे भी गहस्थों के सदश व्यग्र रहते हैं ? कोई तो केवल परोपकार के चक्र में पहकर स्वकीय ज्ञान का दुरुपयोग कर रहे है। कोई हम त्यागो हैं, हमारे द्वारा ससार का कल्याण होगा ऐसे अभिमान में चूर रहकर कालपूर्ण करते हैं। (३१५१५१) चित्तवृत्ति शमन करने को आत्मश्लाघा त्यागने की महती आवश्यकता है। स्वात्म प्रशसा के लिए ही मनुष्य प्रायः ज्ञानार्जन करते हैं, धनार्जन करते हैं। पर मिलता-जुलता कुछ नहीं। ।१२।४०) मेरा यह दढ़तम विश्वास हो गया है कि धनिक वर्ग ने पण्डितवर्ग को बिल्कुल ही पराजित । कर दिया है। यदि उनको कोई बात अपनो प्रकृति के अनुकूल न रुचे तब वे शोघ्र ही शास्त्र-विहित पदार्थ को भी अन्यथा कहलाने की चेष्टा करते है। (२०१६।५१) (वर्णी-वाणी से साभार) मानीवन सदस्यता शुल्क : १.१.००० वार्षिक मूल्य : ६.०, इस बंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे बिहान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह मावश्यक नहीं कि सम्पादक-मरस लेखक विधारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायःनहीं लिए जाते। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DILIUDOE - - --- . 12 AMER ITALR परमागमत्य बीज निपजात्यन्धासन्धुरावधानम् । सफलनविलसिताना विरोधमयन नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष ४७ किरण ३ वोर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई fhoni-२ वीर-निर्वाण सवत् २५२०, वि०म० २०५१ -सितम्बर १६६४ ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावे ? ऐसा मोहो क्यों न अधोगति जावे, जाको जिनवाणी न सुहावै ॥ वीतराग सा देव छोड़ कर, देव-कुदेव मनाव। कल्पलता, दयालता ताज, हिंसा इन्द्रासन बाव॥ ऐसा० ॥ रुचे न गुरु निर्ग्रन्थ भेष बहु, परिग्रही गुरु मावे । पर-धन पर-तिय को अभिलाषं, अशन अशोधित खाव ॥ ऐसा० ॥ पर को विभव देख दुख होई, पर दुख देख लहावे । धर्म हेतु इक दाम न खरचं, उपवन लक्ष बहावे ॥ ऐसा० ॥ ज्यों गह मे सं ये बहु अंध, त्यों वन हू में उपजावै । अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, बाघम्बर तन छावै ।। ऐमा० ॥ आरंभ तज शठ यंत्र-मंत्र करि, जनप पूज्य कहावै । धाम-धाम तज दासो राख, बाहर मढ़ी बनावै । ऐसा.॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सम्मेद-शिखर-प्रसंग श्री सम्मेद शिखर जी मिद्ध क्षेत्र अनादि निधन तीर्थ है । यहाँ से २४ में से २० तीर्थ करों एवं असख्यात दिगम्बर मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है इस लिए यह जैन धर्म के अनुयायियों को असीम श्रद्धा का पूज्यनीय स्थल है। पर्वत पर प्राचीन बीस तीर्थंकरों को टोकों और एक गणधर गौतमाचार्य की टोक में दिगम्बर मान्यता के चरण चिन्ह विराजमान हैं। शास्त्रो मे उल्लेख मिलता है कि ईसा पूर्व में भी यात्रीगण इस पर्वत की वन्दना को आते थे। कुन्दकुन्द आयं ने निर्वाण्ड मे श्री सम्मेद शिखरजी को वन्दना को है। बीसं तु जिणवरिदा अमरासुरवंदिदाधुद कलेसा । समंदे गिरि सिहरे णिव्वाण गया णमोसि ।।' अर्थात्--"f .. सिमेद जिनेश्वर बोस । भाव सहित बन्दों निशि-दीस ।। यह भी उल्लेख मिलता है कि श्रोणिक राजा ने पर्वत की टोकों का जीर्णोद्धार कराया था। इसके बाद नान ने भो टोकों का जीर्णोद्धार कराया था। मुर्शिदाबाद को जैन समाज द्वारा टोको के जीर्णोद्धार का उल्लेख मिलता है। ___ वतमान में कुछ दातारों ने जीर्णोद्धार के नाम पर टोकों की प्राचोनता विल्युल नष्ट करने का प्रयत्न किया है । क्षेत्रको प्राचीनता को नष्ट करना किसी भी दृष्टि से सही नहीं माना जा सकता बल्कि इस कृत्य की जितनी भी भर्त्सना की जाय कम है। ऐसा प्रतीत होता है कि एक वर्ग विशेष जो तीर्थ पर अनधिकृत ब्जा लिए हुए है उपका ही यह घिनोना कृत्य है। प्राचीन साक्षियों, न्यायालयों के निर्णयों से स्पष्ट है कि यह जघन्य अपराध क्षन्ध नहीं है। पर्वत की तलाटो मधुबन में दिगम्बर जैनों की बीस पंथी कोठो का निःणि आज से चार सौ से भी :धिक वर्ष पूर्व हुआ था जबकि श्वेताम्बर कोठी उसके २५० वर्ष बाद बनी है हम यहां श्वेताम्बर आगमों, विश्व मान्यग्रन्यो और अदालती फैसलों आदि के आधार पर श्री सुभाष जैन का लेख प्रकाशित कर रहे हैं ताकि समाज में किसो भी प्रकार को भ्रान्ति न रहे और वह वस्तु स्थिति से अवगत हो। हम इस तथ्यपूर्ण खोज के लिए श्री सुभाष जी के अथकधम की सराहना करते है कि उन्होने भ्रम का पर्दा हटाने का अपूर्व कार्य किया है । -सम्पादक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथाय नम श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ पर्वत) के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य था। वस्तुस्थिति 3 विशेषावश्यक भाष्य' से उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैन समाज के नेताओ द्वारा दिगम्बर कि ऋषभदेव आदि सभी (चौबीसों) तीर्थकर पाणिपात्र जैन समाज पर निरन्तर अनर्गल आरोप लगाए जा रहे है, जिनमे आहार ग्रहण करते थे। उनका मुख्य आरोप यह भी है कि श्वेताम्बर मत दिगम्बरो में 'निरुवमधिसघयणा चउनाणाइ सयसत्त सपण्णा । प्राचीन है, जो न तो तथ्यात्मक आधार पर सही है और न ही अछिहपाणिफ्ता जिणा जिय परीसहा सव्वे ।।' सामाजिक एवं मानवीय दृष्टि से शोभनीय है। हम यहा उनके -गाथा 3083 आरोपो का निराकरण उन्हीं के धर्मग्रन्थों, विश्वमान्य संदर्भ ग्रंथो 'जिना हि सर्वे निरुपमधतयो वज्रकटकसमान परिणामा भवन्ति, एव न्यायालयों के निर्णयों के आधार पर प्रस्तुत कर रहे है जिससे तथा चतानिनश्छद्मस्था सन्तोऽतिशयवन्तश्च, तथा समाज मे किसी प्रकार के भ्रम की गुजाइश न रहे । अच्छिद्रपाण्यादयः जित परीषहा ।' गाथा 3083 टीका 'श्वेताम्बर शास्त्रों के अनुसार दिगम्बर प्राचीन | -प्रकाशक ऋषभदेव केसरीमल श्वेताम्बर सस्था, रतलाम, 1937 श्वेताम्बराचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य 4 श्वेताम्बर प्राकत कोश अभिधान राजेन्द्र (द्वितीय भाग) के की गाथा 3076 मे उल्लेख किया है कि जिनकल्प (नग्नता) पृष्ठ 1132 मे स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान प्रवमदेव नग्न जम्बूस्वामी के बाद छिन होगयी अर्थात उसके पूर्व दिगम्बरत्व 'भगव अरहा उसमे कोसलिए सवच्छर साहिय चीवरधारी 'मण परमोधि पुलाए आहारगखवग उवसमे कप्पे । होत्था ।'सजमतिय केवलिसिज्झणा य जंबुम्मि बोशिण्णा ।।' 'उसहेण अरहा कोसलिए सवच्छर साहिय चीवरधारी 'मन पर्ययज्ञान, परमावधिरुत्कृष्टमवधिज्ञानम्, पुलाकलब्धि , होत्था तेण पर अचेलये ।' आहारकशरीरकलब्धि., क्षयोपशमश्रेणिद्वयम्कल्पग्रहणाज्जिनकल्प , सयमत्रिक-परिहारविशुद्धिसूक्ष्म -प्रकाशक समस्त श्वेताम्बर संघ, रतलाम, सवत 1967 सापराय-यथाख्यातानि, केवलज्ञान, सिद्धगमन च । 5 श्वेताम्बरो के प्रसिद्ध ग्रन्थ कल्पसूत्र से भी दिगम्वरत्व की एतेऽम्बिनाम्नि सुधर्मगणधरशिष्ये व्युच्छिन्ना-तस्मिन् सति पुष्टि होती है । दीक्षा के दिन से भगवान महावीर एक वर्ष अनुवृत्ता तस्मिनिर्वाणे व्युच्छिना इति ।'-(वही टीका) । और एक मास पर्यन्त वस्त्रधारी रहे । इसके पश्चात् वे वस्त्र -प्रकाशक लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, रहित हो गए और हाथों मे आहार ग्रहण करने लगे। अहमदाबाद, 1968 'समण भगव महावीरे संवच्छरं साहिय मास जाव 2 प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द जी ने "त्रिषष्ठि शलाका चीवरधारी हुत्था । तेण पर अचेले पाणिपडिग्गहिए' . पुरुष" (आदिनाथ) चरित्र, पर्व-1, सर्ग-3, श्लोक 292 -प्रकाशक श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर, वि स 2029 293 मे स्वीकार किया है कि प्रथमदेव ने पाणिपात्र (हाथो में) मे आहार ग्रहण किया, जबकि श्वेताम्बरो मे पाणिपात्र 6 एक अन्य श्वेताम्बर ग्रथ "पचाशक मूल''-17 मे कथन का नियम नही है । आया है आचेलक्को धम्मोपुरिमस्सया पछिमस्स यजिणस्स _ 'प्रभुरप्यंजुलिकृत्य पाणिपात्रमधारयत् ।'-292 अर्थात् पूर्व के ऋषभदेव और बाद के महावीर का धर्म 'भूयानपिरस. पाणिपात्रे भगवो पपौ ।'-293 अचेलक (निर्वस्त्र)मा -प्रकाशक श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, सवत 1961 -प्रकाशक ऋषभदेव केसरी मल श्वेताम्बर सस्था, रतलाम, 1928 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 त्रिषष्टि शलाका पुरुष (आदीश्वर) चरित्र में राजा श्रेयाम वर्ष प्राचीन तो है ही। सम्राट अशोक द्वारा जारी राजाज्ञा के द्वारा जनता को सम्बोधन से भगवान ऋषभ के नग्नत्व की शिलालेख (XX) मे निग्रंथों का उल्लेख है। पुष्टि होती है। भगवान महावीर और उनके प्रारंभिक अनुयायियो की "जो भोगो का इच्छुक होता है, वह स्नान, अगराग और अत्यंत प्रसिद्ध वाह्य विशेषता थी-उनके नग्न रूप में विचरण करने वस्त्रों को स्वीकार करता है। स्वामी (ऋषभ) तो भोगो से की क्रिया, और इसी से दिगम्बर शब्द बना । इस क्रिया के विरुद्ध विरक्त है - उन्हे इनकी क्या आवश्यकता? अर्थात वे इन गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यो को विशेष रूप से सावधान किया तीनो को ग्रहण नहीं करते ।" था तथा प्रसिद्ध यूनानी मुहावरा-जिमनोसो-फिस्ट (जैन सूफी) से 'स्नानागराग नेपथ्य वस्त्राणि स्वीकरोति म । भी यही प्रगट होता है। मेगस्थनीज ने (जो चन्द्रगुप्त मौर्य के समय यो भोगेच्छ स्वामिनस्तु तद्विरक्तस्य कि हि तै' || ईसा पूर्व 320 में भारत आये थे) इस शब्द का प्रयोग किया पर्व--सर्ग 3 श्लोक 313 हा यह शब्द पूरी तरह निग्रों के लिए ही प्रयक्त हुआ है। "The Jains are divided into two great parties -प्रकाशक श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, स 1961 Digambars & Swetambars--the latter have only as श्वेताम्बर विद्वानों के अनुसार नग्नता की पुष्टि yet been traced & that doubtfully as tar back as 5th century AD after Christ, the former are ALMOST । जैन-आचार के पृष्ठ 153 पर डॉ मोहनलाल मेहता ने लिखा CERTAINLY the saine as NIRGRANTHAS, who are referred to in numerous passages of Buddhist Pali है 'चाहे कुछ भी हुआ हो, इतना निश्चित है कि महावीर Pitakas & must therefore be as old as 6th century BC प्रवज्या लेने के साथ ही अचेल अर्थात् नग्न हो गये तथा The Nirgranthas are also referred to in one of the ASOK's edicts (Corpus inscription plate XX) अत समय तक नग्न ही रहे एव किसी भी रूप में अपने शरीर The most distinguishing outward peculiarity of के लिए वस्त्र का उपयोग नहीं किया ।' Mahavira & his earliest followers was their practice of going NAKED whence the term DIGAMBARA आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन मे मुनि नगराज पृ० Against this custom Gautam Buddha especially 170 पर लिखते है कि शीत से त्रस्त होकर वे (महावीर) warned his followers, and it is referred to in the well बाहुओ को समेटते न थे, अपितु यथावत हाथ फैलाये विहार known Greek phrase 'Gymnoso-phist', used already hy Magasthenes which applies very aptly to करते थे । शिशिर ऋतु में पवन जोर से फुफकार मारता, NIRGRANTHAS" कड़कड़ाती सर्दी होती, तब इतर साधु उससे बचने के लिए श्री एच एच विल्सन अपनी पुस्तक "एस्सेज एण्ड लैक्चर्म ऑन किसी गर्म स्थान की खोज करते, वस्त्र लपेटते और तापम दि रिलिजन आफ जैन्स' में लिखते हैलकड़ियाँ जलाकर शीत दूर करने का प्रयत्न करते, परन्तु जैन मख्यत दिगम्बर व श्वेताम्बर दो सैद्धातिक मान्यताओ महाबीर खुले स्थान मे नग्न बदन रहते और अपने बचाव मे विभक्त है । इनमे दिगम्बर अधिक प्राचीन प्रतीत होते है और किया की इच्छा भी नहीं करते निर्वस्त्र देह होने के कारण सर्दी विस्तृत रूप मे फैले हुए है । दक्षिण के सभी जैन दिगम्बर समुदाय गर्मी के ही नहीं वे दशमशक तथा अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के जान पड़ते है । यही बात पश्चिमी भारत के जैनियो की बहुलता के अनेक कष्ट झेलते थे। पर लागू होती है। हिन्दुओ के प्राचीन दर्शन ग्रन्यो मे जैनियो को उपरोक्त सभी श्वेताम्बर शास्त्रो के प्रमाणो से दिगम्बरत्व की नग्न अथवा दिगम्बर शब्द से संबोधित किया गया है। प्राचीनता सिद्ध होती है । अतः दिगम्बर धर्म ही प्राचीन है इसमे "The Jains are divided into two principal divisions, सदेह की कोई गुजाइश ही नहीं है। Digambars and Swetambars The former of which appears to have the best pretensions to antiquity and विश्वमान्य ग्रन्थों के अनुसार भी दिगम्बर प्राचीन to have been most widely diftused All the Deccan Jains appear to belong to the Digambara division So 11 15 said to the majority of Jains in western India In सदर्भ ग्रन्थ एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका खण्ड-25 ग्यारहवा early philosophical writings of the Hindus, the सस्करण, सन् 1911 के अनुसार जैन दिगम्बर व श्वेताम्बर दो Jains are usually termed Digambars or Naganas (Naked)." बड़े समुदायो मे विभक्त है । श्वेताम्बर अल्पकाल से बमुश्किल ईसा की पांचवीं शताब्दी से पाये जाते हैं जबकि दिगम्बर निश्चित दिगम्बर प्रतिमाओं की पूजा प्राचीनकाल से रूप से यही निग्रंथ हैं जिनका वर्णन बौद्धो की पाली पिटकों (धर्म एनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के खण्ड 10 पृष्ठ ।। सन् ग्रन्थों) के अनेक परिच्छेदों मे हुआ है और इसलिए वे ईसापूर्व 600 1981 के अनुसार मथुरा से तीर्थकरो की जो प्रतिमाए प्राप्त हुई Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वे कुशाण काल की है और उनमे यदि जिन भगवान खड़गासन श्वेताम्बरी प्रतिमा पाचवी शताब्दी के पूर्व की नही मिलती मुद्रा में है तो निर्वस्त्र (नग्न) दिगम्बर हैं और यदि पद्मासन है तो है। एतदर्थ विश्व मान्य सदर्भ ग्रन्थो द्वारा भी दिगम्बरो की प्राचीनता उनकी निर्मिति इस प्रकार की है कि न तो उनके वस्त्र और न असंदिग्ध है। ही गुप्ताग दिखाई देते है । यद्यपि श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद न्यायालयों के अनसार भी दिगम्बर ही प्राचीन कुशाणकाल में ही प्रारम्भ हो गया था तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय तक दिगम्बर व श्वेताम्बर (दोनो समदाय) पारसनाथ पर्वत का महत्त्व तीर्थकरो की दिगम्बर (नग्न) प्रतिमाओ की ही पूजा करते थे। 