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अनेकान्त/४ भौतिकता से आक्रान्त मानवता को देने के लिए आरब्ध कुन्दकुन्द-भारती सस्थान ही आम्नायाचार्य के एक मूल पद के साथ छेडछाड करेगा, क्योकि वह शास्त्रार्थ शार्दूल समन्त भद्राचार्य की दृष्टि मे क्च्छासनैका-धिपतित्वलक्ष्मी है जिनकी प्रखर उक्तियो के कारण पचमकाल, वक्ता (समयप्रमुख) श्रोता (सम्पादकादि) के वचनानय का निग्रह शाश्वत है। इसी भावना से लिखने-बोलने के पहले मै १५६३ को, मुनिश्री १०८ से निम्न निवेदन करने गया था। __ प्रो० गो पिशल आदि प्राकृतविदो के अनुसार जैन-शौरसेनी वैदिक-सस्कृत के समान प्राचीन तथा पृथक है, साहित्यिक-सौरसेनी से साहित्यिक-सस्कृत के समान । अतएव जैसे वैदिक-सस्कृत मे साहित्यिक-सस्कृत के आधार पर आज तक एक पद नही बदला गया है, वही हमे करना है जैन-शौरसेनी के विषय मे।
मुनि श्री ने अपनी भाषा-समिति मे आधे घटे तक अपनी साधना आगमज्ञान और शौरसेनी के विशेषाध्ययन का उपदेश दिया ।
प्रो० गो-मै सजदपद-विवाद के समय से ही मूल की अक्षुण्णता का लघुतम पक्ष धर हूँ अत जैन-शौरसेनी या कुन्दकुन्द-वाणी की अक्षुण्णता के लिए अनेकान्त का प्रेरक हू । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन सघ-निर्मित दोनो पडितो मे ममत्व भी है, तथा ये दोनो आपके भी कृपाभाजन रहे है। ये व्याप्य हे और आप व्यापक है। ऐसे प्रसगो मे व्यापक (आप तथा श्रमणमुनि) को अधिक हानि हुई है।
मुनि श्री का पुन वाग्गुप्ति मय उपदेश चला।
प्रो० गो-आपको जो एक अन्य ताडपत्र की प्रति मिली है, उसे अनेकान्त वीर-सेवा–मन्दिर, को दिला दीजिये।
मुनि श्री -मै ५० हजार लोग भेजकर वीर-सेवा-मन्दिर का घिराव करा सकता हूँ| या ५० पडितो के अभिमत (पफलेट) रूप मे छपवाकर बाट सकता हूँ और उस से वीर-सेवा-मन्दिर की भी वही हानि होगी जो आयकर मे शिकायत करके इन्होने कुन्दकुन्द भारतीकी की है।
अभी तक हमारा एक करोड का फण्ड हो गया होता अगर अनेकान्त ने इसके खिलाफ न लिखा होता । गो० यह सब हमारे गुरूओ के अनुरूप नही होगा ! अत. आप लिखे कि अमुक ताड पत्रीय प्रति को आधार मानकर प० बलभद्रजी का सस्करण प्रकाशित किया गया है तथा पूर्वप्रकाशनो को त्रुटिपूर्ण, भूलयुक्त या अशुद्ध कदापि न लिखे, क्योकि यह लिखना जिनवाणी के लिए आत्मघातक होगा | जब एक ही ग्रथ मे पोग्गल, पुग्गल, आदि रूप बहुल (प्रवृति-अप्रवृति) रूप से पाये जाते है तो वे तदवस्थ ही रहे। एकरूपता के लिए एक भी पद बदला, घटाया-बढ़ाया न जावे जो अधिक उपयुक्त लगे उसे 'अत्र सजद. प्रतिभाति' करना पादटिप्पणी मे विश्व मान्य सपादन-प्रकाशन-सहिता है। व्याकरण के आधार पर सशोधन और वह भी दूसरे (साहित्यिक-सस्कृत या शौरसेनी) के आधार पर न हुआ है और न होगा। महाराज आपको कोई प्राकृत व्याकरण प्राकत मे मिला है?