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अनेकान्त/६ प्रमुख भाषा को पूर्वचर और व्याकरण को उत्तरचर मानकर भी अनेकान्त के वर्ष ४१ कि.४ के शब्द व्याकरणातीत को लेकर व्याकरण को भाषा के सजाने-सवारने का श्रेय देते हए उसको अनजाने ही धार्मिक वाड.मय में भी अनिवार्य सिद्ध करने का प्रयास करते दिखते हैं। जबकि न्यायशास्त्री भी व्याकरण को अस्माकूणां नैयायिकार्ना अर्थरि प्रयोजनं न तु शब्दरि घोषित करके महत्व नहीं देते हैं। क्योंकि व्याकरण, भावों या चिन्तन की आदान-प्रदानक ७०० भाषाओं को व्याप्य (लधुभाषा) से व्यापक (महाभाषा) बनाती हैं। सुवाच्य-सुबोधता के आदर्श पर चलकर अथवा मागधी-शौरसेनी आदि भाषाओं के बाहुल्य या अधिक क्षेत्र में अववोधता के कारण । वर्तमान भारतीय १४ भाषाओ के समान । वेदपूर्व युग में १- भाषाए प्रमुख व्यापक रही हों भी ऐसी सभावना संकेतित करती है तथा वैदिक संस्कृत भी, अब अंग्रेजी के समान इन १८ भाषाओं में अन्तिम होगी। हमारी अति-सहिष्णुता या विजयी के सामने सर्व समर्पणता के कारण, जैसा कि ऐतिहासिक युग में आठवीं शती की अरब-विजय की और १६ वी शती की अग्रेजी-विजय के कारण अभी हम सांस्कृतिक दासता (अग्रेजीयत) का गत ४७ वर्षों में भोग रहे है।
साहित्यिक सस्कृत के समान प्राकृते उसे (धर्मतत्व को) विद्वज्जन सवेद्य रखकर, शब्द शास्त्र का सागर (अपेयजल) नही बनाता | व्याकरण शब्द-विद्वान होता है। यह आवश्यक नही की उसे शिष्ट ही होना चाहिए। फलत. कुन्दकुन्द भारती के प्रमुख श्री-१०८ से गुरू श्रद्धालु समाज यही आशा करता है कि व्याकरण-पूर्व को व्याकरणातीत मानकर अपने विद्वान-सपादक द्वारा जिन वाणी को साहित्यिक-शौरसेनी के साचे मे कसने के प्रयास को अभूतपूर्व या लीक से हटकर', कह के हम अनादिकाल से भटकते प्राणियो को अनन्त भटकन मे पड़ने की विधि न देवे। क्योकि यह घोडे के आगे गाडी रखने के समान है। पूर्वचर (कुन्दकुन्द–भारती) को उत्तरचर ब्राह्मण-(वैदिक सस्कृति के)-व्याकरणो मे कसना वही होगा, जो चन्द्रगिरी पर बनी भरतेश्वर की मूर्ति के साथ मूर्तिभजको ने किया है. यह पुरातत्वीय स्मारकों के विरूपण या विनाश के समान 'इहामुत्रापायावद्य' है। जिससे हम अविरत भी विरत है। तब 'दंसणणाण चरिताणि सेविदव्वाणि साहुणाणिच्च महाव्रती के तो विशद दर्शन हैं। यह प्रार्थना ही अनेकान्त का उद्देश्य-विधेय हैं। ___व्याकरण के द्वारा किसी भाषा की पहिचान नाम, रूप एव आकारदान की कल्पना यदि भूतार्थ होती तो ब्राह्मण युगीन संस्कृत के यौवन में मध्यम-जघन्य-पात्र सस्कृत न छोडते और वह जनभाषा होती। अर्धमागधी, शौरसेनी, मराठी, प्राकृत के अतिरिक्त श्रमण-वाड्मय श्रोता-सुबोधता-सुवाच्यता-नीति के द्वारा बनायी गयी प्राकृतो को अपभ्रंश (पुराविनाश) नाम देकर द्रविड-भाषाओं के समान अनार्यता देकर वैदिक व्याकरण अवज्ञात न करती । साहित्यिक-सस्कृत की अनुपादेयता तो श्री १०८ समय प्रमुख की दृष्टि में भी है जैसा कि उनके द्वारा ही प्रयुक्त 'मुन्नुडि' शब्द से स्पष्ट हैं। वे जानते है कि प्राग्वैदिक जनभाषा होने के कारण मानव-सस्कृति के आरम्भिक