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________________ दिगम्बरत्व और दिगम्बर-मुनि 0 पाचन शास्त्री 'सम्पादक' श्वेताम्बर आगम 'स्थानांगसूत्र' मे सात निन्हव बत- 'एव एए कहिआ ओमप्पिणीए उ निण्हया मत्त । नाए हैं और उनके नायों, आचार्यों के नामो तथा उत्पत्ति वीर वरस्स पवयणे सेसाण पक्यणे नस्थि ।। स्थानों को बतलाया गया है और कथन का उपसहार --विशेषाव.२०१३ करते हरा भी सात का ही निर्देश किया गया है। पर, फिर भी उक्त आजायं ने स्वय की ओर से 'वोटिक विशेषावश्यक भाष्यकार श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने निन्हव' नाम का आठवा निन्हव गतु दिपा । और उसकी अपने भाष्य मे 'वोटिक' नाम का आठवां निन्हव पुष्टि मे रयवीपुर के शिवभूति नामक व्यक्ति को कथा और गढ बिया और उमकी का भी गढ़ दी -जो गढ दी-कि वह गम के मना कने पर भी न । हो गया दिगम्बर मत की उत्पत्ति को पश्चाद्वर्ती मिद करने के और तब से दिगम्बर मत का प्रचलन वीर निर्माण के लिए गढी गई है। पर वह कथा म्वय ही दिगम्बरो की ६०६ वर्ष बाद से हुआ। पर, वे स्वय पह भूल गए कि प्राचीनता को सिद्ध करती है। पाठकों की जानकारी के शिवभति को मबोधन करते हुए उसके गुरु ने उसे यह लिए हम मभी विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं और उन्ही के स्पष्ट कर दिया था कि- सप्रति दुखमा काल मे जिन. आगमो से कर रहे हैं । तथाहि कला व्युच्छिन्न हो गया है यह सत्य है-'सप्रति दुषमासमग्गस्म ण भगवओ महावीरस्स तिथीस मत्त पव- काले म्युच्छिन्नो जिनकला इति सत्यमेतत्'-(देखें टीका यण णिण्हगा पण्णता । तं जहा-नहुरया, जीवपएसिया, ३०७५) इसके प्रागे यह भी कहा है कि जम्बू स्वामी के प्रवत्तिया, सामुच्छे इया, दो किरिया, तेरामिया, अब- बाद निम्न बातें भी व्युन्छिन्न हो गई :द्धिया। ए एसि ण सत्तण्हं पवयणं णिण्हणाण मत्त धम्मा- 'मण परमोघि पुलाए आहारगखवग उसमे कप्पे । यरिया होत्था -जमाली, तिस्सगुत्ते, आमाढे आसमते, मजमतिय के वनिसिझण। य जबुम्मि बोच्छिण्णा ॥ गगे, छल्लुए, गोट्ठामाहिल्ले । एएसि ण सत्तण्ह पवयण -विशेषा० ३०७६ णिण्हगाण सत्त उपपत्तिनगरे होत्या । त जहा-मावस्थी, मन पर्य यज्ञान, परमावविरुत्कृष्टमवधिज्ञानम्, पुलाकउमभपूर, मेयविया, मिहिल, उल्लुगानीर पुरिमंतरजि, लब्धि, आहार शरीरकलन्धिः , क्षयोपशमश्रेरिणद्वयमदमपूर णिण्हग उत्पत्ति नगराई ।।-स्थानागसूत्र अमो- कल्पग्रहणाजिनकल्प , सपत्रिक-परिहार विशुदिसूक्ष्मनक ऋषि सूत्र ८८ पृ०७०८)। माराय-यथारूपातानि, केवलज्ञान, सिद्धगमनं च । एते. श्रावस्ती नगरी में जामाली ने बहुरमन, रिषापुर में जिम्बुनाम्नि सुधम गणषरशिष्ये व्युरिछन्ना -तस्मिन तिष्य गुप्त जीवपएसियामत, आसाढ़ाचार्य ने सेतबिका सति अनुवत्ता: तस्मिन्निर्वाणे व्युण्डिन्ना इति।'-(वही मे अम्बत्तिया मत, गांगेय ने मिथिला मे सामुच्छेइया मत, टीका)। प्रासमित्र ने उल्लकानीर में दो किरियामत, बहुलक ने उक्त संदर्भ में स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि जब पुरमताल में राशिक मन और पोष्ठमाहिल ने दशपुर स्वामी के बाद जिनकल्प' व्युग्छन्न हो गया। ऐसी मे अवधिया मत थापा। अवस्या में यह तो स्वयं ही सिद्ध है कि 'जिनकला' पहिले इन श्रीजिनभावणि भमाश्रमण ने ही उपमहार से रहा। भले ही श्वेताम्बरों की यह मान्यता रहे कि करते हए मात ही संख्या निर्दिष्ट की है । तथाहि-- दिसम्बगल बाद का है। पर, इम मचाई पर कोई परदा
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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