16000 एकड़ में फैला श्री सम्मेदशिखर (पारसनाथ पर्वत) गुजरात के अकोटा स्थान से ऋषभनाथ की अवर भाग पर जैनियो का अनादि काल से पूज्य तीर्थ है । इस पर्वत से चौबीस वस्त्र सहित जो खड्गासन प्रतिमा प्राप्त हुई है वह ईसा की पाचवी मे से वीस तीर्थकर और असख्यात मूनि दिगम्बर अवस्था मे मोक्ष शताब्दी के अतिम काल की मानी गयी है जो कि बलभी मे हए पधारे है । देवो ने जिन स्थानो को चिन्हित कर दिया था वही पर अतिम अधिवेशन (काफ्रेस) का समय भी है । इसमे पता चलता टोके (छोटे मदिर) और तीर्थकरो के चरणचिन्ह स्थापित है। यही है कि बलभी के इस अंतिम अधिवेशन (कांफ्रेस) से ही श्वेताम्बर कारण है कि यह पर्वत दिगम्बरो की असीम श्रद्धा का केन्द्र है मत का प्रादुर्भाव हुआ। जैसे हिन्दुओ के लिए काशी। चरणचिन्ह दिगम्बर मान्यता के अनुसार "Images of the Turthankaras found at Mathur and datable to the Kusana period either depict the Jina in श्वेताम्बरी का यह आरोप एकदम निराधार है कि दिगम्बर a Standing attitude and unclothed or it cated in the जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में पडित बलभद्र जी ने crossedlegged posture, dre sculputured in such a सभी टोकी को श्वेताम्बरो द्वारा स्थापित किया गया लिखा है । way that neither garments nor genitals are visible. Though the Swetambara-Digambara differences यह असत्य है । उन्होंने कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है बल्कि प्राचीन had already originated in the Kusana age, it would चरणो पर जीर्णोद्धार के नाम पर ना आलेख खुदवा देने की उन्होने appear that at this time both sects worshipped nude images of Tirthankaras. The carliest known image घोर भत्सेना की है। of Jina with a lower garment, the standing सभी 20 टोको में दिगम्बर आम्नाय (मान्यता) के चरण चिन्ह Rsabhanatha discovered at Ahold in Gujarat state. has been dated to the latter part of the 5th centurty म्थापत ह । जव श्वताम्बरा न प्राचान दिगम्बर चर स्थापित है । जव श्वेताम्बरो ने प्राचीन दिगम्वर चरणचिन्हो का AD, the age of the last council at Valabhi This हटाकर नये चरणचिन्ह स्थापित करने का प्रयास किया तब suggests that the Valabht council marked the Sinal separation of the two sects." दिगम्बरो ने न्यायालय से इस कुकृत्य को रुकवाने का आवेदन किया । विद्वान न्यायाधीश हजारीबाग ने निर्णय दिया कि बीसो प्राचीन प्रतिमाएं दिगम्बर हैं टोंको के चरणचिन्ह दिगम्बर आम्नाय की मान्यता के अनुसार मथुरा के अतिरिक्त जो भी प्राचीन प्रतिमाए उपलब्ध है वे है। वाद सख्या 288/1912 दिनाक 31 अक्टूबर 1916 सभी दिगम्बर है । उड़ीसा मे उदयगिरी के गुफा मदिर ईसा पूर्व "The shape of the Charans in the 20 Tonks is in दूसरी शताब्दी मे सम्राट खारबेल के समय खुदाई मे निकले confirmity with the Digambar Tenets" थ । शिखर सम्मेद पर, जहा से बीस तीर्थकर मोक्ष गए है उन चरण इसी स्थान पर क्यों ? सभी के चरण चिन्ह दिगम्बरी आम्नाय के अनुसार है। राजगीर न्यायाधीश ने जव श्वेताम्बरो से पूछा कि चरण और टोक के मदिरो मे 2000 वर्ष से अधिक प्राचीन दिगम्बर प्रतिमाए इन्हीं स्थानो पर क्यो बनाये गए है ? श्वेताम्बरो का तर्क था कि है । इसी प्रकार देश के कई सग्रहालयो मे ईसा पूर्व की सभी पूरा पर्वत उनका था अत जहां कहीं भी किसी दानी ने चाहा वहां प्रतिमाए दिगम्बर है। श्रवणबेलगोला मे भगवान् बाहुबली की 18 वरण और टोके बनवा दी, क्योकि वह उनकी निजी सम्पत्ति मीटर ऊची खड्गासन प्रतिमा का निर्माणकाल दसवी शताब्दी का है। दिगम्बर जैन तो यहा सैलानी के रूप मे आते थे मानो वह आरभिक काल है। स्थान धार्मिक और पवित्र न होकर सैर-सपाटे की जगह हो । श्वेताम्बरों के मंदिर "They (Swetambars say that the shrines have been built by them without regard to any particular आबू पर्वत पर देलवाड़ा के मदिर ग्यारहवी शताब्दी मे बने place and claim them as 'private Chaples' where they say Digambar came as sightseers with no better है । रणकपुर का मदिर पद्रहवी शताब्दी में निर्मित हुआ है। rights than visitors of stone benge in England" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब यही प्रश्न दिगम्बरो से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि के जमीदाराना अधिकार खरीदने पड़े। बैनामे मे खरीदार का नाम उनके शास्त्रो के अनुसार जिन स्थानो को देवो ने चिन्हित कर दिया श्री कस्तूरभाई है । “व्यक्तिगत' हैसियत व अध्यक्ष आनन्दजी था वहीं भगवान के चरण स्थापित कर टोके बनाई गई । विद्वान कल्याणजी फर्म लिखा है। इस बैनामे मे पर्वत के जगल मात्र का न्यायाधीश ने निर्णय में कहा कि स्थान की निश्चितता इस बात जमींदारी अधिकार खरीदा था जो भूमि सुधार अधिनियम 1950 का प्रमाण है कि वे सभी स्थल दिगम्बरों की प्राचीन मान्यता के लागू होने पर समाप्त हो गया । बैनामे मे यह भी स्पष्ट लिखा था पूजनीय स्थल हैं। उन्होंने तो यहा तक कह दिया कि वहा अगर कि इस खरीद का कोई प्रभाव दिगम्बरो के धार्मिक अधिकारो पर चबूतरे, टोंकें या चरणचिना न भी होते तो भी उक्त सभी स्थल नहीं पड़ेगा । बैनामे मे मदिर या टोके बेचे जाने की कोई चर्चा दिगम्बरों द्वारा अवश्य पूजे जाते। नहीं है क्योकि राजा को जगल के जमींदारी अधिकार के अलावा " Muchturns on the spottheory asst goes tothe root मंदिर या टोके बेचने का अधिकार ही नहीं था। वैसे भी हमारे of exclusiveness, the Swetambars deny it altogether देश मे मदिर या टोको की खरीद-फरोख्त नहीं हो सकती है। The Digambars, as the evidence shows would worship the spot even if there was no Tonk or Charan "Purchaser shall hold Parasnath hill subject to all over them." rights and in particular to nights, if any, of access to and worship in the said area appear attaining to any कुटिलता पूर्ण जालसाजी SCLIS and subject to any order which may be passed in appeal No 226/1917 now pending in Patna श्वेताम्बरो से जब यह पूछा जाता है कि पर्वत के स्वामी आप High Court preferred by Digambar Jains" थे तब अकबर व आदिलशाह से फरमान लेने की आवश्यकता बिहार सरकार : श्वेताम्बर समझौता क्यो पड़ी? क्यो 1500/- वार्षिक पर चढ़ावा खरीदने की आवश्यकता पड़ी? क्यो राजा पालगज से जमीदारी अधिकार आनन्दजी कल्याणजी ट्रस्ट का यह दावा भी वेबुनियाद है खरीदने की आवश्यकता पड़ी? क्यो बिहार सरकार से मैनेजरी कि भूमि सुधार अधिनियम लागू होने पर भी उनकी मिल्कियत की 60 प्रतिशत आमदनी लेने का इकरारनामा किया? इन सब नामा किया नमन समाप्त नहीं हुई । यदि उनकी मिल्कियत समाप्त नहीं हुई थी तो प्रश्नों का उनका एक ही उत्तर है कि पहाड़ पर कब्जा रखने के उन्हान भूमि सुधार आधानयम कविरुब सुप्रीम कोर्ट में रिट स० लिये जब जैसा अवसर मिला हमने किया। 58/1964 क्यो लगाई? बाद में मुआवजा लेने के दावे क्यो डाले ? 1965 में बिहार सरकार से इकरारनामा क्यों किया? वस्तुस्थिति भी यही है कि अपनी इन कुटिलताओ के कारण ही उन्होने पर्वत पर कब्जा बना रखा है। पटना उच्च न्यायालय "The parties hereby agree that no question of com pensation as envisaged by provisions of the Bihai ने अपने निर्णय 1441921 मे स्पष्ट रूप से इन फरमानों को Land Reforms Act 1950 anses in view of the settleकुटिलतापूर्ण जालसाजी बताया है। उनके एकाधिकार के दावे ment arrived at " को भी न्यायालय ने अमान्य कर दिया । इस समझौते के अनुसार श्वेताम्बरी दावा करते है कि वे पूरे पर्वत व टोको के मालिक है जबकि समझौते मे केवल श्वेताम्बर "That Ferman was inspected by the sub ordinate Judge and the seal was pronouned to be similar the मदिरो अर्थात् जलमदिर और चार नई टोकों की ही चर्चा है। scal upon the document now under consideration, butif, as he hold it to be, the present Ferman is a "The party of second part (Swetambars) shall retain clever forgery, any similarity between the two scals full controloftheirtemples,shrines. etc belonging would not be expected to them." "In conclusion, I find that although the Fermans are बिहार सरकार: दिगम्बर समझौता spurious, both sccts have an ancient nght of worship 1966 मे बिहार सरकार ने दिगम्बरो के साथ भी समझौता The Swetambarindeaof exclusiveness appears tobe किया जिसमा स्पष्ट किया गया कादगम्बर अपन मादरापर कब्जा tohe किया जिसमें स्पष्ट किया गया कि दिगम्बर अपने मदिरों पर कब्जा one of recent growth not older than charan case or रखेगे । the EKRAR "The party of the second part (Digambars) shall बैनामे की सीमा जंगलात तक retain full control of the temples, shrines .... etc. belonging to them." श्वेताम्बरो का पर्वत खरीद का दावा कितना हास्यास्पद है पर्वतराज पर 20 टोके तीर्थकरो की और एक गौतम स्वामी कि उन्हे स्वय मालिक होने पर भी राजा को मोटी रकम देकर जगल की टोक पर प्राचीन दिगम्बरी चरणचिन्ह है जिसकी पुष्टि Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायालयो ने भी समय-समय पर की है। शेष नई चार टोक एव the Jains as Kashi is sacred to the Hindus Any and every Hindu temple built there does not become an जल मदिर श्वेताम्बरी है। इस प्रकार उक्त दोनो समझौतो मे दोनो asset of the votary public" सम्प्रदायो का अधिकार स्पष्ट कर दिया गया है । न्यायालयो द्वारा पटना उच्च न्यायालय ने 14 अप्रैल 1921 के निर्णय मे पून इतना स्पष्ट निर्णय दिये जाने के बाद भी श्वेताम्बरो द्वारा दिगम्बरो कहा है कि श्वेताम्बर जैम अपने स्वामित्व के अधिकार को साबित की टोकों पर कब्जा किये रखना सामन्तवादी दादागिरी नहीं तो करने में असफल रहे हैंक्या है? ". all that we can say as to the title is that the पारसनाथ पर्वत सभी जैनों का proprietory title of the Swetambar Jains has not __ श्वेताम्बरो का दावा है कि उन्होने पर्वत पर टोको का been established." जीर्णोद्धार कराया है इसलिए पर्वत की सभी टोके उनकी है। इस धार्मिक स्वरूप को कोई न नहीं कर सकता विषय मे प्रिवी कौसिल ने अपील स036/1924 दिनाक 41225 राजा पालगज से पारसनाथ पर्वत के जगल के जमींदारी हक मे निर्णय दिया कि 20 तीर्थकरो व गौतम स्वामी की टोके जैनों को खरीद कर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय द्वारा उस विक्रयके विभाजन से भी प्राचीन हैं और केवल इस कारण कि अधिक पत्र के आधार पर मदिरो और टोको पर एकमात्र दावा करने के अमीर होने के नाते श्वेताम्बरों ने उनका जीर्णोद्धार कराया उनका अधिकार की चर्चा करते हुए राची के अवर न्यायाधीश ने वाद एकाधिकार उन टोंकों पर नहीं हो जाता। सख्या 256/1920 मे दिये गए 26 मई, 1924 के अपने निर्णय "Taking now the case of the 20 tonks and the shrine मे यह स्पष्ट शब्दो मे कहा है कि उक्त विक्रय-पत्र के कारण तीर्थ of Gautam Swami, it is clear that they are of ancient date, and that the Holiness of the sites may go back और उसकी सम्पत्ति का जो वास्तविक धार्मिक स्वरूप है उसे कोई toatime anterior to the division into Swetambars नष्ट नहीं कर सकता और उस पर अपना एकमात्र दावा नहीं कर and Digambars. No doubt, the Swetambars being सकता :the richer sect, have rebuilt or largely improved the present buildings, but if the ancient buildings " the said conveyances will not destroy the were already dedicated to the common use of both real nature of the property so as to enable any of the sections, this contribution to the common reli parties to set up any right to it independently of the gious buildings can create no exclusive right." religious endowment. The acquisition of any right टोंकों पर श्वेताम्बरों का अधिकार नहीं troin the Raja will under such circumstances perhaps be an accretion to and will ensure for the benefit of प्रिवी कौसिल आदि के अनेक निर्णयो की दुहाई देकर the religious institution for the preservation and protection whereof the acquisition has been made श्वेताम्बर अपनी मिल्कियत के दावे को प्रमाणित करने का but on no account will tantamount to an annihilsअसफल प्रयास करते है । वास्तविकता यह है कि सभी निर्णयो tion or extinction thereot" मे न्यायालयो ने स्पष्ट शब्दो मे यह फैसला दिया है कि श्वेताम्बर प्राचीन चरणों को उखाड़ना अपकृत्य समाज का कोई स्वामित्व-अधिकार पर्वत पर नहीं है। श्वेताम्बरो द्वारा टोंको से प्राचीन चरण हटाकर नये चरण बगाल के फोर्ट विलियम उच्च न्यायालय ने 25 जून 1892 स्थापित करने पर न्यायाधीशो ने फैसला दिया कि प्राचीन 20 टोकों के फैसले में कहा है - पर (दिगम्बर) जैनों का अधिकार है। इसलिए दिगम्बरी चरण "Upon all these grounds we think that the learned हटाना श्वेताम्बरों का अपकत्वमा प्राचीन चरण पून. लगाये Disinct Judge has come to correct conclusion in जाये, जिसकी प्रिवी कौसिल ने अपील स0121/1933 के निर्णय holding that the Hill Parasnath does not belong to __ मे पुष्टि करते हुए लिखा है कि श्वेताम्बरों द्वारा प्राचीन चरण the Swetambar Jains." हटाकर श्वेताम्बर स्वरूप के नये चरण लगाना गलत वा । अतः हजारीबाग के अपर न्यायाधीश ने 31 अक्टूबर 1916 के पुराने दिगम्बरी स्वरूप के चरण लगाये जाय। निर्णय में भी यही बात दुहराई है कि पर्वत केवल श्वेताम्बरो का तीर्थ नहीं है बल्कि प्राचीन काल से ही समस्त जैनों का तीर्थ है ". The remaining question as to the alteration in three of the shrines may be dealt with more briefly as "There is overwhelming evidence to show that the both the lower courts are in substantial agreement Hill is not a thing of the Swetambars alone but of all about the facts Both the lower courts have held Jains from very ancient times. The Hill is sacred to that the action of the Swetambars in replacing Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ charan of the description in three of the shrines is "With regard to the Ekrarnama of 1872 above rewrong of which the Digambars are entitled to ferred to, it is necessary to observe that the Privy complain." Council have recently held that the deed is bad as पालगंज राजा के अधिकार की सीमा oftending against the rule of perpetuties" जैन श्वेताम्बर सोसाइटी कलकत्ता भी 1872 और 1878 के 1878 का इकरारनामा 1872 के इकरारनामे की सत्य समझौतो के आधार पर श्री शिखर जी पर स्वामित्व और प्रबध प्रतिलिपि मात्र है। अत इन इकरारनामो के आधार पर कलकत्ते का दावा कर रही है । वास्तविकता यह है कि भूतपूर्व जमीदार की जैन श्वेताम्बर सोसाइटी का भी कोई अधिकार मदिर और राजा पालगज को पर्वतराज पर स्थित मदिरो और टोको के सवध टोको पर नहीं है और न ही उसे मदिर का चढ़ावा लेने का अधिकार में केवल इतना ही अधिकार था कि वह वहा पर यात्रियो के चढ़ाव है। इस सोसाइटी ने पर्वतराज के बिहार राज्य में निहित हो जाने को ले सकता था पर इस शर्त पर कि वह मदिरो और टोको की के सत्य को स्वीकार करके हाल ही में लगभग डेढ़ लाख रुपया तथा यात्रियों की सुरक्षा का प्रबध इस एवज में करेगा । बगाल सरकार के पास उक्त इकरारनामों के आधार पर जमा किया के फोर्ट विलियम उच्च न्यायालय ने 25 जून, 1892 के फैसले में है। अब स्वामित्व का दावा आनन्दजी कल्याणजी ट्रस्ट और उक्त तथा हजारीबाग के अवर न्यायाधीश ने वाद स० 288/1912 के सोमाइटी दोनो कर रहे है । फैसले में इस बात को स्पष्ट कर दिया है - विकास में बाधक कौन ? "The importance of this is that in 1859 to 1861 the दिगम्बर जैन समाज ने यात्रियों की सुविधार्थ 1898 में 705 Guardian of Raja Palganj was claiming Parasnath सीढ़िया सीतानाले में भगवान कन्थनाथ की टोक तक बनाई थी Hull, not as having been settled with bis ancestors as being included in Guddi Palganj, but as being part of जिनमे से श्वेताम्बर 205 सीढ़िया ही तोड़ पाये थे कि दिगम्बरो some estate which had been conlirined to his tamily नेवाद स 1/1900 डाल कर मीढी तोडने से श्वेताम्बरो पर रोक on the condition of their protecting the shines and the pilgrims ""But it seems that beyond guarding लगाने की प्रार्थना की । हजारीबाग के अपर न्यायाधीश ने the temples the Raja had nothing to do with their 991901 के आदेश में निर्णय दिया कि श्वेताम्बरो द्वारा सीढ़ी nepurs and maintenance" तोड़ना उनका अपकृत्य था । दिगम्बरो को सीढ़ी बनाने का न्यायालयो के इन निर्णयो से राजा के अधिकार की सीमाए. अधिकार है । विद्वान जज ने हर्जाने के रूप मे 1845/- रुपये स्पष्ट हो जाती है । जमींदार के चढ़ावा लेने मात्र के अधिकार श्वेताम्बरो से दिगम्बरो को दिलवाये। को श्वेताम्बर जैन सोसाइटी ने अस्थायी तौर पर 1872 मे और "The Swetambari scct cannot deprive the Digambari 1878 मे स्थायी तौर पर दो इकरारनामो के जरिए जमींदार से Sect of their right of way over the path The Defts प्राप्त किया । इस सदर्भ मे दो बाते महत्वपूर्ण है। पहली तो यह individually and as agent of and servants of the Swetambari Sect had, in my opinion no right to कि सोसाइटी ने केवल श्वेताम्बरी मदिरो मे प्राप्त होने वाले चढ़ावे demolish the stairs and remove the same ......... की बाबत ही इकरार किये थे। उनमे स्पष्ट लिखा है कि इकरार They are hereby warned not to commit further हो जाने के बाद जमींदार या उसके आदमी जैन श्वेताम्बरी mischief and resist the construction of the stairs. They shall pay Rs 1845/-as damages to the plaintifl सोसाइटी के मदिरो में न तो बाधा पहचाएगे और न उनके (Digambars) पुजारियो के काम में बाधा या विवाद करेगे - जो यात्री पर्वत की यात्रा के लिए जाते है उन्होने देखा होगा The condition (of this Ekrar) are these that youोलासोटा nीडिया नोटले नाट तनी र्ट cm कि श्वेताम्बरो द्वारा 205 सीढ़िया तोड़ने के बाद बची हुई 500 or your heirs etc or any person on your (Jamindar's) bchalt will not commit outrage at any time in the सीढ़िया जो दिगम्बरो ने बनाई थी आज भी वहा मौजद है। स्पष्ट temples of the Jain Swetambars Society or create है कि विकास मे बापक मात्र श्वेताम्बरी है। unjustifiable dispute with the pujaries of the Jain Swetambari society or do harm to their acts or duty " मानवता पर प्रश्न चिन्ह? इकरारनामे गैरकानूनी सन् 1912 मे श्वेताम्बरो ने दिगम्बरो के विरुद्ध वाद न. 288/ 1872 के इकरारनामे को पटना उच्च न्यायालय एव प्रिवी 1914 व वाद न 4 दायर करके न्यायालय से प्रार्थना की कि कौसिल ने गैर कानूनी करार दिया है। (अपील स० 46/1916 दिगम्बरो को मदिरो और टोको में उनकी अनुमति के बिना पूजातथा 104/1917 निर्णय दि० 144 1921) दर्शन से सदैव के लिए वचित कर दिया जाए । विद्वान न्यायाधीश Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजारीबाग ने 311 1916 को अपने निर्णय में घोषित किया कि कुछ उदाहरण इस प्रकार है: श्वेताम्बरो का 20 तीर्थंकरो की और गौतम स्वामी की प्राचीन 1 यात्रा के मार्ग पर सरकार ने बिजली लगाने की अनुमति टोंकों पर एकाधिकार नहीं है। अतः दिगम्बरों के विरुद्ध कोई प्रदान कर दी थी परन्तु ट्रस्ट के विरोधस्वरूप बिजली नहीं इन्जन्कशन आदेश देकर उन्हे दर्शन-पूजन से नहीं रोका जा लगाई जा सकी । श्वेताम्बरो का कहना है कि पर्वत पर सकता। पटना उच्च न्यायालय और प्रिवी कौसिल ने इस आदेश बिजली लगाने से हिसा होगी । वैसे श्वेताम्बरो के हर तीर्थ की पुष्टि की। पर यहा तक कि शिखर जी के मदिरो मे भी बिजली लगी व्यावसायिक दृष्टिकोण है। संभवतः वह बिजली उनके विचार से अहिंसक है। 