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अनेकान्त/२
४० वर्ष पूर्व-वर्णी जी की कलम से
जो घर छोड देते है वे भी गृहस्थों के सदृश व्यग्र रहते है । कोई तो केवल परोपकार के चक्र में पडकर स्वकीय ज्ञान का दुरूपयोग कर रहे है। कोई हम त्यागी हैं, हमारे द्वारा ससार का कल्याण होगा ऐसे अभिमान में चूर रह कर काल पूर्ण करते है।
शान्ति का मार्ग सर्व लोकेषणा से परे है। लोक-प्रतिष्ठा के अर्थ, त्याग-व्रत-सयमादि का अर्जन करना, धूल के अर्थ रत्न को चूर्ण करने के समान है | पचेन्द्रिय के विषयो को सुख के अर्थ सेवन करना जीवन के लिए विष भक्षण करना है। जो विद्वान है वह भी जो कार्य करते है आत्म-प्रतिष्ठा के लिए ही करते है। यदि वे व्याख्यान देते है, तब यही भाव उनके हृदय मे रहता है कि हमारे व्याख्यान की प्रशसा हो लोग कहे कि आप धन्य है, हमने तो ऐसा व्याख्यान नही सुना जैसा श्रीमुख से निर्गत हुआ। हम लोगो का सौभाग्य था जो आप जैसे सत्पुरूषो द्वारा हमारा ग्राम पवित्र हुआ । इत्यादि वाक्यो को सुनकर व्याख्याता महोदय प्रसन्न हो जाते है।
मेरा यह दृढतम विश्वास हो गया है कि धनिक वर्ग ने पडित वर्ग को बिल्कुल ही पराजित कर दिया है। यदि उनके कोई बात अपनी प्रकृति के अनुकूल न रुचे तब वे शीघ्र ही शास्त्रविहित पदार्थ को भी अन्यथा कहलाने की चेष्टा करते है।
वासना में अनेक प्रकार के सकल्प रहते है जो प्राय. प्रत्येक मनुष्य के अनुभव में आरहे है। यही कारण है जो लोक में प्रायः सभी दुखी देखे जाते हैं । सुख का अनुभव उसी को होगा जो सब चिन्ताओ से रहित हो जावे।
-वर्णी वाणी से