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________________ २२, बर्ष ४७, कि०२ इमेकाम्त मिलता है; आत्मा की पका होती है। [आत्मपरिचयन (अर्थात् ये सब परिजन दिन का स्वप्न है)। अहो! इम का सार। मोह की नीन्द के स्वप्न में कितनी लोटापाई की जा रहो सम्बत्व उपाय : है ? हे कल्याणाथियो ! देह के मोह को छोडो। हे योगी पुरुष ! कर्मकृत भावो को और अन्य चेतन अचेतन द्रव्यो तत्त्व निर्णय करने विषं उपयोग लगावने का अभ्याम को भिन्न समझो। अहो ! सम्यक्त्वी तो पिण्ड छुडाने क राखे, तिनिकै विशुद्धता बधे, ताकरि कर्मनि को शक्तिहीन लिए भोग भोगता है और मिथ्यात्वी भोगो को चाहकर होष । कितक काल विर्ष आप आप दर्भननोह का उपशम भोगता है। जो कुछ-कुछ जान रहा है उसके ही जानने में होय तप या तत्त्वनिकी यथावत प्रतीति आव। सो पाका लग जाए यही दुखो से मुक्त होने का उपाय है। वार्तध्य तो तत्वनिर्णय का अभ्याम ही है। इस होते दर्शन "जो जानने वाला है उसको जानो" केवल जानन मोह का उपशम तो स्वयमेव हो होय । यामैं जीव का का ही सदा पुरुषार्थ करना चाहिए । ज्ञान से बढ़कर तप कर्तव्य किछु नाही। बहुरि ताको हो। जीव के स्वयमेव क्या हो सकता है ? (कुछ नही)। सम्पदासन हीय । बहुरि सम्यग्दर्शन होते श्रद्धान तो यह हे आत्मन् ! गृहस्थ तो उसका नाम है जिसके यह भया-मैं आत्मा हूं। मुभको रागादि न करने । परन्तु भावना रहती हो कि मैं कब मुनि बन ? चारित्र मोह के उदय ते रागादि हो है। [मा० मा० प्र० "जो जानन (ज्ञान) का हो जानन कर लेता है" ६/४६. सस्ती ग्रन्पमाला] है भव्य ! पर वस्तु से मोह न करो, तो क्या जीव मिट जाएगा? पर माने कौन? उसका सम्यग्दृष्टि कहते हैं। [प्र.प्र. ४/५७ भानपुन [५० प्र० २/५४२ रामगज मण्डी] जीव के मरण का भय प्रकाशन मिथ्यात्व है । [५० प्र० १/४३] सर्व पदार्थों को हम कहाँ चाहे मर जाओ पर परद्रव्य मे आत्मबुद्धि न करी । "मैं" में सबका अनुभव चलता है। मैं कर रहा हू, मैं जा तक हटाएं? एक अपने पापके स्वरूप के ग्रहण करने में सबका त्याग हो जाता है। कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य को रहा हू आदि कथनों मे जिसके लिए "मैं" कहा जाता है अपना परिणमन नही देता। वही तो मैं आत्मा हूं। [प० प्र०प्रवचन ४/०१६ भानपुग प्रकाशन मेरा काम केवल जानन [ज्ञान करना] मानन्द ये दो इस प्रकार सम्यक्त्व का सक्रम/प्रक्रम उपाय कहा हो काम हैं। (प० प्र० १/१६४) । गया। राग का राग करने से राग हरा रहता है। इस प्रकार यह जीव स्यावाद को ज्ञान में पूरी तौर सब पदार्थ न्यारे-२ अचने लगना; यही धर्म है। यह पर सोल्लास स्वीकार करता हुआ बद्धा दृष्टि मे शुद्धात्मा ज्ञात हो जाए कि सब पदार्थ मुमसे न्यारे हैं यही अन्तस्तप के प्रति लक्ष्य रखता हुआ उसी को उपादेय मानता हुआ, है। अशुद्ध रहते हुए भी शुद्धता को देखें तो कभी अशु- चारित्र पथ मे स्वय अचारित्री होता हुआ भी जिन मुद्राउता मिट जाएगी । म अवस्था मे भी शुद्ध (शक्तित:) धारी का अनपमान करता हुआ यह जीव आत्मानुभव ) देखा जा सकता है। [५० प्र. ३/१०, ७/४६४ भानपुरा (प्रात्मज्ञान) से सम्यग्दृष्टि हो सकता है; अन्य प्रकार से प्रकाशन] ये मोही बन परिवार के दो तीन जीवो को कभी नहो। सम्यग्दर्शन कहो या आत्मश्रद्धा कहो, या पिमा मान रहे हैं। ये दो-सीन जोब भी तो एक दिन प्रात्मरुचि कहो, या आत्मस्पर्श कहो या आत्मप्रत्यय विदा हो बाएगे। यह मानने वाला भी तो नहीं रहेगा, (पात्मप्रतीति) कहो; से सब एक थं वाचक नाम है। यह भी विदा हो जाएगा । सारा स्वप्न का तो काम है महापुराण ६/१२३] सपादकीय-लेखक विद्वान् ने बड़ा श्रम कर पाठको को अमूल्य निधि दो है, और इस सम्बी निधि को हमने एक ही बस मे पाठको के लाभा अजोयी है। पाठक लाभ ले।
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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