2 पर्वत और तलहटी मे यात्रियों की सुविधा के लिए पेय जल वस्तुस्थिति यह है कि सेठ आनन्दजी कल्याणजी की पैड़ी की लाइने बिछाने का इस ट्रस्ट ने तीव्र विरोध किया, जबकि अहमदाबाद मे एक फर्म थी । यह प्रमाण भी है कि शिखरजी तीर्थ उनके सभी तीर्थ स्थानो पर पानी की सप्लाई सुचारू है। की व्यवस्था उसी फर्म के सेठ आनन्दजी कल्याणजी ट्रस्ट के नाम सम्मेदाचल विकास समिति द्वारा पर्वत पर यात्रियो की से व्यापारिक प्रतिष्ठानो की तरह लाभ अर्जित करने के उद्देश्य । सुविधा के लिए बनाई जाने वाली सीढ़ियो और मार्ग के से हथियाये हुए है। ट्रस्ट का पजीकरण भी सेठ आनन्दजी कल्याणजी विकास को इस ट्रस्ट ने जबरन रुकवा दिया। उनका कहना फर्म के नाम से है। यह ट्रस्ट तीर्थ के पर्वतीय जगलो से मूल्यवान है रास्ता ठीक होने से तीर्थ पिकनिक स्थल बन जाएगा जबकि लकड़ी, दुलर्भ औषधिया और खनिज पदार्थ बेच कर करोड़ो रुपयो उनके तीर्थ पालीताना मे सड़क और सीढ़िया बनी हुई है का लाभ कमा रहा है, साथ ही चढ़ावे की खासी रकम भी उसको लेकिन सड़क-सीढ़ी बनने से वह स्थान धार्मिक ही रहा है, मिलती है । श्वेताम्बरी का कहना है कि पर्वत से बहुत कम आय पिकनिक स्थल नहीं बना । यात्रियों की सुविधार्थ रास्ते मे होती है, जबकि अखिल भारतीय श्वेताम्बर जैन कान्फेन्स ने धर्मशाला और मदिर बनाने का भी श्वेताम्बरी तीव्र विरोध 21794 को प्रकाशित लेख मे स्वीकार किया है कि 1982-83 कर रहे है जबकि इन विकास कार्यो मे धन सब दिगम्बगे मे रोहतास इडस्ट्रीज ने पर्वत के कुछ भाग का एक वर्ष के लिए का ही लग रहा है श्वेताम्बरो का नहीं । ठेका 16 लाख 27 हजार रुपयो मे लिया था । इतना ही नहीं एक और सामन्तवादी कदम श्वेताम्बरो को वन की आय के रूप में वन विभाग से 285 94 को बबई के गुजरात समाचार के अनुसार वहा 13,55,064,000 रू० सन 1984-85 तक के प्राप्त हुए थे। चहाण आडिटोरियम मे श्वेताम्बरो के तमाम सघो के 250प्रतिनिधियो आदिवासियों के विकास की जिम्मेटारी माली की बैठक में निर्णय लिया गया है कि दिगम्बरियो के शिवाजी आदोलन को कुचलने के लिए हर मुमकिन कोशिश की क्यो ? जाय । इस कार्य के लिए उसी समय पाच करोड़ रुपयो का फण्ड आखिर अनेक ससाधनो से होने वाली करोडो रुपयो की एकत्र करने की घोषणा की गयी । आनन्दजी कल्याणजी ट्रस्ट आय कहा जाती है, जब कि पर्वत के विकास और आदिवासी की ओर से ढाई करोड़, जैन संघ से 25 लाख, महडी तीर्थ सघ जनता के कल्यणार्थ ट्रस्ट की गतिविधिया शून्य है । श्वेताम्बगे। से 15 लाख एव अधिक आवश्यकता पड़ने पर 15 लाख और, का कहना है कि गरीब आदिवासियो के कल्याण की जिम्मेदारी दीपचन्द गार्डी की ओर से 11 लाख, श्रेणिक भाई से पाच लाख व अन्य प्रतिनिधियों द्वारा भी धन देने की घोषणा की गई। मात्र सरकार की है। इस तरह का तर्क ही उनकी सामन्तवादी विचारधारा की पुष्टि करता है । दिगम्बरो के आदोलन को कचलने के लिए श्वेताम्बर पाच करोड़ एकत्र कर सकते है, किन्तु पारमनाथ पर्वत के विकास मे विकास कार्यों की उपेक्षा उनका योगदान शून्य है क्योकि इस पर्वत पर मात्र आय करने हेतु ही कब्जा रखना उनका ध्येय है, उसके विकास मे उनकी कोई यह स्पष्ट है कि इस ट्रस्ट का दृष्टिकोण मूल रूप से दिलचस्पी नहीं है। व्यावसायिक रहा है । इसलिए बिहार सरकार अथवा मधुवन विकास समिति द्वारा विकास कार्यो मे यह ट्रस्ट सदैव बाधा खड़ी सयुक्त बाड आवश्यक करके उन्हें भी रुकवा देता है क्योकि यह ट्रस्ट पर्वत का तथाकथित श्वेताम्बरो का कहना है कि बिहार राज्य मे हिन्दू धार्मिक स्वामित्व व प्रबन्ध अपने कब्जे में ही रखना चाहता है | न्यास अधिनियम, 1950 के अतर्गत जैनो के दो ट्रस्ट बोर्ड है जिनमे Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से एक श्वेताम्बर ट्रस्ट और दूसरा दिगम्बर ट्रस्ट है । अत एक इस अध्यादेश से पर्वत के विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया है | तीसरा सयुक्त बोर्ड, जिसमे श्वेताम्बर और दिगम्बर समान सख्या सभवत पर्वत के विकास की बात श्वेताम्बरो को रास नहीं आ मे हो, अनावश्यक है। यदि जैनो की सभी शाखाए मिलकर कोई रही है क्योकि वह तो पर्वत पर एकाधिकार रखना चाहते है । अस्पताल अथवा स्कूल चलाना चाहे तो उसका प्रबध ती जैनो के उन्हें डर है कि इस अध्यादेश से उनकी आय का स्रोत बद हो सभी सम्प्रदाय मिलकर करेगे । दिगम्बर या श्वेताम्बर अकेले-अकेले जाएगा । नहीं । इसलिए सयुक्त बोर्ड बनना सर्वथा उचित है। बोर्ड से लाभ भूमिसुधार अधिनियम : स्वामित्व किसका? जिस प्रकार आज देश के अनेक तीर्थो की कुव्यवस्था देखकर श्वेताम्बरी नेताओ ने रट लगा रखी है कि भूमिसुधार सरकार ने प्रबध बोर्ड बनाए है जैसे माताश्री वैष्णो देवी, नाथद्वारा, अधिनियम की परिधि मे पर्वत के जगलात नहीं आते है । इस काशी विश्वनाथ, जगन्नाथपुरी । परिणाम सब के सामने है । इन विषय मे श्वेताम्बरो ने बिहार सरकार के खिलाफ गिरीडीह की तीर्थो का इतना अच्छा विकास हुआ है कि देखते ही बनता अदालत मे जो वाद डाला था उसमें विद्धान न्यायाधीश ने 1990 है। इन वोर्डो का प्रबध तो सरकार ने अपने हाथ मे रखा है परन्त के अपने निर्णय में कहा है कि आनदजी कल्याणजी टस्ट के पर्वत श्री सम्मेद शिखरजी का प्रवध और मालिकाना हक तो सरकार मे मालिकाना अधिकार भूमि सुधार अधिनियम के अनुसार पूर्ण न जन समाज का सापा ह । फिर मिल जुलकर ताब का रूप से बिहार सरकार में समाहित हो गए है। और विकास करने में हिचक क्यो ? "Tauzi No 20/1 of Parasnath Hill belonging to $4 315 Anandji Kalyanji Trust Completely vested in the State of Bihar. Accordingly this issue is decided ___ श्वेताम्बरो का यह भ्रम अनुचित है कि विकास होने पर तीर्थ against the plaintiff (Swetambars)" पिकनिक स्थल बन जाएगा। सरकार ने जिन तीर्थो पर विकास बोर्ड बनाए है क्या वहा धार्मिक भावना में कमी आई है ? सच बिहार सरकार का अध्यादेश लोकतांत्रिक तो यह है साधारण जनता इससे लाभान्वित हुई है । इसी प्रकार श्वेताम्बर बिहार सरकार के अध्यादेश को अलोकतात्रिक पारसनाथ पर्वत का विकास होने पर साधारण जनता को अधिक बताते है, जबकि बिहार सरकार का अध्यादेश पूर्ण रूप से विधाए मिलेगी और यात्रा सुगमता पूर्वक हो सकेगी । लोकतात्रिक है। अध्यादेश के अनुसार जैन समाज के सभी घटको एक उचित परामर्श को श्री सम्मेद शिखर पर्वत की व्यवस्था मे समान भागीदारी ही ' प्रदान नहीं की गई है, बल्कि सरकार द्वारा अपने मालिकाना हक शिखरजी समस्या निवारण हेतु एक आदोलन ने जन्म ले भीजैन समाजको दिये गये हैं। यदि अध्यादेश में श्वेताम्बर समाज लिया है । अततोगत्वा जीत लोकतत्र की ही होती है। हमारी को समान हकन दिया गया होता, तब वह इसे अलोकतांत्रिक श्वेताम्बर समाज से अपेक्षा है कि इस विषय मे गम्भीरता से विचार कह सकते थे। करे और तीर्थ के विकास मे बाधक न बन कर खुले दिल से दिगम्बर "The ownership and title of Shri Sammed Shikharji समाज की बात को समझे। सामतवादी विचारधारा का त्याग कर (Parasnath Hil) and its endowment shall vest in समाजवादी नीति अपनाये । दिगम्बरो के इस आदोलन को दबाने Sammed Shikhari" मे पाच करोड़ व्यय न करके इस धन को किसी रचनात्मक कार्य दुष्प्रचार या आभार मे लगाए । जैन समाज बहुत छोटा सा है । आपसी सौहार्द के बल पर यदि हम बड़े-बड़े कार्यो मे समय और धन का उपयोग श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सेठ आनन्दजी कल्याणजी ट्रस्ट इस करे तो समाज और देश सभी का मगल होगा । भ्रामक दुष्प्रचार में लगा है कि बिहार सरकार ने इस अध्यादेश द्वारा जैनियो से पहाड़ छीन लिया है और भविष्य मे बिहार सरकार सुभाष जैन, मत्री पहाड़ की मालिक होगी, जबकि वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। सरकार ने अध्यादेश के अनुसार पहाड़ की व्यवस्था और मालिकाना श्री सम्मेद शिखरजी आदोलन समिति हक समस्त जैन समाज को सौंप दिया है। इसलिए समस्त जैन जैन वालाश्रम, दरियागज, नई दिल्ली-110002 समाज इस अध्यादेश के प्रति बिहार सरकार का ऋणी रहेगा। दूरभाष 011-3285676-3277424 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द और पुद्गल द्रव्य : आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष्य में 0 डा० कपूरचंद जैन, खातौली आचार्य कुन्द-वन्द ने अब से दो हजार वर्ष पूर्व मानव आज भी शाश्वत सत्य सिद्ध हो रहे है। विशेषतः चिन्तन को एक नई दिशा दी। अध्यात्म प्रतिष्ठापक परमाणु से सम्बन्ध में किया गया उनका गहन चिन्तन आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म दक्षिण भारत के कोण्ड कोन्ड- उनकी सूक्ष्म वैज्ञानिक दृष्टि को प्रतिपादित करता पुर में हुआ था। किन्तु, दक्षिण या उत्तर पूर्व या पश्चिम है। आचार्य श्री द्वारा प्रतिपादित सूक्तियाँ तो सहृदयो वे सर्वत्र समान रूप मे समादृत है। राष्ट्रीय एकता के वे का कंठहार है, एक स्थान पर उन्होने कहा हैजीवन्त स्वरूप हैं। आचार्य कुन्दकुन्द आश्चर्य जनक "ण वि देहो बंदिज्जह ण वि य कलोण विय ऋद्धियो के धारक तया अतिशय ज्ञान सम्पन्न योगी थे। जाइसंजुत्तो। भारतीय परम्परा विशेषत. श्रमण परम्परा मे उन्हें को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावओ भगवान महाबीर और उनकी दिव्य वाणी के आधार पर होई॥ द्वादशाग-आगम प्रणेता गौतम गणधर के बाद सर्वोच्च स्थान अर्यात्--शरीर कुल या जाति वदनीय नहीं अपितु दिया गया है किसी भी शुभ कार्य के प्रारम्भ मे निम्न गुण रहित न तो थावक है और न ही साध। यह आधमंत्र स्मरण करने की परम्परा आज भी श्रमणो मे निक समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का मलमंत्र कहा विद्यमान है जा सकता है। 'मगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी। आचार्य कुन्द कुन्द श्रमण संस्कृति के उन्नायक प्राकृत मंगलं कुन्द कुन्दाद्यो जैन धर्मोऽस्तु मगलम् ।।' साहित्य के अग्रणी प्रतिभू तर्क प्रधान आगमिक शैली मैं भगवान महावीर मगल स्वरूप है, गौतम गणधर लिखे गए अध्यात्म विषयक साहित्य के युग प्रधान आचार्य है और है। उनकी महत्ता इस बात मे भी दृष्टि गोचर होती है जैन धर्म मगल स्वरूप है। कि परवर्ती आचार्य अपने आपको कुन्द कुन्दान्वयी कहकर आचार्य कुन्दकुन्द ने तिरूकारल, समयसार, प्रवचन- गौरवान्वित अनुभव करते है। सार, नियमसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड जैसे अनमोल जैन दर्शन के अनुसार ममग्र विश्व छह द्रव्यो का ग्रंय-रत्नो का उपहार अध्यात्म जगत को दिया है। इनके पिंड है। आचार्य कुन्द कुन्द ने सभी द्रव्यो पर विचार अतिरिक्त अन्य अनेक कृनियाँ आज भी अप्राप्त है, किया है किन्तु जीव व पुद्गल का विरतार में विवेचन परम्परानुसार वे ८४ पाहुडो के कवि रचयिता थे। किया है। प्रवचनसार, पचास्तिकाय, नियमसार आदि तिरूक्कुरल ग्रन्य परवर्ती काल में इतना प्रसिद्ध हुआ कि ग्रन्थों में पुद्गल के सन्दर्भ में विस्तृत गवेपणा की गई है। संसार की लगभग १०० भाषाओ मे इसका अनुवाद हुआ। द्रव्य का लक्षण करते हुए कुन्द कुन्द ने कहासमयसार में शुद्ध आत्मतत्व का जैसा विवेचन उन्होने "दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादश्वयधु वत्त संजुत्त । किया है वसा अन्यत्र दुर्लभ है। इस ग्रथ को श्रमण गुण पज्जयासवं व जं तं भण्णति सबण्हू ।' परम्परा मे गीता, बाइबिल और कुरान का स्थान द्रव्य का लक्षण तीन प्रकार से है, द्रव्य का प्रयम प्राप्त है। लक्षण, सत्ता है, द्रव्य का द्वितीय लक्षण उत्पाद, व्यय, आचार्य कुन्दन्द द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक सिद्धांत धौव्य संयुक्त है और द्रव्य का तृतीय लक्षण गुण पर्या Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. वर्ष ४७, कि०३ अनेकान्त याश्रित है। इन्हीं का विशदीकरण करते हुए प्रथम सूत्र दूसरे प्रकार से स्कन्ध के छह और परमाणु के दो भेद कार बाचार्य उमा स्वामी ने कहा है-"सद्रव्य लक्षण, किए गए है।" "उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं तथा 'गुणपर्ययवाद् द्रव्यम्' १. स्थूलस्थूल-जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होने पर "तत्वार्थ सूत्र ५/३०, ३८" स्वयं न मिल सके, ऐसे ठोस पदार्थ यथा लकडी कुन्द कुन्द के अनुसार द्रव्यों की मग्या छह स्वीकार पत्थर आदि। की गई है। जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और स्थल-जो छिन्न-भिन्न होकर फिर आपस में काल ।' भारदीय दर्शनो, विशेषता वैशेषिक दर्शन में नव मिल जाय, जैसे घी, दूध, जल आदि । प्रव्यों की कल्पना को गई है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ३. स्थल सूक्ष्म-जो दिखने मे स्थूल हो अर्थात् अाकाश, काल, दिक् आत्मा और मन। नेन्द्रिय से ग्राह्य हो, किन्तु पकड़ मे न आवे इन द्रव्यो का विभाजन तीन दृष्टियों से किया जा जैसे छाया, प्रकाश, अन्धकार आदि । सकता है। चेतन-अचेतन की दृष्टि से विभाजन करे तो ४. सक्षम स्थल-जो दिखाई न दे, अर्थात नेत्रजीव द्रव्य चेतन है बाकी ५ अचेतन, मूर्तिक अमूर्तिक की न्द्रिय ग्राह्य न हो, किन्तु अन्य इन्द्रियो स्पर्श, रसना घ्राणादि से ग्राह्य हो। यथा ताप, ध्वनि, दृष्टि से विभाजन करें तो पुद्गल मूर्तिक है बाकी ५ अमू गन्ध, रस स्पर्श आदि। तिक तथा अस्तिकाय, अनस्तिकाय की दृष्टि से विभाजन ५. सूक्ष्म- स्कन्ध होने पर भी जो सूक्ष्म होने के करें तो काल अनस्तिकाय है बाकी ५ अस्तिकाय ।' कारण इन्द्रियो द्वारा ग्रहण न किया जा सके। कुन्द कुन्द के अनुसार पुद्गल द्रव्य मूर्तिक अचेतन, यथा कर्म वर्गणा आदि । अस्तिकाय है। माध्वाचार्य ने पुद्गल की व्युत्पत्ति करते . अति सक्ष्म-जो कर्मवर्गणा से भी सूक्ष्म हो हुए लिखा है-'यूरयन्ति गलन्तीति पुद्गल.' अर्थात् जो यथा द्यणुक। द्रव्य "स्कन्ध अवस्था में" अन्य परमाणुओ से मिलता है। परमाणु भी कारण परमाणु कार्य परमाणु के भेद से ___ "पु+णिच्" और गलन “गल"-- पृथक होता है, दो प्रकार का है। जो पृथ्वी जल आदि का कारण है, उसे पुद्गम कहते है। आचार्य कुन्द कुन्द ने कहा है- उसे कारण परमाणु और स्कन्धो का जो अन्त है वह कार्य वण्ण रसगंधफासा विज्जते पोग्गलस्स सुहमादो। परमाणु है" परमाणु सूक्ष्माति सूक्ष्म है। यह अविनाशी, पुढवीपरियतम्स य सद्धो सो पोग्गलो णिच्चो ॥ शाश्वत् शब्दरहित तथा एक है। परमाणु का आदि मध्य अर्थात् पुद्गल द्रव्य मे नीला, पीला, सफेद, काला और अन्त वह स्वयं ही है-- और लाल ये पाच रूप, कडुआ तीखा, आम्ल, मधुर और "अत्तादि अनमज्नं अत्तन्त णेव इंदिए गेज्म । कषायसा ये पांच रस, सुगन्ध तथा दुर्गन्ध थे दो गन्ध अविभागी जं दव परमाण तं विआणाहि ॥२ और कोमल-कठोर, गुरू-लघु, शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष ये अर्थात् जिसका स्वय स्वरूप ही आदि मध्य और अन्त स्पर्श हैं। ___रूप है, जो इन्द्रियो के द्वारा द्रष्टव्य (ग्राह्य) नही है ऐसा पुद्गल दो प्रकार का है एक अणु और दूसरा स्कन्ध अविभागी द्रव्य परमाणु है। यहा ध्यातव्य यह है कि स्कन्ध के स्कन्ध, स्कन्धदेश और स्कन्ध प्रदेश ये ये तीन परमाणु का यही रूप आधुनिक विज्ञान भी मानता है। भेद हो जाते है । अणु मिलाकर ८ प्रकार के पुद्गल कहे जा अधुनिक विज्ञान के अनुसार भी परमाणु किसी भी इन्द्रिय सकते है। जो सर्व कार्य-समर्थ हो उसे स्कन्ध कहते है। या अणुवीक्ष्ण यन्त्रादि से ग्राह्य नहीं होता है। इसी तथ्य कन्ध के आधे भाग को स्कन्ध देश और उससे भी आधे की पुष्टि करते हुए प्रोफेमर जान, पिल्ले विश्वविद्यालय भाग को स्कन्ध प्रदेश कहते है तथा जिसका दूसरा भाग न ब्रिस्टल ने लिखा हैहो सके उसे अणु या परमाणु कहते हैं।' "We cannot see atams eithar and never Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंटकर और पुबगल द्रव्य : आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष्य में shall be able to...Even if thay were a million विज्ञान ने शब्द को टेपरिकार्ड, रेडियो, ग्रामोफोन, केसिट times bigger it wouls still be impossibl to see रिकार्डर, टेलीफोन आदि ध्वनि यन्त्रो से पकड़कर एक them evnn with the most powerful microscope स्थान से दूसरे स्थान पर भेजकर जैन दर्शन के सिद्धान्त that has been mods" (An outine for Boys का ही समर्थन किया है। पुद्गन के अणु तथा स्कन्ध Girls and their parents (Collaniz Section भेदों की जो २३ अवान्तर जातिया स्वीकार की गई हैं, chemistry p261) 13 उनमें एक जाति भाषा वर्गणा भी है। ये भाषा वर्गणायें जैन दर्शन के अनुसार परमाणु पूर्ण ज्ञानी “सर्वज्ञ" के लोक मे सर्वत्र व्याप्त है। जिस वस्तु से ध्वनि निकलती जनगोचर है। उक्त तथ्य से स्पष्ट है कि आज से दो है, उस वस्तु मे कम्पन होने के कारण इन पुद्गल वर्गहजार वर्ष पूर्व कुन्द न्दाचार्य द्वाग लिखा गया परमाणु णाओ में भी कमान होता है, जिससे तरंगे निकलती है, का स्वरूप-"णव इदिए गेहं" कितना वैज्ञानिक है। ये तरगे ही उत्तरोत्तर गदगल की भाषा वर्गणाओ में परमाण एक प्रदेशी है। 'वह नित्य है, वह सावकाश कम्पन पैदा करती है, जिससे शब्द एक स्थान से उद्भूत भी है और निरवकाश भी।' सावकाश इस अर्थ मे है. दूसरे स्थान पर पहुंचता है। आधनिक विज्ञान भी शब्द कि वह स्पर्शादि चार गणो को अवकाश देने में समर्थ है वो तथा निरवकाश इस अर्थ मे है कि उसके एक प्रदेश में शब्द भापा-भक और जगापात्मक के भेद से दो प्रकार दसरे प्रदेश का समावेश नहीं होता। परमाणु परिणमन- का है। भापात्मनः न अक्षगन्मा और अनक्षरात्मक के शील है, वह किमी का कार्य नही अत.. अनादि है यद्यपि भेद से दो प्रकार का है। संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी आदि उपचार से उसे कार्य कहा जाता है। भापाओ के जो शब्द है, वे अक्षरात्मक शब्द है, तथा गाय परमाण, शाश्वत है, अत. उसकी उत्पत्ति उपचार में आदि पशुओ के शब्द-गकेत अनाक्ष गत्मक शब्द हैं। है, परमाणु कार्य भी है और कारण भी है। जब उसे अभापात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैयमिक के भेद से दो कार्य कहा जाता है, तब उपचार से ही कहा जाता है, प्रकार का है। प्रायोगिक चार प्रकार का है तत, वितत, क्योकि परमाण सत् स्वरूप है, धोव्य है अत. उमकी घन और सुपिर ।' उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। परमाणु पुद्गल की परम्पर में लेप बन्ध कहलाता है। यह भी प्रायोस्वाभाविक दशा है जबकि स्कन्ध अशुद्ध पर्याय ।" दो गिक और वस्रमिक के भेद मे दो प्रकार का है। प्रायोगिक या अधिक परमाण मन्धो का कारण है, उपचार से कार्य अजीव तथा जीवाजीव के भेद में दो प्रकार का है । लाख भी इस प्रकार है कि लोक मे स्कन्धो के भेद से परमाणु लकडी आदि का बन्ध अजीव तथा कर्म और नोकर्म का की उत्पति देखी जाती है। इस भाव को आचार्य उमा- बन्ध जीवाजीव प्रायोगित बन्ध है । बसक भी आदि स्वामी ने इन शब्दो मे कहा है और अनादि के भेद मे दा प्रकार का है। धर्मास्तिकाय "भेदादणु"--अर्थात् अणु भेद से उत्पन्न होता है। आदि द्रव्यों का बन्ध अनादि है और पुदगल का बन्ध किन्तु यह प्रक्रिया तब तक चलनी चाहिए जब तक सादि है। परमाणोभ पर पर बध के सन्दर्भ मे कुन्द स्कन्ध द्यणुक न हो जाये । कुन्द का मत है कि स्निग्ध तथा रूक्ष गुणो के कारण एक शब्द, बन्ध, मूश्मत्व, स्थूलत्व, सस्थान, भेद, अधकार, परमाण दूसरे परमाण के गाय मिलना है। किन्तु यह छाया, आतप और उद्योत ये पुद्गल की पर्याये स्वीकार नियम है कि परमाणओ के बन्ध की प्रक्रिया मे उनमे दो की गयी है। __गुण अर्थात शत्या का अन्तर होना चाहिए जमे कोई शब्द को अन्य भारतीय दर्शनो, विशेषत. वैगेपिक परमाण दो स्निग्ध शम्या वाला है तो दूगग परमाण, दर्शन ने आकाश का गुण माना है।" किन्तु जैन दर्शन जिसके साथ बन्ध होता है --उसे चार शक्त्यंग स्निग्ध या में पुद्गल की पर्याय माना है, जो समीचीन है । आधुनिक रूक्ष वाला होना चाहिए।' इसी प्रकार तीन को पाच, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वर्ष ४०, कि०३ अनेकान्त पाठ को दस शक्त्यश वाला होना आवश्यक है। भाव यह समर्थन किया है। सूर्य का उष्ण प्रकाश आतप और है कि बन्ध में सर्वत्र दो शक्त्यमों का अन्तर होना चाहिए, चन्द्रमा का ठण्डा प्रकाश उदयोत है। में इसमें कम न इससे ज्यादा। किन्तु एक गुण "शक्त्यंश" इस प्रकार कुन्द कुन्द साहित्य में पुद्गल तथा परपाले परमाणु का बन्ध नहीं होता। माण के सन्दर्भ में विस्तृत विवेचना उपलब्ध होती है कुन्द कुन्द ने लिखा है परमाणु की उत्कृष्ट गति एक समय में चौदह राज़ बताई जिंदा व लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा। गयी है आधनिक विज्ञान ने भी इसका समर्थन किया है समदो दुराधिगा जदि बझंति हि आदि परिहीणा ।। आवश्यकता है ऐसे अन्वेषको की जो आधनिक और प्राप्य विज्ञान का ममालोचनात्मक अध्ययन कर सामञ्जस्य बैठा इसी प्रकार सूक्ष्मत्व भी पुदगल को पर्याय है । अन्त्य सकें। परमाणु के सम्बन्ध में डा० राधाकृष्णन के वक्तव्य सक्षमत्व परमाणुओ तथा अपेक्षिा सूक्ष्मत्व बेल, आवला के साथ हम इस नि : ति में है। अन्त्य स्थौन्य लोकरूप महास्कन्ध और अगओ के साथ श्रेणी विभाजन से निर्मित वर्गो की बापेक्षिक स्थौल्य वेर, आवला आदि में होता है। मेध नानाविधि आकृतिया होती हैं। कहा गया है कि अणु के आदि की आकृति संस्थान है। पुदगल पिण्ड का भंग होना अन्दर ऐसी गति का विकास भी सम्भव है, जो अत्यन्त भेद कहलाता है। वेगवान् हो, यहा तक कि एक क्षण के अन्दर समस्त नेत्रोको रोकने वाला अन्धकार और शरीर आदि के विश्व की एक छोर से दूसरे छोर तक परिक्रमा कर निमित्त से प्रकाश आदि का रुकना छाया है । छाया को माये । भी अन्य दर्शनो ने पुदगल नही माना है किन्तु आधुनिक अध्यक्ष संस्कृत विभाग, विज्ञान से कैमरे, फिल्म आदि मे छाया को पकडकर तथा श्री कुन्द कुन्द जैन महाविद्यालय, एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजकर जैन दर्शन का ही खतौली २५१२०१ "उ० प्र०" सन्दर्भ१. कुन्द कुन्द, पंचास्तिकाय' गाथा १० १४. 'पंचास्तिकाय' गाथा ८१ २. 'नियमसार' गाथा 9 १५. वही गाथा ८० ३. 'तर्क संग्रह' पृष्ठ ६ मोतीलाल बनारसीदास १६. 'नियमसार' गाथा २८ संस्करण १७ वही गाथा २५ ४. 'पचास्तिकाय' गाथ ४ १८. 'तत्वा मूत्र' ५/२० ५ माधवाचार्य, 'सर्वदर्शन संग्रह' पृष्ठ १५३ चौरवम्वा विद्याभवन संस्करण १९ 'शब्द गुणकमाकाशम', 'तर्कस ग्रह पृष्ठ ४३ २० 'तत्वार्थ सूत्र' वर्णी ग्रन्थमाना प्रकाशन, पृष्ठ २३० ६ 'प्रवचनसार' गाथा १३२, जयपुर सम्करण २१ 'पंचास्तिकाय' गाथा ७६ की व्याख्या राजचद्र ७. नियमसार' गाथा २० शास्त्रमाला ८. 'पचास्तिकाय' गाथा ७४ ६. वही गाया ७५ २२ प्रवचनसार २/६६ १०. नियममार' गाथा २१-२४ २३ प्रो० जी० आर० जैन ने स्निग्धत्व को वैज्ञानिक ११. वही गाथा २५ परिभाषा मे निगेटिव और पॉजिटिव माना है। १२. वही गाथा २६ "दे० 'तीर्थकर महावीर स्मृति ग्रन्थ', जीवाजी १३. 'जैन दर्शन का तात्विक पक्ष परमाणुवाद" जैन विश्वविद्यालय ग्वालियर प्रकाशन पृष्ठ २७५दर्शन और संस्कृति नामक पुस्तक में संकलित २७६" निबन्ध इन्दौर विश्वविद्यालय प्रकाशन अफ्ट० २४ 'भारतीय दर्शन'प्रथम भाग राजपाल एण्ड सन्स, मा दिल्ली, १९७३, पृष्ठ २९२ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औचित्य धर्म का ... आचार्य राजकुमार जन भारत वर्ष आरम्भ मे ही धर्म प्रधान और धार्मिक वत्ति है। सम्पूर्ण देश आज साम्प्रदायिक उन्माद की गहरी वाला देश रहा है और देश मामियो की प्रत्येक गतिविधि गिरपत मे है जो घन्धिता, धार्मिक कट्टरता, पारस्परिक एवं आचरण धामिकता और आध्यात्मिकता से अनुप्राणित विद्वेप और नफरत के कारण उत्पन्नत हुआ है तथा धर्म रहा है, परिणामत प्रदेश देशवासी चाहे सनासीन हो या निरपेक्षता की आड मे पनप रहा है इसके साथ ही, देश साधारण नागरिक हो, नैतिकता के सामान्य नियमो से की वर्तमान धर्म निरपेक्ष नीति को जो राजनैतिक रंग बधा हुआ था। समाज और राष्ट्र के प्रति वह अपने दिया गया है उसके कारण उत्पन्न भ्रान्त धारणा ने केवल कर्तव्य वोध में युक्त और उसके निर्वाह के लिए जागरूक ४५ वर्ष के अल्पकाल मे ही भारतीय जन जीवन में एव तत्पर था। किन्तु आज भारतीय जन मानस मे अध्या नैतिकता और सदाचार का जो अवमूल्यन किया है बाप त्मिकता का भाव तिरोहित हो गया है और भौतिकवादी वह हमार से सवारी वह हमारे समक्ष विचारणीय है। विचारधारा के बीज तीच गति से अकुरित होकर सम्पूर्ण आज देश की अखंडता और साम्प्रदायिक सदभाव के जीवन शैली में इस प्रकार व्याप्त हो गए है कि उन्होंने सन्दर्भ मे धर्म निरपेक्षता शब्द न केवल प्रासंगिक हो गया सभी जीवन मूल्यो का ह्राम कर उन्हे बदल दिया है। है. अपितु अत्यधिक चचित हो जाने के कारण सहत्वपूर्ण भारतीय जन जीवन में आध्यात्मिकता के स्थान पर भी माना जाने लगा है। यह देखा गया है कि कभी-कभी भौतिकवादी विचारो का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित अर्थ विशेष में प्रयुक्त हुआ शब्द परिस्थिति बश ने हो रहा है। केवल अपना अर्थ खो देता है, अपितु सर्वथा अप्रासंगिक आज जन साधारण धर्म और सम्प्रदाय मे स्पष्ट भेद भी हो जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य मे यदि "धर्मनिरपेक्षता" नहीं कर पा रहा है। इतना ही नहीं, अपितु जन साधारण को देखा जाय तो स्थिति उपर्य क्त जैसी ही प्रतीत सम्प्रदाय को ही धर्म मानकर तद्वत आचरण कर रहा है। होती है। वास्तव मे धर्मनिरपेक्षता शन्द आधुनिक युग यद्यपि प्रबुद्ध वर्ग एवं विद्वान जन धर्म और सम्प्रदाय मे की देन है जो अग्रेजी के 'राक्यूलर" शन्द से अनुवादित स्पष्ट भेद करने और उसे समझने में समर्थ है, किन्तु दुरा- किया गया है। सर्व प्रथम यहा यह देखना मावश्यक है ग्रही विचारणा के कारण सम्भव नही हो पा रहा है। कि क्या धर्मनिरपेक्षता उस भाव मे सेक्यूलरिज्म का पही वास्तव मे धर्म और सम्प्रदाय में बहुत बड़ा अन्तर है। अनवाद है जिस भाव में "सेक्युलरिज्म" शब्द प्रयुक्त हुआ धर्म उदार, विशाल और सहिष्णु दृष्टिकोण अपनाता है है। सही मायने में यदि देखा जाय तो ऐसा नहीं हुवा है। जबकि सम्प्रदाय सकुचित दृष्टिकोण को जन्म देता है। गत 45 वर्ष के दौरान देश का वड़े से बड़ा नेता भी अत. धर्म को व्यापक दृष्टिकोण के रूप में देखना और सेक्युलरिज्म को भी परिभापित करने में असमर्थ रहा है। समझना चाहिए । इस यथाथ के साथ यदि देशवाशी यद्यपि सेक्युलरिज्म की अवधारणा को नेताओ ने अच्छा अपनी मानसिकता, दृष्टिकोण और वैचारिक अवधारणा बतलाया है, किन्तु विडम्बना यह है कि भारतीय चिन्तन को अपनात हैं तो दश मे कही भी और कभी भी धामिक धारा का प्रवाह जिस दिशा में हुआ है उसमें सेक्यूलर उन्माद की परिणति दगा-फसाद, हिंसा या रक्तपात के या सक्यूलरिज्म जैस शन्द के लिए कोई स्थान नहीं है। रूप में नही हा सकती है। किन्तु स्थिति आज ऐसी नहीं अतः नतामण उसका समानाथी बम्म न तो वितरित Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, वर्ष ४७, कि० ३ अनेकान्त कर पाए और न ढूढ पाए। इसका आशय नेताओ यह था कि भारतीय शासन किसी कट्टरवाद या सम्प्रदाय योग्यता को रेखाकित करना नहीं है, किन्तु इतना अवश्य का पक्ष पाती नहीं रहेगा, क्योंकि निरपेश का तात्पर्य है कि देश हित में नेताओ की चिन्तन शैली एव विचारण होता है "उदासीन होना"। अतः कट्टरवाद या सम्प्रदाय शक्ति जो प्रतिबिम्ब उनके आचरण में परिलक्षित होती निरपेक्ष याने कट्टरवाद या सम्प्रदाय से उदासीन होना। है उसने इस शब्द के यथार्थ को अवश्य विकृत कर दिया वास्तव मे कोई भी देश व्यापक और सही अर्थ में प्रयुक्त है। सम्भवतः यही कारण है कि आज भारतीय धर्म धर्म से उदासीन हो ही नहीं सकता है। यहा यदि अभि और समाज के सन्दर्भ में 'सेक्यूलरिज्म' की सही परिभाषा, प्रायार्थ ग्रहण किया जाय तो मम्प्रदाय निरपेक्ष होना अधिक अर्ष और भाव को व्यस्त कर पाना सम्भव नहीं है। समीचीन, सार्थक और उपयुक्त है। विश्व में समय-समय हमारे शास्त्रो के अनुसार धर्म सार्वभौमिा है जो पर हिंसा का जो ताण्डव और भीषण रक्तपात हुआ सर्वोदय और सर्व कल्याणकारी है। वह प्राणिमात्र को है वह इस देश के नीति निर्माताओ की दृष्टि मे अवश्य धारण करने वाला है, अतः वह मर्वग्राह्य, सबके द्वारा था। उससे बचने के लिए तथा देश को हिंसा और रक्तअनुकरण वं अनुमारित किए जाने योग्य है। धर्म एक पात से बचाने के उद्देश्य से उन्होंने देश को "सेक्युलर' ऐमा शब्द है जो अपने अर्थ गाम्भीर्य के माय अर्थ की घोषित किया जो सम्प्रदाय निरपेक्ष के अर्थ मे समीचीन व्यापकता को संजोए हुए है और प्राचीन काल मे उसी है, न कि धर्मनिरपेक्ष के अर्थ मे। रूप में वह प्रयुक्त किया जाता रहा है, किन्तु आज उसे वास्तव में यदि देखा जाय तो धर्म और सम्प्रदाय मे संकुचित कर इतना अधिक विकृत कर दिया गया है कि जमीन आसमान का अन्तर है। धर्म की विविधिता होना वह न केवल अपने अर्थ की व्यापकता, अपितु मूल अर्थ अलग बात है, एक धर्मावलम्बी होना भिन्न बात है और और उसके अन्तनिहित भाव को भी खो चुका है। धर्म रहित या धर्म निरपेक्ष होना अलग वात है। भारतीय सेक्यूलरिज्म का अर्थ यदि धर्म निरपेक्षता किया जाता शासन का धार्मिक सिद्धान्तो से विरोध सम्भव नही है है.जैसा कि आजकल चचित और प्रचलित है तो यह जवकि साम्प्रदायिक भावना के लिए उसमें कोई स्थान मानना होगा कि देश स्वतन्त्रता के पश्चात् देश के सवि- नही है। इस सन्दर्भ मे इस ममं को समझना आवश्यक है धान निर्माताओ ने देश को धर्म निगे बनाने की बात कि आखिर धर्म है क्या? सक्षेप मे इसका उत्तर यह है कि कही और "धर्म निरपेक्ष नोति अपनाने की घोषणा की। जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना एवं उच्चादर्शी का तब से लेकर आज तक समय-समय पर इस पर व्यापक आचरण धर्म की परिधि मे आता है। जो व्यक्ति या पर्वा भी हो चुकी हैं और देश के उच्च कोटि के राजनेता, समाज या देश इससे शून्य है वहा धर्म नहीं है। जो राजनीतिज्ञ, प्रबुद्ध जन तथा विद्वत् वर्ग अपना मन्तव्य सिद्धान्त या बाते हमारे अन्त.