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________________ अनेकान्त/५ मुनिश्री ने प्रकारान्तर से हेतु रूपसे जयसेनी टीकागत सूत्रो को कहा। गो० . सब प्राकृत-व्याकरण सस्कृत मे है। ये ब्राह्मणयुग की देन है जिसमे लघु-भाषाओ को अप-भ्रश बनाया है। तीर्थ-राज वीर प्रभु से आगम रूप मे आया तथा गणहर अथिया श्रुतस्मृत रूप से जब शास्त्र रूप मे आया तो १८ भाषाओ के आचार्यों की दृष्टि श्रोता-हित पर थी, वत्थुसहावो को विद्वज्जनसवेद्य रखकर प्राकृत जन को वचित करने की नही थी। स्याद्वाद भाषा-चौकापथी (CONSERVATISM) का भी निराकरक है। वह भाषा-स्याद्वाद है। कहके नमोअस्तु की। और मै उस आशा के साथ लौटा था जो शोधादर्श पत्रिका के विद्वान सपादक श्री अजित प्रसाद जैन ने अपनी टिप्पणी मे लिखा था (प्रो० खुशालचद्र गोरावाला जैन साहित्य के पिछली पीढी के शेष रहे मूर्धन्य-विद्वानो मे से है। भगवद कुन्दकुन्दाचार्य की अमर कृति समयसार के मूल पाठ मे पूज्य आचार्य राष्ट्रसत विद्यानन्द मुनि के मार्ग-दर्शन मे कुन्दकुन्द-भारती मे प्राकृत व्याकरण के आधार पर किए गए सशोधनो के विषय पर आचार्य श्री के साथ उनकी चर्चा हुई थी। उपर्युल्लिखित भेट वार्ता इस सबध मे उनकी मनोव्यथा को उजागर करती है। समयसार ग्रथ मे शौरसेनी प्राकृत भाषा के प्राचीनतम रूप के दर्शन होते है तथा प्राकृत भाषा के व्याकरण उसके बहुत बाद मे रचे गए थे। अत समयसार की भाषा पूर्णरूपेण व्याकरण के नियमो के अनुरूप न हो तो इसमे कोई आश्चर्य की बात नही। हम प्रोफेसर साहब के अभिमत से सहमत हैं कि उपलब्ध प्राचीन पाडुलिपियो के आधार पर स्थिर किए गए मूल पाठ मे व्याकरण, अर्थ आदि की दृष्टि से यदि कोई सशोधन उपयुक्त समझा जाय तो मूल पाठ के साथ छेडछाड न करके उसे पाठ टिप्पणी के रूप में देना ही उचित है।) लगभग एक वर्ष तक ऐसा लगा कि आधुनिक युगाचार्य के प्रशिष्यत्व ने जोर मारा है। और अब कुन्दकुन्द-भारती आम्नाचार्य के मूलरूप का सर्वोपरि सरक्षक (CUSTODIAN) रहेगा किन्तु १६६४ मे प्रकाशित अब द्वितीयावृति मे पृ० १५ से १६ तक छपी समय प्रमुख श्री १०८ की देशना 'विद्वानो की चर्चा वीतराग होनी चाहिए' को वॉच कर लगा कि अभूत पूर्वता एव असाधारणता या अभिनव प्रियता वही करा रहे है, जो किसी अलकार (उपाधि) लुब्ध कवि के विषय मे 'अनुप्राशस्य लोभेन भूप कूपे निपातत' काव्यजगत का मधुरोपालम्भ है। और महावीर निर्वाण की २६वी शती मे कुन्दकुन्द भारती ही आम्नायाचार्य की कृतियो की शोधक एव व्याख्याकार न रहकर सशोधकता एव परिमार्जकता की ओर अग्रसर है। क्योकि समय-प्रमुख जी ने जिनकी ध्वनि ओकार रूप, निरअक्षरमय महिमा अनुप। दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक समेत ।। की स्वकल्पना या मान्यता अनुरूप व्याख्या करके वही किया है जो दौलतरामजी के छहढाला की एक हस्त लिखित प्रति की दूसरी ढाल के छन्द १३ के साथ उत्तरकाल मे "रागादि सहित' व्यापक पाठ की जगह व्याप्य कपिलादि रचित श्रुत का अभ्यास सो है कशास्त्र बहदेनत्रास करके किसी अवसर परस्त लिपिकार ने किया होगा। समय
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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