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अनेकान्त/३
(समयसार : प्रकाशक-कुन्दकुन्द भारती)
मुन्नुडि
समयप्रमुख- आ० विद्यानन्द मुनि, सम्पादन-बलभद्र जैन, द्वितीया वृत्ति-१६६४, विद्यार्थी-सस्करण, पृ० स०२८-३१३, डिमाई आकार की
आम्नाचार्य कुन्दकुन्द-द्विसहस्राब्दी के समय वीर-निर्वाणग्रन्थ प्रकाशन समिति ४८, शीतला बाजार इन्दौर द्वारा प्रकाशित समयसार-गुटका पाकर मन मे आया था कि इसके विषय मे श्री १०८ समयप्रमुख से जिज्ञासा करू। किन्तु उस पर छपे बाल-सस्करण ने मुझे सहसा न विदघीत क्रिया की स्मृति दिलाई, क्योकि सस्करण के समान उस समय मेरी भी बाल-जिज्ञासा होने की सभावना थी। तथा मै अपनी मन्थर-नाडी के अनुसार प्राकृत ग्रन्थ के प्रथम विद्यार्थी-सस्करण १६७८ | तक प्रतीक्षा मे सार्वजन-सस्करण की आशा लगाये था। इसे देखकर मुनिश्री के दर्शन कर के अपने मतव्यो का निश्चय किया ही था कि
स्वयंभू सप्रमाण सूक्ष्मेक्षक श्रमण-सिद्धान्त इतिहास-कार एव आचार्य जुगल किशोर की पत्रिका अनेकान्त के अक वर्ष ३३ कि २ से आरव्ध हुई कुन्दकुन्द-भारती से प्रकाशित आम्नायाचार्य की कृतियो के परम्परा-प्राप्त मूल पाठो मे भी परिवर्तन की चर्चा देखकर, तथा मा० सम्पादको (प० पदमचन्द जी एव प० बलभद्रजी) के बीच हुए पत्राचार को सावधानी से पढकर सन-१६७५ से वर्तमान चिन्ता मुखर हुई। और वर्तमान युगाचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी के समय का सत्प्ररूपणा के सूत्र स०६३ का अत्र सजदा प्रतिभाति प्रकरण मानसपटल पर छा गया। जिसका विसर्जन, २२ ७८६ को समाधिस्थ अवस्था मे प० जिनदासजी फडकुले को 'अरे जिनदास धवलातील ६३सूत्र भावस्त्री चे वर्णन करणारे आहे व तेथे सजद शब्द अवश्य पाहिजे, असे वाटते परिमार्जन-प्रतिबोध प्रात स्मरणीय युगाचार्य श्री ने स्वय किया था। अनायास ही मुख से निकला ते गुरू मेरे मनबसो,' सविशेष अपने प्र० प्र० प्रशिष्यो को वही अतर्मुखता विरक्ति दो जिसके साथ आपने १६८६ मे मूलाचार के अग्रेजी-भाषान्तरकार स्व० वैरिष्टर चम्पतराय को ३, ४ गाथाओ का विशद विवेचन न करके 'वैरिष्टर मेरा श्रुतज्ञान या चिन्तन इनके विषय मे स्पष्ट नही है। अभी शब्दार्थ देकर काम चलाओ' दी थी। इस गुरूपरम्परा के अनुसार मै कल्पना भी नहीं कर सकता था कि श्रमण या प्राग्वैदिक भारतीय-सस्कृति के जनभाषा मे प्रथम प्ररूपक कुन्दकुन्दाचार्य की सहिता को,