करण मे उदारता, सहिष्णुता व्यक्त कर चुके है । इसके बावजूद इसकी मूल अवधारणा और आचरण को शुद्धता के भाव को अंकुरित करते है वे अभीतक स्पष्ट नहीं हो पाई है। इसका कारण सम्भवतः ही सिद्धान्त जीवन मे नैतिक मूल्यो कीस्थापना करते है। यह हो सकता है कि धर्म निरपेता को बात केवल अत, धर्म की अवधारणा मात्र उन्ही सिद्धान्तो पर अवराजनैतिक क्षेत्र में और राजनीति के सदर्भ में ही अधिक स्थित है। कोई भी राष्ट्र उन सिद्धातो की अवहेलना पचित रही है। इसके अतिरिका धर्म निरपेक्षता का सही कैसे कर सकता है ? अथवा उनसे निरपेक्ष कैसे रह सकता अर्थ न अपना कर इसकी व्याख्या इतने गलत ढंग से की है? क्योकि राष्ट्र की स्थिरता का आधार वे ही नैतिक गई कि जनसाधारण में ऐसी भ्रान्त धारणा व्याप्त हो मूल्य है। अतः राष्ट्र की अम्युन्नति और प्रगति के लिए, गई है कि भारतीय शासन अवामिक है अथवा धर्म से लोगो मे सद्भाव बनाए रखने के लिए राष्ट्र का धर्म उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, जबकि उसका यह तात्पर्य सापेक्ष होना आवश्यक है। कदापि नही था । वस्तुत. उसका अभिप्राय और उद्देश्य वास्तव में देखा जाय तो आज धर्म निरपेक्ष के स्थान Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औचित्य धर्मका पर सम्प्रदाय निरपेक्षता की बात कहना अधिक उपयुक्त उनका आदर्श चरित्र त्याग की भावना गे परिपूर्ण रहा होगा। क्योकि आज जो बुराश्या सिर उठा रही हैं और है। ऐसा नही है कि आदर्श जीन पति वाली विभजिन बुराइयो ने जनमानस में अपनी पैठ बना रखी है तिया ही अपनी पावन गरिमा गरे को महिमा उनका मूल या उगम मम्प्रदायवाद और साम्प्रदायिक मंडित करती रही हैं, तु दुर्गोपन, दुगमन, जयनन्द, भावना मे है। लोगो मे असहिष्णुता और विद्वेप की गोडमे जैसे कायर पुरु भो अपनी दुर्गायना मोर दुन्यो भावना सम्प्रदायिकता के कारण उत्पन्न होती है, न कि से इस धरा की पवित्रता और उत्कृष्ट नानो गमिहन करते धर्म या धार्मिक नाता के कारग। धर्म तो सहिष्णुता, रहे है, किन्तु फिर भी हमारे धामिर, दार्शनिक एवं सद्भाव, वैचारिक उच्चता और पारम्परिक सौमनस्य को सास्कृतिक मूल्य और और उन पर साधा गिद्वा-त जन्म देता है अन वर्तमान मे धर्म की आड लेकर पिया अपरिवर्तित रहे हैं। अनेक शिवशी आम.माणो और पर. जा रहा रहा सम्पूर्ण व्यवहार और क्रिया कलाप हमारी तन्त्रता के बावजूद उनगे कोई परिवर्तन नी अ.या। विकृत मानसिकता और नातक मूल्यों में गिरावट कानी यद्यपि यह संमार और दम गंगार गी गगन भौतिक सकेत करता है। आज हप अपनी बात तो रहना चाहने वस्तुए परिव-निशील हे और गबाण बदाना रना है, है, किन्तु दूमगे की बात नही मुनना चाहते। आज लोग किन्तु धर्म कभी नहीं बदला, वापि , या की जिस धर्म और धामिक मदभार की बात करते है। उगका धुरी पर आरित होता है, उगले गुल मे "याग और अमल या आवरण शायद एक प्रतिमान नहीं कर पाते है। पर कल्याण का भाव निहित रहता है। नियमात फिर उस धर्म या धार्मिक मर्यादा की रक्षा की बात मे जो धर्म निरपेक्षता की बात की जानी-17 तक उनके मन में गाना कितनी हारपाम्पद लगती है। आज उाचत आर आर प्रागोगा +7 याचा लोगो के दिलो में धर्म नही, सम्प्रदायिकता के बीज बोए व्यापक सन्दभ मे यदि देगा नाप नोभा प्रति जा रहे हैं। इसीलिए लोगो के मन में महिष्णुता की मे सम्प्रदाय या पय को भी पाने या ति ने बजाय अमहिष्णता पनपनी जा रही है। जब की पग अवसर मिले है। भारतीय मा निकायला मी काष्ठा होती है तो नमान के ठेकेदागे के मन मे यदरता है कि उसने सभी राम्प्रदायो को पर्याप्त मान Hिer की विकृति मापदाकि उन्माद आने पूरे उफान के माप यथा सम्भव आत्मसात ज्यिा। फिर 17 : 11 निकलता है और नर महार का विकगन रूप धारण कर प्रकार का विसार उतान्न ना । एगना मारा गह सम्पूर्ण मामाजिक व्यवस्थाओ को छिन्न-भिन्न कर देता था कि जो भी मम्प्रदाय या पप भाग : है। गके प्रत्यक्ष उदाहरण हम पिछले दिनो के दगी में आत्ममान् होकर विकगित मा उमगे गो मायाण या देख चुके है। जनहित की भावना मर्वोपरि थी। यदिगिनी -AT यद्यपि भारतीय गमाज में प्राचीन काल से ही अनेक तो यह देश कभी का विखण्डित हो गया होना । माय ता यह दश कभा विकृषियो का आवागमन होता रहा है, इसके बावजद के मूल मजा भाव निहित है। च। यह है finा भारतीय दर्शन नीर मम्वृनिती अक्षणता बरा.रार हैजो किसी से कुछ प्राप्त करन को म. गावो मापक मानसिकता, चिनन पद्धति और दटकोण की व्यापकता। प्रकार से देना। इसी मे जन कल्याण एव मगल की उदात्त की परिचायक है। इसे देखते एहगे यह विश्वाम रखना भावना निहित है। अतः गम्प्रदाय मे किसी प्रकार चाहिये कि वर्तमान समाज में आई विकृति भी अधिक के अनिष्ट होने का तो प्रश्न ही नहीं है। समय तक रहने वाली नहीं है। हमारे देश और समाज आज देश मे जो कुछ भी घटित होना है की मे यह परम्पग रही है कि देश में जिन महापुरुपो ने त्याग समीक्षा की जाय तो ज्ञात होता है कि आज जन मानस में या उत्सर्ग किया है वे सर्वदा पूज्य रहे है। महावीर, बुद्ध, पर्याप्त बदलाव आया है। लोगा की मानसिक जाज राम और महात्मा गांधी उमी कोटि के महापुरुप रहे हैं। शेप पृ० ३१ पर) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध मतियां लेखक : राजमल जैन भारत के अन्य भागो की भाति केरल मे भी जैन बौद्ध पारर्वनाथ की मूनि हटा दी गई तो केवल फण ही शेष रह मूर्तियों में भेद का अभाव पाया जाना है अर्थात् जैन गए। उन्हे देख शायद इस मंदिर का नाम नागनाथ मदिर मूर्तियो को कभी-कभी बुद्ध की मूनि कह दिया जाता है। रख दिया गया। तात्पर्य यह है किरातत्वविदो को तो केरल स्टेट के गजेटियर वॉल्यूम ११ (१९८८ मे जो चित्र कम से कम जिन प्रतिमाओ नेमबंध में गम्यक जानकारी पुस्तक के अन्त मे दिए गए है, उनमे भी इसी प्रकार की होनी चाहिए ताकि गजेटियर जमी भले न हो और लोगो भूल देखी जा सकती है। इसमे कल्लिल की जैन मूति के को मही जानकारी मिल सके। साथ एक चित्र छपा है। उसके नीचे एक पक्ति मे छठी शताब्दी के विग्यान अन ग्रंथ बहत्महिता में Buddha at Paruyassery मुद्रित हुआ है। यदि इस जिन प्रतिमा का निर्माण वराहमिहिर ने निग्न प्रकार चित्र को ध्यान से देखा जाए, तो यह स्पस्ट होगा कि तीन बनाया है-- छत्रो या छत्रत्रयी से शो मत यह नग्न दिगबर जैन मूति आजानुतम्बबाह' श्रीबन्या प्रान्त विदच । पद्मासन मे है और उसके आसपास सभवत चमरधारी दिग्वासास्तरूणो रूपवारच कार्याना देवः ।। है। छपाई स्पष्ट नहीं है। अर्थात् अर्हन्त या जिन प्रतिमा घुटना तक लबी कन्याकुमारी जिले के चितगल गाय के पास एक भुजाओवाली, वक्षस्थल पर श्रीव म चिन्ह मे युमन, प्रशान्त, पहाड़ी का नाम है तिरूच्चारणटमले जिमका अर्थ होता दिगम्बर या नग्न, तरुण अवग्थावानी तथा गदर या रूपहै-चारण (ऋद्धिधारी जैन मुनि) की पवित्र पहाड़ी। वान बनानी चाहिए। यह लण कायोत्मग प्रतिमा पर वहां का प्राचीन गुफा मदिर अब भगवती कोविल या लागू होता है। मंदिर कहलाता है । इसके गर्भगह में महावीर पार्श्वनाथ केरल के पसिद्ध पुगनववेना श्री गोरीनाथ गव ने और अम्बिका देवी की मूर्तिया है । कोविल के पुजारी भी यह इलोक उद्धत किया। महावीर की मूर्ति को युद्ध की मूति नवाते है जो कि जन मानसार नामक गिढ़ ग्रश में भी नि प्रतिमा भूति के संबंद्ध में जानकारी के अभाव के कारण है। इसी का न.ण दिया गया। प्रमोग्न के गागने इमका प्रकार अन्य जैन प्रतोको के सबंध में भी भाति होती है। अग्रेजी गंम्करण है। -ममे निम्न प्रा र उत्त* .."It पार्श्वनाथ की मूर्ति पर फणावली के सबध में जानकारी should have tv.n arms and twyes and के अभाव में भी म्रम उत्पन्न होता है। अब वे नागगज should be clean . ' on 1 : should कहलाते हैं जैसे नागरकोविल या मदिर। फणो के कारण be the top knot ( 11 ) 6: विद्वान उन्हें अनन्तनाग पर शयन करने वाले विष्णु बना संपादक ने प्रश्न चिन्ह टीक ही ना है। जिन पतिमा लेने में या मान लेने में कोई कठिनाई अथवा आपत्ति केशहित नही होती। इसके म तक पर ज़डा जमा भी नही हुई होगी। सोलहवी सदी तक वह कोविल जैन नहीं बनाया जाता। व? बुद्ध का उणीप हो गलता है। मंदिर था। परिवर्तन करने वाले शायद यह भूल गए कि जैन मूर्ति और मदिर निर्माण सबंधी अनेक प्राचीन विष्णु वाहन तो गरुड़ है जो नाग का शत्रु है। ऐसी ही ग्रंथ है । यहा विक्रम की तेरहवी सदी के लेखक पं० आशाएक स्थिति कर्नाटक के एक गाव लक्कुडी में हुई है जब घर के ग्रंथ से एक उदधरण दिया जाता है । उन्होने अनेक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बोड मूर्तियां १६ प्राचीन ग्रंथों का सार लेकर जिन प्रतिमा के निर्माण के घुटनो को छते हए और शरीर से सटे हुए दृढ़ स्थिति में लिए निम्न बाते आवश्यक बताई है-- दिखाए जाते है। शिल्पशास्त्र की भाषा मे वे आजानुलंब शातप्रसन्न मध्यस्वनासाग्रस्थाविकारक । होते है। सपुर्णमापरूपानुविक्षागलक्षणान्वितम् ।। ४. नेत्र अविकारी होते है। उनमे क्रोध, रोष या जोशात,प्रसान, मध्य--4, नासास्थित, अविका अन्य किसी प्रकार का विकार नहीं पाया जाता। आखें न दृष्टि वाली T, जिम . अग वीतरागपना दर्शाता हो, तो मदी हुई होती है और न ही दष्टि वक होती है। अनुपम वर्ण , रोम आदि पारह दोषो से रहित हा, इसके विपरीत दष्टि नासाग्र पर केंद्रित दर्शाई जाती है। अशोक आदि : हायके युग हा आर दोना ओर या तीर्थकर मति के नेत्र जोन्मीलित होते है। वह ध्यान मे यक्षी वेष्टित हा एमी जन प्रतिमा को बनवा कर विधि लीन निजातीका सहित सिंहासन पर विराजमान कर। या व्याख्या ५. मुर्ति पदमा मन हो या कायोत्सर्ग, वह किसी लेखक न सपनो का मे स्वय कोह। आसन या पादपीट पर विराजमान होता है । समान्यतः जैन भूतियाविप लण साधारण भाषा यह आसन कामनाकार होता है। शिरप योजना प्राय. में इस प्रकार -- ऐसी होनी है कि एक कमल की पखाया कार की ओर १. जैन 47 या होती है। उस पर खिली दिखती है, तो इसके नीचे दूसरे कमल की पखडिया किसी वस्त्र या जमपण नहीं लिया जाता है। नीचे की ओर खिली पर्दाशत की जाती है। श्वेतावर जातीयतर मालया पर कभी-कभी वस्त्र ६. केश या बानो का अंकन धघाने रूप में किया अभूपण का अंकन करवा ६। है जो कि प्राथ. धोती जाता है। बाल पोदार दिखते हैं। प्रथम तीर्थंकर के रूप में होता । कार की मूतिया बहुत ही कम ऋपभ देव की कही-ग जटाए भी अपित की जाती हैं पाई गई है। केरल मता पावल एका स्थान पर ही ऐमी जो कि कंघो तक किन्न मुलझी हुई प्रदर्शित की जाती हैं। मृति प्राप्त हरह।। १। कदा एक स्वताबर मदिरा म शेप तीर्थकरी के मा : केश ही अकिन किए जाते है। मुकुट आदि समाग्नि मू14 अवश्य देखा जा सकती ७. मूर्ति की मुद्रा प्रशात, निविकार, ध्यानमग्न, है। स्पष्ट है कि पि । अभाव है। वैसे केरल स्मितयुक्त या मद मुस्कानपूर्ण ऑफत होती है। मे दिग वर मूतिया ही अप्ति हुई है। ८. श्रीवत्स चिन्ह (कमन की चार पखुडियो जैसा २. मूति बल दोही आसना में होती है। पद्मामन गोलाकार चिन्ह) वक्षस्थल पर अकित किया जाता है। या ध्यान मुद्रा बनेठी दुसरया खड़ी हुई। इस अवस्था प्राचीन प्रतिमाआ में यह नहीं भी पाया जाता। को कायोत्सर्ग द्रा पह। है । जिनमे काय या गरीर का . तीर्थकर या जिन प्रतिमा सदा ही न रुण अवस्था उत्सर्ग प्रदमित हो । इनान्द्रा रा शरीर ने ममत्व त्याग में, सुपुष्ट और सुबह शरी' की धारक बनाई जाती है ऐसा कर अत्मा का ध्यान करने की स्थिति सूचित होती है। शिल्प शास्त्र का विधान है। क्वचित अचं पद्मान मूर्ति भी उपलब्ध होती है। लेटी हुई १०. प्रतिमा का वक्षस्थल चौडा भोर कमर उसी के या अन्य .ि.मी मद्रा जवाब-भगिमा में जिन मूर्ति अनुपात मे पतली अति की जाती है। नहीं बनाई जाती है तीर्थक गति उपदेग मुद्रा में भी नही ११ प्रतिमा के आसन या पादपीठ पर तीर्थकर से होती है। वः केवल ध्यानाया में ही निमित की से संबधित चिन्ह होता है। यह बीचो बीच खोदा जाता जाती है। है। चि हो की यहा एक तालिका दी गयी है। पादपीठ ३. हाथ केवल दो ही होते है। उनमे कोई आयुध पर एक सक्षिात विवरण होता है जिसमें प्रतिमा की प्रतिष्ठा या हथियार नही होता है। पदमासन मे हाथो के करतल का सवत, वह किस गण की है और कब किसने उसका ऊपर की ओर होते है। कायोत्सर्ग मद्रा मे हाथ लंबे, निर्माण कराया था एवं किस आचार्य आदि की प्रेरणा से Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, व। ४७ दि.०३ भनेकान्त उसका निर्माण हुआ था आदि तथ्य होते हैं। यह जान- की छाया होती है। किन्तु मात ग्यारह या बहुसंख्य फण कारी इतिहाग के लिए बड़ी महत्वपूर्ण गिद्ध होती है। भी देखे जाते है।विक फणो वाली मूनियो को सहस्र तिचा टप पर इस प्रकार कजनेक लेख है. फणी कहा जाता है। महरकणी पार्श्वनाथ प्रतिमाओ के जिनमत होता. जाचार्य अज्जनदो की प्रेरणा से अनेक मदिर भारत में है। अनेक प्रतिकात्रो का निर्माण हुआ था और यह कि सदर १७ बाहुबली की मूर्तिपर जघाओ तथा बाहओ पर तमिल देश कहानी उस पवित्र पर प्रतिमाओ पत्तोंवाली लता जवाय अषित की गई थी और निकट कर लिया था।जयन प्राचीन प्रतिमाओ मे इस ही बाबी भी बन थी। प्रकार काजभाव भी पाया जाता है। मध्य प्रदेश में १८. भरत की प्रतिमा के साथ नी घडी के रूप मे बन . कान . भदेव 84 फीट ऊची नो निधिया अक्ति की जाती है जा यह भूचित करती है कायोमग प्रतिमाह किरण के अभाव में उसकी कि जिसकी यह मूर्ति है, वह किमी ममय नौ निधियो से प्रावोनता ही नाकी जा सकती। विवरण युक्त चक्रवर्ती सम्राट् था। त्र.पामदेव के पुत्र इन्हो भरत निम देने का पनाद प्रारभ हआ। विनम्रता की के नाम पर देश भारत कहलाता है। पमा १८ जन मान्यता के अनगार सिद्ध भगवान की १२. समायचंत्याक्ष, जाकि सामान्यतः आन- प्रतिमाओ के साथ जान नही किनाते जो कि तीर्थकर वृ..होगा । वापरही, पादपीठ पर प्रतिमाओं के साथ किए जाते है। नियम है जो कभी...काहा जाट मानव-यदी या शामन देवता, मोक्ष प्राप्त कर चुकी है वे अगरीरी होती है, इस कारण आसन के दोनो बा पाद पीट पर पाच या स उनकी प्रतिमा का निर्माण सामान्या धातफलन पर चार टिका जमान होता। मीलिए उसे सिंहासन रिक्त मनुप्याति के रूप में होता है। म प्रकार की का जायर हानायः महावीर स्वामी की निर्मिति को स्टेसलक्ट' कहा जाता है। एगी प्रतिमा प्रतिमा यि हस्त होगा। सिंह से यह कायोत्सर्ग या खड़ी हुई ही बना जाती है। सूचित ..नीर ने भरपी भयकर मिट्टी को २० तीर्थकर प्रतिमा के कान ला बनार का है जो जीत ।। कि कभी-कभी दो को छूत या भी जान पर है । आज १. प्रमिामक के तीन छत्र उत्तीर्ण भी लबे कान महापुरुष होन के गूचा मान जाते किए जारहे। भीगी होता , और कही है। मूर्ति के कान फटे हा या अन्य किसी दोष से पूर्ण कही मार भी देना जाग। भात अलग से सोने नही होते और न ही उनमे मिा कार के नाभूषण या चादी के भी लटका दी है। वा तव मे, छत्रयी होते है । जिन पामा भी विशेष पहिचान। तीर्थकरो के लोधन या चिन्ह :Cognizances) १. निति के पी. भामडल hale भी लगभग १. ऋषभदेव या वृषभदेव बन पा वृषभ अनिवार्य रूप से अनित किया जाता है। यह पृष्ठासन मे २. अजितनाथ उत्कीर्ण L.या जाना है। वह गोलाकार बहुसख्य किरणो ३ सभवनाथ अश्व जैसी रेखाओं से युक्त होता है जहा इसमे कोई कठिनाई ४. अभिनदननाथ कपि या बंदर होनीया गत या अधिक अलारण करना चाहते ५. मतिनाय पाँच या चकवा है, वह। प नाचना गामडल भी लगा देते है। कमल ५ मानती। मृगाना की प्रतिमा पाच ७. सुपार्वनाथ नद्यावर्त गिर ) फणो से युक्त भी बनाई जाती है। स्वास्तिक श्वेताम्बर) १६. पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर सामान्यतः नौ फणों ८. चंद्रप्रभु अर्धचंद्र Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नबोर बौद्ध मूर्तियां गही सिंह ६. पुष्पदंत मकर वती देवी का आमन कमल है और वाहन सर्प है। उनके १०. शीतलनाथ स्वस्तिक (दिगम्बर) मस्तक पर फण भी दिखाए जाते हैं। अबिका देवी की कल्पवृक्ष (श्वेताम्बर) मुख्य पहचान आमवृक्ष के नीचे उनके साथ दो बालको का ११. श्रेयागनाथ गंडा अकन है। ज्यालामालिनी देवी का वाहन भैसा है। १२. वासुपूज्य भमा चक्रे वरी देवी के हाथ में धर्मचक होता है। इन देवियो १३. विमलनाथ नाकर अथवा यो के मम्नक पर की कही तीर्थकर प्रतिमा भी १४ अनंतना प्रदर्शित की जाती है जो कि उनका तीर्थकर के धर्म की १५. घर्मनाय वन रक्षक देवी या देव होना सुचित करती है। सभी यक्षो १६ शानिया हाण और यतिणियों का विवरण देना एक अलग पुस्तक का १५ वयुनाथ बाग झप ले सकता है। इसलिए अ धक लोकप्रिय का ही सकेत १८. अरनाथ मीन किया गया है। स लेना मुझय उद्देश्य बौद्ध और १६. मल्लिनाथ कलश जैन प्रतिमाओ मे भेद बताना है। २० मुनिसटतनाथ कमें बोद्ध प्रतिमाए २१. नमिताप नीलकमल बृहत्महिता में बुद्ध प्रतिमा का लक्षण निम्न प्रकार २२ नेमिनाय रूप दिया गया है-३ पारवनाथ मर्प पमातिचरण प्रसन्न मूतिः गुवीचकेशश्च । २४ महावीर पदमागनोग विष्ट पितेव जगतो भवति वृद्ध. ॥ टिप्पणी नद्यावर्न एक प्रकार से वस्तिक है जिगो अर्थात बुद्ध की प्रतिमा चरण पर कमल अकित, प्रसन्न नौ कोण होते हैं। यह ज्यामितीय र ना जान पड़ती है। मुद्रा में मुवीचकेश और पद्मासन में बैठी हुई पिता की बकरे को ग तथा नीनकमन को उत्पल मी कहा माति होती है। गया है। ऊपर दिए गए लक्षण में केश पर विशेष ध्यान देने ___ कलावस्नुआ और पौराणिक प्रसगो का भी जिन की आवश्यकता है। बुद्ध प्रतिमा के मस्तक के पिछले प्रतिमाओ के साथ अनया जाना। कुछ उदाहरण भाग में बालो का छोटा-सा जड़ा ऊपर उठा हुआ होता है। है त , धर्मचक्र, हा मालाए विद्या- से उप्णीप कहा जाता है। इस शब्द का अर्थ आप्टे को धर, मीन युगात आदि । कनाटक के होम्युगा नामक स्थान प्राक्टिकल-संस्कृत इग्लिम डिक्शनरी में इस प्रकार दिया पर सातवी मदी पानाय प्रतिमा के दोनों ओर गया है --A cear.cteristic Mark (of hair. on उनके पूर्व भव के समठ द्वारा तपस्या के समय उनके the head on a Buddha whic' indicates future पर किए गए पान का सदर अकाल है। sanctity बुद्ध की मूति खडी हुई या बैठी हुई बनाई जाती जैन मान्यता के अनमार जीकर का एक यक्ष है। श्रीलका मे बुद्ध की लेटी हुई पति भी बनाई गई है। और एक यजिणी होते हैं । केचन में प.वनाथ जैन मति इस मुद्रा में नही बनाई जाती है। उपर्युक्त की यक्षणी पदमावती देवी की बहुत अधिक मान्यता परिभाषा में एक बड़ी कमी यह है कि उसमे यह उल्लेख रही है आज भी है। यह देवी अब केरल में वैदिक परंपरा नही है कि बुद्ध की मान सदा ही वत्र धारण करती है। मे भगवती के नाम से पूजी जा रही है ऐमा कुछ विद्वानो जिन मूति और बुद्ध प्रतिमा पु. 7 भेद है। बुद्ध का मत है । नेमिनाथ की शामन देवी अबिका, ऋषभदेव के कपाल पर कभी कभी तिलक या गोल विदी भी देखी की यक्षणी चक्रेश्वरी देवी और चद्र प्रभु की शासन देवी जाती है। बुद्ध प्रतिमा यदि ध्यस्थ न हो तो वह ज्यालामालिनी को भी केरल में काफी मान्यता है । पद्मा (शेप पृ० ३२ पर) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत परम्परा - मुनिश्री कामकुमार नन्दी भाव शून एवं द्रव्यश्रुत के भेद मेश्रुत दा प्रकार के और चौदह पूर्व ग्रन्यो की क्रमशः रचना की। अत. भावहैं। इनमें भाव की अपेक्षा श्रुत अनादि निधन है (न श्रुत और अर्थ-पदो के वार्ता नीकिर है तथा तीर्थकर के कभी उत्पन्न हुआ और न कभी होगा) पर द्रव्यथुन- निमित्त को पाकर गौतम गणधर श्रुत पर्याय से परिणत शास्त्र परम्परा कालाथित है। यह योग द्रव्य जोन कान हुये । इसलिए द्रव्युत के कर्ता गौतम गणधर है । में ज्ञानी, निर्ग्रन्थ बी./रागी गती द्वारा जानीकना यया - में तथा वाह्य निर्विघ्नताओ मेनन रचना के रूप में "श्रतमपि जिनवरविहित गणधर-रचिन द्वयनेकउत्पन्न भी होता है और ज्ञान वीनान दास मदम्यम् । स भरतखड के आप्रदेश के अनेक जनपदो विघ्न बाधागो के काविनानो मत होना म विहार करके जब चतुर्थकाल में साढ़े तीन माम कम रहता है। चार वर्ष शेष रह गये तब फातिक कृष्ण चतुर्दशी मे श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन (तमान में जो भार गति के अन्तिम पहर मे कमल वनो के वेष्टित पावाशासन जयन्ती के रूप मे महान पर्व माना जाता है) सूर्य पुर के बाहरी उद्यान में स्थिति सरोवर रो भगवान के उदय होने पर रौद्र नामक मदत मे चन्द्रमा के अभि महावीर स्वामी मुक्ति को प्राप्त हुए। उसी समय गौतम जित नक्षत्र होने पर नातो लोगों के गुर बमान महावीर मगवर केवल ज्ञान से सम्पन्न हो गए तथा वे गौतम के धर्म तीर्थ की उत्पत्त हुई अति पानपर्यना से योमा गगधर भी बारह वर्ष में मुक्त हो गए। जब गौतम यमान राजगृही नगरी के पास न-दान से पूरि गणध परिनिर्वाण को प्रात हुये उसी क्षण में सुधर्मा सर्व पर्वतों में उनम एव बाल विना.... f7 नाचत मुनि को जान प्राप्त हुआ। भी बारह वर तक लगानामक पर्वत पर भगवान मनवीर ने मजसको तार धमिन (थुन) की बी पार उत्कृष्ट मिद्धि को जीवाति पदार्थों का प्रथम बदल दिया। माप्त हुये । तत्पश्चात् जम्बू स्वामी केवल ज्ञानी हुपे । भावान महावीर स्वामी का विश्वविहन राजगही उन्होंने इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में अडतीस बों तक में वि, चल पर्वत पर १६ वार समवनर, हआ था। लगातार विहार किया तथा श्रुत द्वारा भव्य जीवो का उपकार कर अष्ट कर्मों का क्षय कर मुक्ति को प्राप्त इससे पूर्व बीसवे तीर्थकर श्री भुनि मुबनगा। भगवान के किया। ये तीनो अनुबद्ध केवली की सम्पदा को प्राप्त के जन्म के कारण भी यह पञ्च- र-राज गिरि थे। इनके मोक्ष चले जाने के बाद इस भरत क्षेत्र मे पवित्र है। केवल ज्ञान रूपी सूर्य अस्त हो गया। "पचशैलपुरं पूर्त मुनि सुव्रतजन्गना"। "हविश पु० जिन सेनाचार्य । तदनन्तर विष्ण, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन गौतमगोत्री विप्रवर्णी चारी वेटो और एडंग विद्या के और भद्रबाहु ये पाँचो ही आचार्य-परम्परा के थे तथा पारगामी शीलवान और ब्राह्मणी मेड वर्द्धमान स्वामी क्रमश चौदह पूर्व के धारी हये। इन्होने (सो, वर्ष के प्रथम गणधर इन्द्रभूति नाम से गिद्ध हुए। भाववैत पर्यन्त भगवान् के समान यथार्थ मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन पर्याय से परिणत इस इन्द्रमति ने अन्तर्महतं मे बारह अंग (उपदेश) किया। बाद मे विशाखाचार्य, प्रौष्ठिल, क्षत्रिय, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत परम्परा जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थस्थविर, धतसेन, विजया- दो साधओ को आन्ध्र देश मे बहने बाली वेणी नदी चार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह अंग और के तट पर भेजा। जो कुन्द पृष्प, चन्द्रमा और शंख के उत्पाद पूर्व आदि दश पूर्वो के धारक तथा शेष चार पूर्वो के समान सफेद वर्ण वाले, समस्त लक्षणो से परिपूर्ण हैं, एकदेश के धारक हए । इन्होने एक सौ तिरासी वर्षों तक जिन्होने आचार्य धरसेन की तीन प्रदक्षिणा दी है और मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जिनके अंग नम होकर आचार्य के चरणों में पड़ गये हैं जयपाल, पाण्डु स्वामी, हम्बसन तथा कंसाचार्य ये पाँचो ऐसे दो बैलो को धसन भट्टारकने रात्रि के पिछले ही आचार्य परागगा क्रमशः सम्पूर्ण अंग ग्यारह अंग) भाग में स्वप्न में देया। इस प्रकार के स्वप्न को देखकर और चौदह वर्षों के एकदेश धारक हये। ये एक मो सनुप्ट हुऐ धग्गेनावापं ने 'जय उ सुय देवदा" श्रुत देवता अठारह वर्ष पर्यन्त श्रत का प्रचार-प्रसार किये । इस प्रकार । म ऐसे वचन का उच्चारण किया। छ: सौ तिरम्मी वर्ष पर्यन्त अङ्गज्ञान की प्रवृत्ति रही। उसी दिन दणि पथ मे भेजे हुये ये दोनो साधु धरतत्पश्चात मगद, यशोभद्र, यशोबाढ़ और लोहार्य ये सेनाचार्य के पास पर व गये उसके बाद उन्होने धरसेनाचार्य चारो ही आचार्य सम्पूर्ण आचाराग के धारक और मेव से निवेदन किया कि :अंग ता पूर्वो के एक सौ अठारह वर्ष तक) एक देश के अग व नमा तुम्ह पादमूल मुगवधारक हये । इसके बाद समी अग और पूर्वो का एक देग याति" आग के पादमुल को प्राप्त हुये है। उन दोनो आचार्य परम्परा से आता हुआ धरनेन आचार्य को गाधी के नकार दिलमेर 'सुदर भट" प्राप्त हुआ। साला कल्याण होगप्रसार कहकर धरसेन भट्टारक ___अदबलि के शिष्य माघनन्दी और मापनन्दी के उन रानी को जागीपाद दियाशिष्य धररान सौराष्ट्र (गुजरात-काटियावाड़) देश के गाण मगधड़ प..गि म मावि-जाय सुएहि । गिरनार नामक नगर की चन्द्रगुफा में रहते थे। ये अपार भटिय मनाय सगाण माणः जो रद मोहा॥६२॥ महानिमित्त के पारगामी प्रवचन-कुशल थे । इनको आग्रा- नान घरगने विचार fया कि शैलधन, भग्नयणी पूर्व भणित पञ्चम वस्तु की महाप्रकृति नामक घर दिन चामनी, गाल, अपि (मेळा) जाहक चोथे प्राभूत का ज्ञान था कि आगे अङ्ग श्रुत का विरद जो... कमाटी और मशक के समान श्रोताओं को जो हो जाएगा। भोट मे शुत । व्याय्यान करता है। धारसेनाचार्य ने महामहिमा (जो कि अंग देश के दळगाव पो दिमयागिण बिरा वरोण धम्मतो। के अतर्गत वेगाक नदी के तीर पर था) वेप्या नाम की मो मःमोदी-नोभमई चिर " य-वणे मूढो ।। ६६ ॥ एक नदी बम्बई प्रात के सतारा जिले में महिमानगर एक वह मूळ पढ़ से पति आदि तीनो प्रकार के गॉव भी है, जो हमारी महिमानगी हो सकती है। कामो को धोनकर वियो कीमोनुपता रूपी विप इससे धरमेनाचार्य अनुमानत रातारा जिले में जैनयो के काल हो अर्थात तय की प्राप्ति में भ्रष्ट के पंचवर्षीय राम्मेलन मे मम्मिलिन हा और उन्होने होकर भवन में चिन तक परिश्रमण करता है। दक्षिण पथ के (दक्षिण देश के जिवामी) आचायों प. ग गवान जागार वन्दना पूर्वक आचरण एक लेख मैं निखे गये धरसेनाचार्य के वचनो को भनी करने वायोगाओ को विधा देना समार और भय को भॉति समझ कर उन संघ के नायक महासनाचार्य ने ही बढ़ाने वाला है।मा विचार कर दोनो की परीक्षा आचार्यो से तीन बार पूछ कर शास्त्र के अर्थ को ग्रहण लेने का निश्चय किया; क्योकि उत्तम प्रकार से ली गई और धारण करने में समर्थ देश काल और जाति से शुद्ध परीक्षा हृदय मे संताप को उत्पन्न करती है- "सुपरिक्वा उत्तम कुल में उत्पन्न हुए समस्त कलाओ मे पारंगत हियय णिवुइ करोति । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७, कि०३ भमेशात अत: धरसेनाचार्य ने दोनो को मन्त्र सिद्ध करने के चली आ रही है। और उस तिथि को वे श्रुत की पूजा लिये कह दिया दोनों गुरू वचनानुसार विद्या सिद्ध करने करते है। के लिये वहाँ से निकल गए। दो दिन के उपवास के बाद वर्षा योग को समाप्त कर जिन पालित पुष्पदन्त विद्या सिद्ध हई तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवियो आचार्य ने दीक्षा दी। बीग प्ररूपणा मिन रात्परूपणा को देवा कि एक देवी के दाँत बाहर निकले हुये है और के सूत्र बना कर गिन पानिन को पढाकर उन्हे भूतबली दूसरी कानी (अंधी है। "विकृताग होना देवताओ का आचार्य के पास भेजा। भूतबलि आचार्य ने जिन पालित स्वभाव नही है"। इस प्रकार दोनो ने विचार किया। से जान लिया कि पुष्पदन्त आचार्य की अल्पायु है । मन्त्र-सम्बन्धी शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाले मन्त्र में अधिक अअर मिला कर और अधिक अक्षर अत: महाकर्म प्रकृति प्राभत का विन्द न हो इस वाले मन्त्र मे से अक्षर निकाल कर मन्त्र का पड़ना प्रकार विचार कर भावलि आचा ने द्रव्यप्रमाणाप्रारम्भ किया तो दोनो देवियाँ अपने स्वभाव और नगम आदि को लेकर अन्य रचना की। इसीलिये इस सुन्दर रूप में उपस्थित दिखलाई पड़ी। खण्ड सिद्धान्त की अपेक्षा भूतबनिय पुष्पदन्त आचार्य भी श्रत के कता कहे जात है। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी तत्पश्चात् गुरुवर धरमेन के समक्ष योग्य विनय श्रुतपंचमी का महान पर्व है, इसको ज्ञान पचमी भी सहित उन दोनो ने विद्या-सिद्ध सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त कहते हैं। को निवेदन किया। बहुत अच्छा "सुट्ठ तुट्टेण" इस प्रकार सन्तुष्ट हुये धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि नक्षत्र । पांच श्रुत धाम हैं ।। आदि में अन्य का पढ़ना प्रारम्भ किया। इस प्रकार क्रम (१) पवित्र श्रुततीय राजगह का विपुनाचल है जहाँ से व्याख्यान करते हुये धरसेन भगवान् से उन दोनो ने महावीर स्वामी ने श्रल ज्ञान की गगा बनायी और आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादगी के पूर्वान्ह काल गणधर देव ने इसे शेलकर बारह अगो की रचना में ग्रन्थ समाप्त किया। उसी दिन वहाँ से भेजे गये उन दोनो ने "गुरु वयणमलंधणीज" गुरु के वचन (२) गिरनार की चन्द्र गुफा -जहा धरमेन स्वामी, अलघनीय होते हैं। ऐमा विचार कर आत हुये अकलेश्वर पुष्पदन्त व भूतबलि इन मुनियवरो को जमूत्य श्रुत (गुजरात) में वर्षा योग किय।। का उत्तराधिकार दिया। ज्येष्ठ सितपक्ष पचम्या चातुर्वर्ण्य संघ समवेत.। (३) अंकलेश्वर जहाँ वह जिनवाणी रतकाम्ढ हुई और तत्पुस्तकोपकरणव्याधात् क्रियापूर्वक पूजाम् ॥ ४८ ।। चतुर्विधि संघ ने थुन गा महोत्सव विधा। श्रुत पचमाति तन प्रख्याति तिथिरय परामाप । (४) मड़वद्री जहाँ पर जिनव णी ताडपत्रो पर सुरक्षित अद्यापि येन तस्या श्रुत पूजा कुर्वते जैन । रूप से विराजमान है और आज हम प्राप्त हुई। इन्द्रनदी श्रुतावताह ॥ (५) पोन्नर हिल जहाँ श्री कु० कु० आचार्य ने परमागम अर्थ ---भूतबली आचार्य ने पटवण्डागम की रचना शास्त्र, समयसार, प्रवचन सार, नियममार, पंचास्तिकरके ज्येष्ठ शुला को चतुविधि संघ के साथ उन काय, अष्टपाहुड आदि की रचना की। शास्त्रो को उपकरण मानकर श्रुतज्ञान की पूजा की ये यजन्ते श्रुत भक्त्या ते यजन्तेऽजस. जिनम । जिससे श्रुतपचमी तिथि की प्रख्याति नियो मे आज तक न किचिदन्तर प्राहुराप्ता हि श्रुत देवयो । की। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरात जाति और उसकी ऐतिहासिकता डा. रमेशचन्द्र जैन ऐतिहासिक आधारो साहित्यिक प्रमाणों एवं भाषा पूर्व की ओर असम के नागा प्रदेश से आगे वर्मा, थाई विज्ञान के साक्ष्यो से विदित होता है कि प्राचीनकाल में (श्याम) होते हुए हिन्दचीन-कम्बोदिया तक इस जाति का हिमालय के जंगलों में कोल जाति आखेट और कन्दमूल, प्रसार मिलता है। इस किरात जाति को वर्तमान विद्वानों फल आदि से अपना निर्वाह करती थी, पूर्व की ओर से ने तिब्बती-बर्मी भापा के 'मोन' शब्द और कम्बोदिया लघु हिमालय की ढालों पर पशुचारण करती हुई किरात (कम्बुज) की भापा के 'ख्मेर' शब्द को जोड़कर 'मोन' जाति ने हिमालय मे प्रवेश किया। धीरे-धीरे कोल जाति ख्मेर' नाम दिया है।" को बीहड़ क्षेत्रों की ओर धकेल कर या आत्मसात करके किरात जाति पशुचारक-आखेटक जाति थी। वह यह जाति आसाम से नेपाल, कमाय, कागड़ा होती हई भेड़े पालतीं और काले कम्बल की गाती से शरीर ढकती स्फीती, लाहुल और लद्दाख तक फैल गयी। थी"। इस जाति में जाति प्रथा नहीं थी, वह न जनेऊ प्राचीन साहित्य और स्थापत्य में इस जाति का पहनती और न पुरोहित रखनी थी। शौचाचार से अनकिरात, कीर, किन्नर और भिल्ल नामो से उल्लेख मिलता भिज्ञ उसका जीवन म्लेच्छो जैसा था"। अन्य पशचारक है। कीर या किन्नर सम्भवत. किरात जाति की प्राचीन जातियों के समान उसम भी पति-पत्नी के सम्बन्ध ढीलेतम शाखा थी। उसका सम्बन्ध मुख्यतः भागीरथी से ढाल होत थे।" पश्चिम के पर्वतीय क्षेत्रों से जोड़ा जाता है। भिल्ल शब्द कांगडा के किरात ऋग्वैदिक आर्यों के प्रबल प्रतिका प्रयोग सम्भवत: किरात और अन्य वनचर जातियो द्वन्द्वी थे। उनके नेता सम्बर ने आर्यों को लोहे के चने के लिए व्यापक अर्थ मे होता था। चबवाए थे। जैन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है असम, सिक्किम और भूटान मे तो आज भी किरात जब भरत चक्रवर्ती दिग्विजय करते हए कैलाश की ओर जाति का बाहल्य है। प्राचीन काल में मिथिला, नेपाल, बढ़े थे तो गगाजी के स्रोत प्रदेश (गढ़वाल) में उनका उसका पूर्वी भाग आज भी किराती या फिरात देश कह- किरातो से घोर युद्ध हुआ था लाता है, कुमायूं जहाँ आज भी राजी या राजकिरात किरात जाति के अवशेष अब मुख्यतः उत्तरी सीमान्त रहते हैं, गढ़वाल जहाँ अनेक कीर नामयुक्त गाव मिलते प्रदेश और तगई में ही मिलते है। इन क्षेत्रो में भी है, टिहरी जहाँ भागीरथी की प्रमुख सहायक आज भी पश्चिम की अपेक्षा पूर्व की ओर फिरातों की भारी जन (भिल्लगंगा') कहलाती है, गगोत्तरी का टकणौर प्रदेश, संख्या है लद्दाख के भोटा, चम्बा के लाहली, लाहल के भागीरथी ऋग्वैदिक काल मे किराती नाम से प्रसिद्ध थी. निचले भागो के निवासी, स्पिति को सिपत्याल, कल्ल में यमुनाघाटी, जहाँ कश्यपसहिता के अनुसार किरात जाति मलाणा गाव के मलाणी, सतलज की उपग्ली घाटी के का गढ़ था", तथा कागड़ा, जहाँ बारहवी शताब्दी तक कनौर (किन्नर), नेलंड के जाड, माणा-नीती के मारछाबैजनाथ कीरग्राम (किरातग्राम) कहलाता था, किरात तोलछा, मिलम के जोहारी, असकोट (पिथौरागढ़) के राजी जाति के प्रमुख केन्द्र थे। (राज किरात) पश्चिमी नेपाल के मगर और गुरङ, चपटी मुखाकृति, चपटा भाल, छोटी या पिचकी नाक, मध्यनेपाल के तमड्, नेपाल उपत्यका के नेवार, पूर्वी मछ, दाढ़ी की कमी, पीला या गेहंवा रंग, अपेक्षाकृत नेपाल की तीनो किराती जातियाँ, लिम्बू, याखा और नाटा आकार एव हृष्ट पुष्ट शरीर, ये किरात जाति राई, सिकिम के लेपचा और असम के नागा तथा कामकी विशेषतायें है, जो महाहिमालय की उत्तरी और रूप की अनेक मोन-पा जातियाँ उसी महान् किरात या दक्षिणी ढालो के निवासियो म लद्दाख, लाहुल और कनौर मोन-ख्मेर जाति की अवशेष मानी जाती हैं। से लेकर असम तक मिलती है।" किरातोको दक्षिणी