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________________ जिज्ञासा एवं समाधान न लिया, अपने को ही पर का उपादान रूप कर्ता-धर्मा जगत में मिला हुआ देख । जो अपने को जगत से भिन्न माना तो समझो कि वह दूसरी दुनिया मे चला गपा, देखना है वह भिन्न हो जाता है और जो जगत से शकर अपने स्वरूप से हट गया । यदि जीव अपने स्वरू। से हट यानी मिला हुआ अपने को देखता है वह शंकर यानी गया तो समझो कि दुखो को परम्परा आ गई। क्योकि जगत् से मिला हुआ (ससारी) ही रह जाता है। अपने स्वरूप को भूलकर कही भी लगो, सर्वत्र क्लेश ही सम्यक्त्व पाने के लिए शान्ति के मार्ग मे बढने के क्लेश है। लिए सबसे पहला कदम है दन्द्रि विजय । अर्थात इन्द्रियो अपने आप मे मा अनुभव बन बन जाए कि ब ह्य के विषयों पर विजय प्राप्त करना । इन विषयो से पृथक, पदार्थ उपयोग में नहीं है वेवल 'ज्ञानरस" का अनुभव विषयो के ग्रहण की साधनभूत द्रव्यन्द्रियो से पृथक, ओर होता रहता है, ज्ञान दृष्टि होती रहती है तो उसे सम्यक्त्व विषयग्रहण के विकल्प भाव रूप भावेन्द्रिय से पृथक ज्ञान निश्चित हुआ जानो। अपने आपको सहज चैतन्य के रूप मात्र अपने आत्मतत्व का अनुभव करूं। इसके लिए हम मे पहिचान होगी तव सम्यक्त्व होगा। स्वभाव दर्णन सीधा इतना ही करे किषियो के निमित्तो को दूर करें। (सम्यग्दर्शन) क्या है ? जैसा खुद का स्वरूप है तैसा ही तथा विष के कारणभन इस शरीर को आत्मा से अलग उपयोग बन गया, यही स्वभावदर्शन है। मुझे करना वेतन समझे । फिर इन विकल्पो के दूर होने पर आत्मा में परम एक ज्ञानानुभव ही है। ज्ञान मे ज्ञान का अनुभव कर विश्राम होगा। जिससे शान्ति के स्वरूप और शान्ति के मैं अपने में अपने आप आनन्द स्वरूप होऊँ। मार्ग का साक्षात्कार होगा। सुख इसी विधि से है। तू अपने को यह समझ कि मै ज्ञानमात्र है। इसके अन्यत्र विषयो मे गुख खो नना महामूढता है । भागे में कुछ नही है । इस ज्ञान मे ही सब कुछ आ गया। इस कला से तू जगत् के अन्य प्राणियो से भिन्न हो सम्यक्त्व उपाय : - यह आत्मा क्या है ? जरे आत्मा मे अनन्त शक्ति है जाएगा। मेरे में क्या है ? मेरे में सब कुछ है। मेरे में ज्ञान है, और उम शक्ति के प्रतिसमय परिणमन चनते रहते हैं। अनादि में परिणमन चला पाया और अनन्त काल तक वह ज्ञानही सब कुछ है । ज्ञान की कला से तो देखो, यह राग है, मोह है, ज्ञान का अधेरा है, ज्ञान का ही उजेना परिणमन चलेगा। परिण मन तो होगा, परन्तु परिणमन है। ये सब ज्ञान के ऊपर ही निर्भर है। बडो-२ विपदाओ या शनि भेद (गुणभेद) की दृष्टि से परिचय नहीं होगा। के सामने यदि ज्ञान से काम ले तो विपदाएँ दूर हो मक। आत्मा का अनुभव नही होगा। यह ऐसा पकड़ में नही है । ज्ञान के बिना आकुलताएं-व्याकुलताएँ दूर नहीं हो आ सकता जिससे स्पष्ट पहिचान मे आवे। अरे, यह है सकती हैं। कहा भी है . आत्मा । जैसे हाथ में रखी स्वर्ण की डली है। वह पहिभिन्नदर्शी भवेद्भिन्न. मकरेषी च शकर.। मान मे आ जानी है कि यह है । एक ज्ञान-दृष्टि से आत्मा तत्त्वतः सर्वतः प्रत्यक स्याम् स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम् ॥ का सोचो कि यह ज्ञानम्वरूप आत्मा है जो जानन का हो हे ग्रात्मन् ! तुझ जगत से न्यारा बनना है या जगत काम करता है वही आत्मा है । इतना ही नही, जानने की से मिला हुआ बनना है? पहले इसका निर्णय कर । जगत् जो शक्ति है, कालिक जो ज्ञान स्वभाव वह आत्मा है। से न्यारा रहने की स्थिति कैसी होगी? तो देखो, वहां न इस तरह केवल ज्ञानस्वरूप को ही लक्ष्य में रखो तो ज्ञान कुटुम्ब है, न समागम है, न शरीर है, न कर्म है, न क्रोध स्वरूप ही लक्ष्य में रहत-२ यह लक्ष्य भी छुट कर ज्ञानहै, न मान है, न माया है । जाननमात्र शान्त आत्मा की और अनुभव हो जाता है। यह चीज प्रयोग सामान्य स्वरूप तेरी स्थिति होगी। यदि तुझे जगत् से की है । भीतर में उपयोग बने कि मैं ज्ञानमात्र हू और भिन्न रहना है तो अपने को जगत से भिन्न देख। और जानन (ज्ञान) का जो स्वरूप है उसे ही लक्ष्य मे लेवे; यदि जगत् से अपन को मिला पा रखना है तो अपने को इतना मात्र ही मैं हूँ", ऐसा रहे तो आत्मा का परिचय
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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