शाखा पाक या मोता जाति किस Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, बर्ष ४७, कि०३ अनेकान्त हरिद्वार से पूर्व की ओर नैनीताल, उत्तर प्रदेश और (उ०पू० सी०) तक विस्तृत है, भोट (तिब्बत) के सीमान्त नेपाल तथा दरमंगा की तराई" में मिलती है। तिरहुत से मिला होने के कारण भोटात नाम का प्रयोग होने (तोरभुक्ति) को यह नाम इसी जाति के बाहुल्य से लगा" । मिला है५ __ और इस उत्तरी सीमान्त के किरातो के लिए भुट्ट, पश्चिम की ओर यह जाति बोकसा और महर" नाम भोटा, भोटांतिक जैसे नामो का प्रयोग आरम्भ हुआ। से गढ़वाल और देहरादून के भाबर मे घिरत, चांग और दसवी गताब्दी मे काशी के कवि सम्भवतः विद्याधर ने बाती आदि नामो से होशियारपुर, कागडा और जम्मू तक नेपाल के नेवारो के साथ भोटांतो का उल्लेख किया है। मिलती है" प्राचीनकाल में इस जाति का प्रसार तराई के ग्यारहवी शताब्दी मे क्षीर स्वामी ने दर्दरी के साथ दक्षिण में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल मे व्यापक भुट्टो को भी म्लेच्छो में गिना है'। इस शताब्दी में रूप से हआ था। पंजाब-सिन्धु के मैदान में भी किरातो कल्हण ने तिब्बत के भूतो और लद्दाख के भुट्टो का.' की टोलियां फैली थी, जैसा हडप्पा की एक समाधि से तथा अलवरूनी ने लटाख के भो तथा अलवरूनी ने लद्दाख के भूटवारी दस्युओं और भूटेसर कपाल से विदित होता है । (अ) (भूटान) का उल्लेख किया है। लघ हिमालय के ऊँचे और बीहड पठारो पर भी जहाँ डॉ० डी० सी० सरकार ने बिहार प्रान्त स्थित राजपशुचारक-कृषक खशी ने बसना पद नही किया। गिरि के तप्तकुण्डो में आराम कर रामगिरि पर्यन्त विन्ध्याभिल्ल किरातों की कुछ टोलियाँ बची रही गयी और चल प्रदेश को किरात जनपद कहा है। आदिपुराण मे शताब्दियो तक अपनी विचित्र रीति-नीतियो के कारण किरात जनपद को भीलों का प्रदेश माना गया है। अपना पृथक अस्तित्व बनाए रहीं। पशस्तिलक चम्पू में कहा गया है कि सम्राट् यशोधर अर्जन को शिव उत्तराखण्ड में किगतवेश में ही मिले जब शिकार के लिए गए तब उनके साथ अनेक किरात थे। हांगहो के उदगम प्रदेश से जब मङ्गोल मुख मुद्रा शिकार के विविध उपकरण लेकर साथ मे गए"। पन्नवणा वाली तिब्बती चीनी जाति दक्षिण में उतरकर असम की सूत्र मे अनार्यों मे शक, यवन, किरात, शबर, बर्बर आदि पश्चिम को ओर बढी तो उसे यहां पहले से बसी म्लेच्क्ष जातियो का उल्लेख है" वेदव्यास ने किरातो को किरात जाति मिली' । आठवीं शताब्दी से तिब्बती मंगोल शद्रों की ही एक उपशाखा माना है"। मनु ने किरात भी हिमालय से इस ओर बढ़कर किरातो मे मिलते रहे" को शद्र की स्थिति को प्राप्त क्षत्रिय माना है। वैदिक और आज भी मिलते जा रहे है।। साहित्य मे किरातो का उल्लेख प्राप्त होता है । महाभारत वेद, रामायण, महाभारत, निरुक्त, कालिदास, बाराह- के अनुशासन पर्व में भी किगत को शूद्रवत् बताया गया मिहिर, बाण और ताल्मी को हिमालय के किरातो का पता है"। किरातार्जुनीय में गिर, अर्जुन की परीक्षा के लिए था रामायण मे तो समुद्री किरातो (हिन्द चीनियो तक का किरात रूप में उपस्थित होते हैं, जिसमें उनके स्वरूप का उल्लेख है। इसलिए निश्चित है कि मङ्गोल मुख मुद्रावाली वर्णन करते हुए भारवि ने लिखा है कि उनकी केश राशि किरात जाति हिमालय प्रदेश मे कम से कम तीन हजार फलों वाली लताओ के अग्रभाग मे बधी थी। कपोल मोर वर्षों से है। हिमालय प्रदेश में इस मोन या मोन-पा जाति पंख से सुशोभित थे और आखो मे लालिमा थी। सीने के वंशज, चाहे उन्होने परिस्थिति बस तिब्बती भाषा, पर हरिचन्दन की टेढ़ी-मेढी रेखायें खिची हुई थी, जिन्हे तिब्बती रीति-नीतियाँ और तिब्बत में प्रचलित लामा धर्म उष्णता के कारण बहते हुए पसीने ने बीच-बीच में काट की विशेषताये भी अपना ली हों, अवश्य किरातवंशी और दिया था और हाथ में बाण सहित विशाल धनुष था"। भारतीय हैं। अमरकोश मे किरात, शबर और पूलिंद को म्लेच्छ जाति दसवी शताब्दी से हमारे उत्तरी सीमन्त के लिए, जो की उपशाखा कहा गया है। अभिधानरत्नमाला में किरात मानसरोवर प्रदेश के दक्षिण में लद्दाख से कामरूप को एक उपेक्षित एवं जंगली जाति का बताया गया है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरात जाति और उसको ऐतिहासिकता महाभारत के कर्ण पर्व में किरात आग्नेयशक्ति के द्योतक को किरात मानने में कोई बाधा नही । यद्यपि काराकोरम माने गये हैं। आश्वमेधिक (७३/२५) मे वर्णन है कि अर्जन की घाटी से पूर्व से बहने वाली गंगा के पहले नही, किन्त को अश्वमेधीय घोड़े के साथ चलते समय किरातो, यवनो बाद फिरातों का सामना होता है तो भी कैलाश के दृश्य एवं म्लेच्छो ने भेटें दी थी। भारतीय जनजातियो की महिला का उल्लेख हुआ है और मान सरोवर उसी पर्वत शृंखला परिचारिकाओ का भगवती सूत्र में उल्लेख स्पष्ट रूप से में है। उसमे कोई मन्देर नही कि भूटान और उसके यह द्योतित करता है कि उत्तर मे वैशाली से किरात देश पड़ोस के निवासी किरान कहे गए हैं। पेरिप्लस" किरातों तक व्यापार सम्बन्ध थे । जम्बुद्दीव पण्णत्ति में किरातो को गंगा के मुहाने के पश्चिम के निवामी मानता है और का चिलात (चिल इया) के रूप में उल्लेख किया गया है। पोलेमी टिपेरा के आस पास के परन्तु ऐसा प्रतीत होता विष्णु पुराण मे किरातो का उल्लेख है" । वीर पुरुषदत्त है कि भारतीय साहित्य में उनकी समस्त हिमालय शृंखला के राज्य के १४वे वर्ष के नागार्जुनकुण्ड अभिलेख मे भी में और विशेषतः ब्रह्मपत्र की तराई में स्थान दिया गया किरातो का उललेख है। इन सब मे इस जाति को अनार्य है। किन्तु कालिदास उनको लद्दाग्य के आग पास में कहा गया है । नागार्जुनकुण्ड अभिलेख में किरातो रखते हैं । का बदनाम, बेईमान व्यापारियो के रूप मे वर्णन किगत भारत की अति प्राचीन अनार्य (संभवतः है। मेगस्थनीज के वर्णन मे ऐसे व्यक्तियो का उल्लेख है, मंगोल) जाति जिसका निवास स्थान मुख्य न. पूर्वी हिमाजिनके नथुने के स्थान पर केवल छिद्र होता था। सम्भ- लय के पर्वतीय प्रदेश मे था। प्राचीन संस्कृत साहित्य में वतः ये किरात थे। टॉलमी ने किरातो को सोडियन किरातो के विषय मे अनेक उल्लेख मिलते है। जिनसे कई (वर्तमान मुद) जाति का कहा है जो अक्ष (oxus) नदी मनोरंजक तथ्यों का पता लगता है। प्राय. उनका सम्बन्ध द्वारा बैक्ट्रियाना (Bactriana) से अलग हो गयी थी। पहाडो और गुफाओं से जोडा गया है और उनकी मुख्य ___ यह जाति हिमालय के दक्षिणी विस्तृत भू-भाग ब्रह्म- जीविका आखेट बताई गयी है। अथर्ववेद में सपंविष पत्र के पास के पूर्वी इलाके असम, पूर्वी तिब्बत (भोट), उतारने की औषधियो के सम्बन्ध मे किरात बालिका की पूर्वी नेपाल तथा त्रिपुरा में बस गयी थी। विमलमूरि स्वर्णकुदाल द्वारा पर्वत भूमि से भेएज, खोदने का उल्लेख कृति परमचरिय मे उल्लिखित है कि कुछ अनार्यों ने जनक है (अथर्व० १०४,१४) वाजसनेयी संहिता (३०,१६) और के देश पर आक्रमण कर दिया था। ये जातियां थी म्लेच्छ, तैत्तिरीय ब्राह्मण में किरातो का सम्वन्ध गुहा से बताया शबर, किरात, कम्बोज, गक तथा कपोत (कपिश)। गया है- 'गुहाम्य. किरातम्'। वाल्मीक रामायण में भारतीय साहित्य मे किरतो का प्रयोग सामान्य अर्थ किरात नारियों के तीये जड़ो का वर्णन है, और उनका किया गया है । कालिदास के किगत निश्चय ही तिब्बती शरीर वर्ण सोने के समान वणित है-किरातास्तीक्षणया लद्दाख, जस्कर और स्पा के तिब्बती वर्मी थे। फिर चडाश्च हेमामः प्रियदर्शनाः (किष्किधाकाण्ड ३४०।२६) । भी मानमरोवर के चर्दिक निवास करने वाले, तिब्बतियो (क्रमश) सन्दर्भ १. Rapson Cambsidge hirtory of India ७. चकार वसतिं तत्र भिल्लाना निचर्ययंत.। vol. II तत्तदाचरण कुर्वत्स तदा भगवानृपि. । २. कालिदास का भारत भाग १ पृ० ६४ रेमे 'सोऽपि किगतश्च'-केदारखड २०६/२-३ ३. ग्रियर्सन : Linguistic survey of India Vol ८. Sherying : Western Tibet and British I Part| पृष्ठ ४१४५ borderland P. 15 ४. कालिदास का भारत भाग १ पृ० ६४ ६. यथा--किरख, किरसू, खिरसू, किरभाणा, किरमोला, ५. राहुल साकृत्यायन-ऋग्वैदिक आर्य पृ० ८२ किरपोली, किरसात, किरसिया, कीर आदि। ६. राहुल सांकृत्याययन : गढ़वाल पृ० ४२ १०. केदारखण्ड अध्याय २०६ (शेष पृ० ३ कवर पर) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों के सम्पादन की 'घोषित-विधि' सर्वथा घातक है , पद्मचन्द्र शास्त्रो, सम्पादक 'अनेकान्त' "प्राकृत-विद्या' जून ६४ मे प्रकाशित आगम-सम्पादन इनकी परिभाषा के सम्बन्ध मे पं० कैलाशचन्द शास्त्री ने की निम्न विधि को पढकर हमे बड़ी वेदना हई कि- अपने 'जैन साहित्य का इतिहास' ग्रन्थ प्रथम भाग के पृष्ठ "उन्होंने संपादक ने) ओक ताडपत्रीय, स्तलिखित और ३३ पर इस भांति लिखा हैमुद्रित प्रतिगे का तुलनात्मक अयन करके अपने सूचना सूत्र "जिम गाथा द्वारा किसी विषय की सूचना मम्पा.न के दुछ सूत्र निर्धारित किए और उन सूत्रों के दी गई हो उसे सूचना सूत्र कहते हैं।' अनुसार प्रर्चानत परम्परा की लीक से कुछ हट कर जैसे—"केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च" छात्रोपयोगी सम्पारन किया।" आदि - कसायपाहुड की ६४ वीं गाथा । उक्त घोषणा से नि सन्देह विश्वमान्य सम्पादन-विधि पच्छा सत्र_जिन गाथा मे किसी विषय की पच्छा के विपरीत-एक आत्मघाती, ऐसी परम्परा का सूत्रपात की गई हो, कोई बात पूछी गई हो वे हआ जिससे परम्परित प्राचीन मूलआगमो की असुरक्षा गाथाएं पृच्छा सूत्र कही गई है ।' (लोप) का मार्ग खुल गया । क्योकि ऐसे और व्यक्ति भी जैसे-'केबचिरं' उवजोगो कम्मिकसायम्मि' हो सकते है जो जब चाहे मनमानी किसी भी अन्य मापा आदि कसायपाहुड की गाथा ६३ । का सूत्र-रूप मे निर्धारण कर परम्परा की लीक से हट कर वागरण सत्र -- जिसके द्वारा किसी विषय का व्याख्यान सपादन कर ले। ऐसे में आगमो का मूल अस्तित्व किया जाता है उसे वागरण यानी ब्याख्या सन्देह के घेरे में पड़ जायगा और किसी अन्य की कृति को सूत्र कहते हैं। जैसे 'सव्वेगु चाणुभागेसु बदलने का हर किसी को अधिकार हो जायेगा और ऐसा संकमो मज्झिमो उदओ' आदि कसाय पाहुड करना सर्वथा अन्याय ही होगा। की २१९वी गाथा का उत्तरार्ध । वस्तुतः आगमों की भाषा के सम्बन्ध में विद्वानों में लेख में संशोधको की ओर से उक्त गाथा के 'सब्बेसु अभी तक किसी एक भाषा का निर्धारण या अन्तिम निर्णय नही हो सका है और न निकट भविष्य में इसकी संभावना सुतं' इत्यादि टीका गत भाग वो शब्दशास्त्र सम्बन्धी ही है। भाषा के सम्बन्ध में अभी तक विद्वानो के विभिन्न व्याकरण सुन (ग्रामर) बतलाने का असाध्य प्रयास किया सन्देहास्पद मत ही रहे है । गया है, जबकि प्रसंग में यह व्याख्या मूत्र है-ग्रामर जैसा उक्त अक मे ही प्राचीन परम्परित प्राकृत आगमो मे म हा प्राचीन परम्परित प्राकृत आगमा में कुछ नहीं है। व्याकरण का प्रयोग सिद्ध करने के लिए अनेक व्यर्थ के उद्धरण संशोधको की दृष्टि में यदि उक्त, उद्धरण शब्द भी दिए गए है और वे भी परम्परा से हट कर । आखिर, शास्त्र (ग्रामर) सम्बन्धी सूत्र है तो क्या कोई सम्मानित व गाड़ी लीक से उतर जाय तो दुर्घटना क्यो न हो ? हमने , पुरस्कृत बडे से बड़े ज्ञाता यह बताने में समर्थ है कि यह इस लेख मे उन लीक से हटे उद्धरणो को निरस्त करने सुत्र शोर सैनी आदि प्राकृतो में से किस प्राकृत के लिए के लिए आगम के प्रमाणों एवं युक्तियों का उपयोग निर्धारित है और इसका क्या प्रयोजन है तथा यह किस किया है ताकि आगम श्रद्धालु वस्तुस्थिति को समझ । शब्द रूप की सिद्धि में उपयोगी है और कौन से आदेश, सके । तथाहि आगम या प्रत्यय आदि का विधान करता है और इसका १. वागरण' का प्रसंग गत अर्थ : व्याख्या क्या शब्दार्थ है ? आगमो और आचार्यों के मत में तो उक्त आगम में कई प्रकार के सूत्र बतलाए गए है, जैसे-. प्रसंग मे आया 'वागरण' शब्द व्याख्या के अर्थ में लिया १. 'सूचना सूत्र २. पृच्छा सूत्र ३. वागरण सूत्र वादि। गया है-व्याकरण सूत्र (ग्रामर) जैसे अर्थ में नही। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों के सम्पादन को घोषित विधि सर्वथा घातक है गाथा की उक्त पक्ति 'कसाय पाहुड सुत्त' की है। प्रश्न व्याकरण (दशम अंग) के वयं विषय में कहा और कसाय पाहुड भाग १६ पृ० ५७ पर 'वागरण' मूत्र गया है कि "अंगुष्ठादि प्रश्न विद्यास्ता प्याक्रियन्ते मभिके विषय मे स्पष्ट लिखा है धीयन्तेऽस्मिन्निति प्रश्न व्याकरणं" "पण्हो ति पुच्छा, "एद णज्जदि' एवमुक्ते एतत्परिज्ञायते किमिति पडिषयण वागरणं प्रत्युत्तरमित्यर्थः"--पृ० १२ वागरण सुत्त ति, व्याख्यान सूत्रमिति, व्याक्रियतेऽनेनेति इसके अतिरिक्त 'सन्मति तर्क प्रकरण' में वागरण व्याकरणं प्रतिवचनमित्यर्थः। अर्थात् ऐसा कहने पर यह से व्युत्पन्न शब्द 'वागरणी' आया है विद्वानो ने मूलजाना जाता है कि यह व्याकरण (ग्रामर) सूत्रहै या व्याख्यान वागरणी को निम्न अर्थों मे लिया है-- सूत्र है ? जिसके द्वारा व्या क्रियते अर्थात विशेष रूप से-- (क) श्री अभयदेव सूरि:- आद्यवक्ता जाता वा। पूरी तरह से मीमासा की जाती है उसे व्याकरण (वागरण (ख) श्री सुखलाल जी मूल प्रतिपादक । सूत्र कहते है, उसका अर्थ होता है प्रतिवचन।" (ग) श्री बेचरदास जी-- , , , । उक्त प्रगंग से स्पष्ट है कि यहा बागरण का अर्थ (घ) डा० देवेन्द्र कुमार--मूल व्याख्याता। शब्दशास्त्र संबंधी व्याकरण (ग्रामर) नहीं है, अपितु (च क्षु० सिद्धसागर जी मूल विवेचन करने वाला। व्याख्या है। खेद है, फिर भी अपनी मान्यता को सिद्ध (छ) षट् खडागम' = मूल व्याख्याता। करने के लिए मूलाचार्यों की व्याख्या को भी बदलने का (ज) कसाय पाहुड (मथुरा) = व्याख्यान करने वाला। अनुचित कार्य किया गया। मुलभाषा तो इन्होने बदल (झ) लघीयस्त्रय स्वोपज्ञ = तीर्थक र वचन संग्रहही दी। विशेष प्रस्ताव मूल२. 'बड्ढउ वायगबसो जसबसो प्रज्जणायहत्थीणं । ध्याकरिणी द्रव्यपर्यायावागरण करणभगिय-कम्मपयडी पहाणाण ॥ थिको निश्चेतन्यो।' -उक्त गाथा श्वेताम्बर प्रथ नन्दीसूत्र की है। संशोधको ने उक्त लेख मे ही कसायपाहुड सुत्त (कलजिसे सशोधको ने व्याकरण की सिद्धि मे दिया है । कत्ता) की हिन्दी प्रस्तावना पृ० ६ से जो यह उद्धृत इसमें वाचकवश के ख्यात आचार्य नागहस्ती की विशेष- किया है कि-'जो संस्कृत और प्राकृत व्याकरणों के ताओ का वर्णन करते हुए उनकी यश कामना की गई है। देता है।' वह अयं भी नन्दी सूत्र की उक्त गाथा से यहां भी वागरण का अर्थ, (आचार्य के वाचक होने से) फलित नहीं होता। क्योकि गाथा में संस्कृत व प्राकृत का शब्द शास्त्र सम्बन्धी व्याकरण न ग्रहण कर प्रश्न-व्याकरण कही उल्लेख नही और न ही उक्त गाथा की व्याख्या में नाम दशवं अग के व्याख्याता (वाचक) के रूप मे ग्रहण कहीं ऐसा कहा गया है अत -मात्र हिन्दी देख कर ऐसा किया है गाथा के अर्थ के लिए नन्दी सूत्र की व्याख्या लिखना प्राकृतज्ञो को शोभा नही देता। और न उक्त दृष्टव्य है । तथाहि -'वागरण प्रश्न व्याकरण, करण= हिन्दी मात्र को देख कर उनका यह लिखना ही सगत है पिण्ड विशुध्यादि, भंगिय -- चतुर्भगिकाद्या, कम्मपयडि - कि-"आचार्य नागहस्ती संस्कृत प्राकृत व्याकरणो के कर्मप्रकृति प्रतीता एतेषु प्ररूपणामधिकृत्य प्रधानानामिति वेत्ता थे, तो यह निश्चित और अस दिग्ध तथ्य है कि उस गाथार्थः ।' पृ० १२ समय इन भाषाओ के व्याकरण के ग्रन्थ भी विद्यवागरण' का एक अर्थ 'सहपाहुड' भी अकित है । कोश मान थे।" में 'सह' का अर्थ ध्वनि और पाहा' का अर्थ उपहार किया उक्त स्थिति में ज्ञाता स्वयं विचार कि 'बागरण' गया है दोनो ही भांति वागरण का प्रसंगगत अर्थ के प्रसंगगत व्याख्या' अर्थ को तिलाजलि देकर उसे शब्दरूपी उपहार देने वाला-व्याख्याता ही ठहरता है ग्रामर जैसे अर्थ मे प्रसिद्ध करना कैसे उचित है ? और और यही नागहस्ती मे उपयुक्त भी है। प्रामगिक आगम-व्याख्याओं में भी बदल करना कौन सी, टिप्पण. (१) 'तित्थयरवयणसंगह विसेस पत्थार मूलवागरणी' Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष ४७, कि०३ अनेकात कितनी बड़ी स्वच्छ प्रकिा है ? क्या, आगमो के अस्थिर इसी मे पृ० १७, १८ पर हा० नेमीचन्द ने यह भी होने से जैन स्थिर रह सकेगा या परिवर्तन करने वालो लिखा है कि "प्राकृत भाषा मे ईसवी सन् की दूसरी शती का नाम अजर अमर रह सकेगा? सोचने और चिन्ता का तक उप-भाषाओं के भेद भी प्रकट नही हुए थे। सामान्यतः विषय है। प्राकृत भाषा एक ही रूप में व्यवहुत हो रही थी। इस ३.४ आचार्य जयसेन की दुहाई : काल में वैयाकरणो ने व्याकरण-निबद्ध कर इसे परिनिष्ठित हमें हंसी आती है उस परिकर १२, जहाँ से आचार्य रूप देने की योजना को।" रमरण रहे, कि उक्तकाल जयसेन की टीकागत गाथा २७,३६, ३७, ७३, १६६ के आचार्य कुन्दकूद के बाद का है। 'इश्क' गाथा १७, ३५, ३७३, के 'ऊण' प्रत्ययान्त शब्द यदि उक्त डा० साहब का निश्चित मत होता कि गाथा ५ के चुक्किज्ज । गाथा ३३ के 'हबिज्ज' । गाथा ३०० दि० आगमो की भाषा शौरसेनी है तब न तो वे भाषा मे के 'भणिज्ज ।' गाथा ४४, ६८, १०३, २४० के 'कह' । और उपभेदो की उत्पत्ति दूसरी शताब्दी से बताते और ना ही अण्णाणमोहिदमदी, सब्बण्हणाणदिट्ठो, दि सोपुग्गल तब तक के काल में प्राकृत भापा के एक (अभेद) रूप मे दवीभूदो, गाथाओ के 'पुग्गल' शब्द आगम भाषा से व्यवहृत होने की बात करते । इतना ही नही, उन्होने तो बहिष्कृत किए गए हो वही में अपनी अभीष्ट सिद्धि के शौरसेनी के 'त' को 'द' मे परिवर्तित होने जैसे मुख्य लिए अब आचार्य जयसेन की व्या रण पंक्तियो की दुहाई नियम की भी उपेक्षा कर आगमो मे (गोरसेनी भाषाहीन) दे, उन्हे वैयाकरण स्वीकार किया जायच्या , आचार्यश्री अन्य भाषाओं के शब्द रूप भी स्वीकार किए है। जैसेतब व्याकरणज्ञ नही दिखे जब उनके द्वागनीकृत उक्त गइ, रहियं, बीयराय, सव्वगय, सुयकेवलि, सम्माइट्ठी, शब्द रूपों का बहिष्कार किया गया। और आगम मिच्छाइटठी आदि । वही, पृष्ठ ४५-४६ । भाषा को भ्रष्ट बताकर लगातार कई आगम बदल दिए डॉ० नेमीचन्द जी के अनुरूप उनके गुरुदेव डा. गए। हीरालाल जी का भी यही मत था कि आगमो की भारा हम स्पष्ट कर दें कि 'आचार्य श्री जयसेन ने व्याकरण मिली जुली प्राकत है। प्राकत भाषा के धुरन्धर विद्वान सम्बन्धी जो भी पंक्तियाँ दी है वे प्राकृत से अनभिज संस्कृत- डा० उपाध्ये भी इसे स्वीकार करते है। -देखे, हमारे पूर्व पाठियो को दण्टिगत करदी है। मस्कृत के नियम प्राकत लेख अनेकान्त मार्च ६४। मासा मे साग नही है। आचार्य ने प्राकृत गोधन में कही जैन आगमों के महान वेत्ता प० कैलाश चन्द शास्त्री भी पश्चाद्वर्ती व्याकरण की अपेक्षा नहीं की और न ही के मत मे-'द्वादशाग श्रुत की भाषा अर्धमागधी थी। कोई व्याकरण प्राकृत भाषा में बना है। जितने भी किन्तु उनका लोप होने पर भी महाराष्ट्री और शौरसेनी माकरण हैं वे संस्कृत भाषा के शब्दो के आधार पर बाद भाषाएँ, जो प्राकृत के ही भेद है, जैन आगमिक-साहित्य में बने हैं। प्राकृत भाषा तो स्वाभाविक भाषा है जो की रचना का माध्यम रही। 'बालस्त्रीमन्दमूर्खाणा' सभी के लिए सरल ग्राह्य है। -जैन साहित्य का इतिहास भाग १, पृष्ठ ३ । ५. डा. नेमीचंद का मत अस्थिर : हम इस प्रसंग मे डा० मोहनलाल मेहता द्वारा संशोधको के मत में यदि डा. नेमिचद ने आगमो की 'श्रमण' जून ६४ मे प्रकाशित लेख के कुछ उन अंशों को भाषा को शौरसनी लिख दिया है तो उन्होने कही यह भी उद्धृत करना भी उपयुक्त समझते है, जिनसे परम्परित तो लिख दिया है कि-"प्राचीन गाथाओ की भाषा शौरसेनी प्राचीन आगमो की भाषा की विविधता और सम्पादन होते हुए भी महाराष्ट्रीपन से युक्त है। भाषा की दृष्टि सम्बन्धी विश्वमान्य-विधि जैसी हमारी मान्यता की पुष्टि से गाथाओ में एकरूपता नही है अर्धमागधी और महा- होती है। तथाहि राष्ट्री प्रभाव इन पर देखा जा सकता है।" प्राकृत भाषा १. 'प्राकृत का मूल-आधार क्षेत्रीय बोलियाँ होने से मोर साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' । पृष्ठ २१७ उसके एक हो काल मे विभिन्न रूप रहे है प्राकृत व्याकरण Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमों के सम्पादन को घोषित विधि सर्वथा घातक है में जो 'बहुल' शब्द है वह स्वय इस बात का सूचक है के ही थे और क्या उनमें यह भी लिखा था कि दि. कि चाहे शब्द रूप हो, चाहे धातु रूप हो, या उपसर्ग आदि आगमो की भाषा शौरसेनी है ? हमें तो विश्वास नही हो उनकी बहविधता को अस्वीकार नहीं किया जा होता कि ऐमा हो। सकता।' पृ० २४७ ।। अन्त में हम निवेदन कर दे कि इतने गम्भीर महत्वपूर्ण २. 'यदि मूलपाठ मे किसी प्रकार का परिवर्तन विषय पर—जिसमें विभिन्न विद्वानों के अब तक विभिन्न किया भी जाता है। तो भी इतना तो अवश्य ही करणीय मत रहे हैं, आगम के बारे मे अल्पावधिक चंद गोष्ठियां और होगा कि पाठान्तरो के रूप मे अन्य उपलब्ध शब्द रूपो पश्चाद्वर्ती विद्वान किसी निर्णय करने के अधिकारी नही को भी अनिवार्य रूप से रखा जाय साथ ही भाषिक रूपो है। हमारी परम्परित प्राचीन आगम भाषा-भ्रष्ट नही है को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति आधार रूप में मान्य जैसा कि उस पर लाछन लगाया गया है। परम्परित की गई हो उसकी मूल प्रति छाया को भी प्रकाशित किया आगम हमे सर्वथा प्रामाणिक है। उन्हें संशोधन के नाम जाय क्योकिं छेड़-छाड़ के इस क्रम में साम्प्रदायिक आग्रह पर अनिर्णीत किसी एक भाषा मे बदल देना आगमो की कार्य करेगे, उससे ग्रन्थ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का अवहेलना है। इस सम्बन्ध में हम पर्याप्त प्रमाण दे चुके हैं लग सकता है।' पृ० २४८ । और 'वागरण' आगमक्ष है। कृपया स्वच्छ मन से ३. "आगम सम्पादन और पाठ शुद्धिकरण के उपक्रम चिन्तन करे इसी रा आगम की रक्षा हो गकेगी। में दिए जाने वाले मूल पाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप में एक बात और।हम सशोधको की सभी मान्यताओ का दिया जाय, किन्तु पाद टिप्पणियों मे सम्पूर्ण पाठान्तरो विधिवत् निराकरण 'अनेकान्त' मार्च ६४ के अपने लेख में का संग्रह किया जाए। इसका लाभ यह होगा कि काला- करचुक है । उस ओर ध्यान नहीं दिया गय।। अच्छा हो न्तर में यदि कोई मशोधन कार्य करे तो उसमे सुविधा कि ये शोरसनी की धुन छोड़ परम्परित दि० आगमो को हो।" पृष्ठ २५३ । स्मरण रहे कि इन्होने हमारे बारम्बार पर-कालवा सिद्ध करने जैसे (अन्जान) असफल प्रयास से लिखने पर भी टिप्पण नही दिए। विराम ले, ऐसी हमारी प्रार्थना है। वरना, ऐसा न हो हमे आश्चर्य है कि ऐसी स्थिति में भी कुछ लोग वि दम भूल का खमियाजा भविष्य में समाज को भोगना भ. ऋषभदेव के व्याकरण तक की बात उछालते है। पड़े। पिछली भूल का परिणाम शिखर जी का विवाद तो हालाकि वे आचार्य कुन्दकुन्द तक का भी कोई प्राकृत- सामने है ही। आखिर, जब त्याग और ज्ञान ये दोनो संग्रह ब्याकरण नही खोज सके। फिर यह भी प्रश्न महत्त्वपूर्ण के पर्यायवाची बन गए हो और मिल बैठे तब सभी कुछ है कि उनके ब्याकरण यदि थे भी तो क्या वे प्राकृत भाषा होना सभव हे इसमे कोई सन्देह नही। -धन्यवाद (पृ०१७ का शेषाश) कर्तव्य बोध से शून्य है और नैतिक मूल्यो का उमक जीवन ओर उन्मुख हे। इम वास्तविकता को हम झुठला नहीं मे कोई महत्व नही है। चाहे शासक वर्ग हो या नागरिक सकते। इस तथ्य को स्वीकार करने में हमे कोई हिचक जन, उनके जीवन मे आचरण की शुद्धता केवल उपदेश भी नही होना चाहिए। जो उपनिवेशवाद हमारे मन में का अंग बनी हुई है। आज जनजीवन मे जो मूल्य पनप घस कर बैठा हुआ है वह उन सभी विकृतियो को रहे है वे हैं भोतिकवादी प्रवृत्ति, आडम्बर, दिखावा, उत्पन्न कर रहा है जो मामाजिक विखराव के लिए अधिकाधिक धन संचय और उसके लिए सभी प्रकार के आवश्यक है। परस्परिक घृणा और द्वेप के बीज उसी हथकण्डे अपनाना । ऐसी स्थिति में धर्म या धर्माचरण की के परिणाम है। ऐसी स्थिति में यदि देश में हिंसा का बात करना मूर्खता मानी जाती है। इस अर्थ में यदि ताण्डव होता है जैसा कि आए दिन हम देख रहे है। देखा जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नही होगा तो इसमे आश्चर्य नही होना चाहिये।। कि आज मनुष्य बड़ी तीव्र गति से धर्म निरपेक्ष (धर्म से प्रथम तल, भा० चि. केन्द्रीय परिषद रहित या उदासीन) होता जा रहा है और वास्तव में १-ई/६, स्वामी रामतीर्थ नगर, प्रवासी धर्म निरपेक्षता (धर्म के प्रति उदासीनता) की नई दिल्ली-११००५५ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए कुछ भूली बिसरी यादें: नहीं किस प्रकार मरिहंत' पर पोछे प्रविष्ट हो गया।" -~-~-'अरिहंत' के विषय में (डा० नेमोचन्द जी, आरा) .--'प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' पृ०६१, सन् १९६६ । ___वर्तमान में अरिहंत' पद प्रचलित है, जो अहिंसासंस्कृति के अनुकूल नहीं है। इस पद का शाब्दिक अर्थ उक्त विचार डा० सा. के स्वय के हैं और विचार है-अरि-शत्रुओं-कर्मशत्रो के हंत-हनन करने वाले, पर देना व्यक्ति का न्याय संगत मौलिक अधिकार है। अत: इस कोटि के मंगल मंत्र में हन धातु का प्रयोग अहिंसा डा० सा० ने और हमने अपने विचार दिए। इससे यह संस्कृति के अनुकल किस प्रकार माना जायगा? व्यवहार तो नहीं माना जा सकता कि यहा शीर्षस्थ श्रतधर आचार्यों मे देखा जाता है कि भोजन के समय मारना, काटना जैसे को 'अरिहंत' पद का भाव न समझने का आरोपी बताया हिसावाची क्रियापद अन्तराय का कारण माने जाते है, है। हम दोषी तो तब माने जाते जब पूर्वाचार्यों के मूल को अतः कोई भी अहिंसा व्यक्ति इन शब्दों का प्रयोग अत्यन्तभ्रष्ट बताकर उनकी मूलकृति मे मनमाने संशोधन मंगलकार्य में किस प्रकार कर सकेगा ? शिलालेख कर देते जैसा कि प्रचलन शोधकर्ताओ ने चला दिया है - (खारवेल) में प्रयुक्त 'अहंत' पद का अर्थ अतिशय पूजा के कई मूल शास्त्र बदल दिए और अब 'उल्टा चोर कोतवाल योग्य है...पट खण्डागम् टीका मे वीरसेनाचार्य ने उपरि- को डाटे' वाली कहावत को चरितार्थ करने मे लगे हैंबंकित अथं की पुष्टि करते हुए कहा है-अतिशय पूजाह- "खुद मियाँ फजीहत, दीगरी नसीहत ।" स्वादान्त ...' घवना टीका प्रथम जिल्द पृ० ४४) हम सलमान रुशदी या तस्लीमा नसरीन नही जो हम प्राचार्य वीरसेन द्वारा उद्धृत प्राचीन गाथाओ में भी पर 'हिंसा हि परमोधर्म' का कहर बरपा हो। हम तो भारत' पद आया है ..."अरहंता दुग्णय कयंता' परंपरित मूल-रक्षा की बात करते रहे है और करते रहेंगे। ...aima खारबेल का यह शिलालेख 'मत्र का प्रथम पद क्योकि जैन धर्म रक्षा की इजाजत देता है - "अहिंसा हि का पाठ निश्चित करने में भी सहायक है। ई० पू० १०० परमोधर्म' का पाठ पढाता है। जरा सोचिए। - अरहंत' पद का ही व्यवहार किया जाता था, पता -- संपादक (पृ० २१ का शेषाश) उपदेशमुद्रा में होती है अर्थात् वह हाथ ऊपर उठा कर cally movable like the Jain images," P. 72 करके सम्बोधन की मुद्रा में निर्मित होती जिन प्रतिमाओं से अनेक साम्य होने के कारण भी है। जिन प्रतिमा में यह मुद्रा नहीं होती है किन्तु केवल बुद्ध प्रतिमाओं और तीर्थंकर प्रतिमाओ में भेद करने मे या उपाध्यक्ष के अकन मे देखी जाती है जो कि भूल हो जाती है। सबसे बड़ा भेद तो वस्त्र का है। बद्ध तीर्थकर से नीचे की थेणी मे होते हैं और जिन्हें मोक्ष की मूर्तियां वस्त्र सहित होती हैं जब कि जैन मति दिगम्बर प्राप्ति नहीं हुई होती है। होती है। दिक् या दिशा ही उसका अम्बर या वस्त्र होता सार में यह भी उल्लिखित है कि बुद्ध प्रतिमा के है। वह उस आत्मा का ध्यान दिलाती है जिसने रचमात्र मातलं अस्ति कि जाने चाहिए। प्राय. जिन प्रतिमाओं सासारिक साधन अपने पास नहीं रखा और न ही मन की के कान भी लंबे बनाए जाते है और वे कधी को लगभग कोई बात किसी से छिपाई। बुरे भाव सदा के लिए अपने छ ही जाते है। इस प्रथ में बुद्ध प्रतिमा के बहुत-से लक्षण से दूर कर दिए। जिन प्रतिमाओं के समान दिए गए है। उसमें लिखा है बी १/३२४ जनकपुरी, "The Buddblst images should be made practi नई दिल्ली-५८ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. राहुल सांकृत्यायन-ऋग्वैदिक आर्य पृ०९ ३४. म्लेच्छ जातीयाः: दरद भेदादयश्चांडाल भेदा. १२. अत्रिदेव : आयुर्वेद का इतिहास पृ. २०६ ३५. प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ० २६ १३. कागड़ा गजेटियर पृ० ५०१ ३६. liot or Dowson : The Arab Geogra. १४. शिवप्रसाद डबराल : उत्तराखण्ड के मोटान्तिक पृ०८ phers. १५. राहुल सांकृत्यायन : ऋग्वैदिक आर्य पृष्ठ ८३ ३७. विष्णुपुराण भारत : चौखम्मा संस्करण १९६७ ई. १६. डबराल-मोटातिक पृ०८ । पृ. ३२ तथा Studies in the Geography of १७. भेदाः किरात शबर पुलिन्दा म्लेच्छजातयः ancient and medieval India, P.95 -अमरकोष २।१०।२० ३८. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत आदि पुराण १८. डबराल भोटांतिक पृ०८ २६४६ पृ० ५४ १६. राहुल सांकृत्यायन : ऋग्वैदिक आर्य प.०८१ ३६. अनणुकोणोकणित पाणिभिः किरातः परिवृतः २०. वही पृ०६२ पृ० २२० २१. आदिपुराण भाग २ पृ० १२७ ४०. डा० नगदीश चन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का डा. जगदीसचन्द्र जैन प्राकृत साहित्य का इतिहास इतिहास पृ० ११३ पृ० ११७ ४१. वेदव्यास स्मृति १२१०-११ २२. राहुल सांकृत्यायन : ऋग्वैदिक आयं पृ० ८३ ४२. मनुस्मृति ६०।४३-४४ २३. शेरिंग : Western Tibet and Baitish borderland पृ० १५ ४३. अथर्वेद १०४१४ सैत्तिरीय ब्राह्मण ३।४।११ २४. राहुल सांकृत्यायन : ऋग्वैदिक आर्य पृ० ८३ ४४. महाभारत-अनुशासन पर्व ३५१७।१८ २५. राहुल साकृत्यायन : पुरातत्त्व निबन्धावली १० ११५ ४५. किरातार्जुनीयम् १२१४०-४३ २६ Hodiwal: Studies in Indo Muslim ४६ धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-१ पृ० १२६ history. ८७. अभिधान रत्नमाला २१५९८ २७. कागड़ा गजेटियर पृ० १७२ ४८. महाभारत (कणं पर्व) ७३१२० २८. (अ) Pyggot Be hristoirc India. ४६. भगवती सूत्र १।३३।३८० Anciet cities of India पृ० २२६ ५०. Dr. J.C. Sikdar : Studies in Bhagwati २९. महाभारत-वनपर्व अ० ४२ ___sutra P. 321 ३.. पियर्सन : सिग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया जिल्द ५१. जम्बुद्दीव पण्णति, ५६ पृष्ठ २३ १ खण्ड १ पृष्ठ ४१ ५२. विष्णु पुराण (विलसन का संस्मरण) पृ० १५६-६० ३१. Sherring: Western Tibet and British *3. Le Nepal. 11 PP. 7218 Sylvain levi borderland P.२०४-२०५। ५४. J.A.S. B.XIX Leong-chroncles of Trir ३२. काश्मीरन्तु समारम्य कामरूपात्व पश्चिमे। pura P.536 भोटान्त देशो देवेशि ! मानसेशाच्च दक्षिणे॥ ५५. पउमचरिप २७१७-६ शक्ति संगमा तंत्र ३१७३३ ५६. रघुवंश ३८० ३३. जेहिं किज्जा घाला, जिण्णुणिवाला, भोटन्त ५७. स्काफ द्वारा अनुवाद पृ० ४७, ६२ पिट्टन्त पले। भंजाबिय चीणा, दाहिहीणा लोहावत हाकंद पले। ५८. मैकक्रिडल्ल पोलेभी, मजूमदार द्वारा सम्पादित ... ...काशी राजा जखण चले। राहल सांकृत्यायन पुरातत्त्व निबन्धावली ५६. कालिदास का भारत भाग पृ० ६२ कागज पाति:-श्रीमती अंगरीदेवीन, धर्मपत्नीथी शान्तीलालन कागजीके सौजन्य से नई दिल्ली - - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regan tha Registrar of Newspaper ark No. 10591/62 बोर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन सब-प्रशस्ति सग्रह, भाग १: मस्कृत भोर प्राकृत के १७१ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मगलाचरण पहित पर्व संग्रह, उपयोगी १२ परिशिष्टी पोर प. परमानन्द शास्त्रो की गतिहास-विषयक सानिया परिवारमक प्रस्तावना मे पनकत, सजिल्द । ... -प्रशस्ति संग्रह, भाग २.पके १२२ अप्रकाशित पन्पो को प्रशस्सियों का महत्वपूर्ण समझ पचपन इन्धकाग के ऐतिहासिक पंच-पश्चिय और परिशिष्टो महित । स. प. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द १५... भवणवेनगोल पोर दक्षिण के अन्य न तो श्री राजकृष्ण बन साहित्व धीर इतिहास पर विराम: पष्ठ सध्या ७४, सबिल्द । । नामावली (तीन भागों में):स.प.बालवाद मिटान शास्त्री प्रत्येक भाग.... Basic Tenents of Jainism : By Shri Dashrath Jain Advocate 5-00 Jarps Bibliography Shri Chhotclal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jaip References ) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contamos 1045 to 1918 pages size crowa octavo Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to oach library, its library cdition is made available only in 600/- for one set of 2 volume 600-00 प्रका - मम्पादन परामचंदवा : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक भी पप्रथम सास्त्री -भारतभूषण जैन एडवोकेट, पोरसेवा मन्दिर के लिए, गीता प्रिटिंग एजेन्मी, डी०-१०१, यमीनमपुर, 'दिल्ली-५॥ द्वारा मुदित प्रिन्टेड पत्रिकाबक-पक्टि 'ANEKANI' Perodual-june 1994 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- _