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________________ १६, वर्ष ४७, कि० ३ अनेकान्त कर पाए और न ढूढ पाए। इसका आशय नेताओ यह था कि भारतीय शासन किसी कट्टरवाद या सम्प्रदाय योग्यता को रेखाकित करना नहीं है, किन्तु इतना अवश्य का पक्ष पाती नहीं रहेगा, क्योंकि निरपेश का तात्पर्य है कि देश हित में नेताओ की चिन्तन शैली एव विचारण होता है "उदासीन होना"। अतः कट्टरवाद या सम्प्रदाय शक्ति जो प्रतिबिम्ब उनके आचरण में परिलक्षित होती निरपेक्ष याने कट्टरवाद या सम्प्रदाय से उदासीन होना। है उसने इस शब्द के यथार्थ को अवश्य विकृत कर दिया वास्तव मे कोई भी देश व्यापक और सही अर्थ में प्रयुक्त है। सम्भवतः यही कारण है कि आज भारतीय धर्म धर्म से उदासीन हो ही नहीं सकता है। यहा यदि अभि और समाज के सन्दर्भ में 'सेक्यूलरिज्म' की सही परिभाषा, प्रायार्थ ग्रहण किया जाय तो मम्प्रदाय निरपेक्ष होना अधिक अर्ष और भाव को व्यस्त कर पाना सम्भव नहीं है। समीचीन, सार्थक और उपयुक्त है। विश्व में समय-समय हमारे शास्त्रो के अनुसार धर्म सार्वभौमिा है जो पर हिंसा का जो ताण्डव और भीषण रक्तपात हुआ सर्वोदय और सर्व कल्याणकारी है। वह प्राणिमात्र को है वह इस देश के नीति निर्माताओ की दृष्टि मे अवश्य धारण करने वाला है, अतः वह मर्वग्राह्य, सबके द्वारा था। उससे बचने के लिए तथा देश को हिंसा और रक्तअनुकरण वं अनुमारित किए जाने योग्य है। धर्म एक पात से बचाने के उद्देश्य से उन्होंने देश को "सेक्युलर' ऐमा शब्द है जो अपने अर्थ गाम्भीर्य के माय अर्थ की घोषित किया जो सम्प्रदाय निरपेक्ष के अर्थ मे समीचीन व्यापकता को संजोए हुए है और प्राचीन काल मे उसी है, न कि धर्मनिरपेक्ष के अर्थ मे। रूप में वह प्रयुक्त किया जाता रहा है, किन्तु आज उसे वास्तव में यदि देखा जाय तो धर्म और सम्प्रदाय मे संकुचित कर इतना अधिक विकृत कर दिया गया है कि जमीन आसमान का अन्तर है। धर्म की विविधिता होना वह न केवल अपने अर्थ की व्यापकता, अपितु मूल अर्थ अलग बात है, एक धर्मावलम्बी होना भिन्न बात है और और उसके अन्तनिहित भाव को भी खो चुका है। धर्म रहित या धर्म निरपेक्ष होना अलग वात है। भारतीय सेक्यूलरिज्म का अर्थ यदि धर्म निरपेक्षता किया जाता शासन का धार्मिक सिद्धान्तो से विरोध सम्भव नही है है.जैसा कि आजकल चचित और प्रचलित है तो यह जवकि साम्प्रदायिक भावना के लिए उसमें कोई स्थान मानना होगा कि देश स्वतन्त्रता के पश्चात् देश के सवि- नही है। इस सन्दर्भ मे इस ममं को समझना आवश्यक है धान निर्माताओ ने देश को धर्म निगे बनाने की बात कि आखिर धर्म है क्या? सक्षेप मे इसका उत्तर यह है कि कही और "धर्म निरपेक्ष नोति अपनाने की घोषणा की। जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना एवं उच्चादर्शी का तब से लेकर आज तक समय-समय पर इस पर व्यापक आचरण धर्म की परिधि मे आता है। जो व्यक्ति या पर्वा भी हो चुकी हैं और देश के उच्च कोटि के राजनेता, समाज या देश इससे शून्य है वहा धर्म नहीं है। जो राजनीतिज्ञ, प्रबुद्ध जन तथा विद्वत् वर्ग अपना मन्तव्य सिद्धान्त या बाते हमारे अन्त.करण मे उदारता, सहिष्णुता व्यक्त कर चुके है । इसके बावजूद इसकी मूल अवधारणा और आचरण को शुद्धता के भाव को अंकुरित करते है वे अभीतक स्पष्ट नहीं हो पाई है। इसका कारण सम्भवतः ही सिद्धान्त जीवन मे नैतिक मूल्यो कीस्थापना करते है। यह हो सकता है कि धर्म निरपेता को बात केवल अत, धर्म की अवधारणा मात्र उन्ही सिद्धान्तो पर अवराजनैतिक क्षेत्र में और राजनीति के सदर्भ में ही अधिक स्थित है। कोई भी राष्ट्र उन सिद्धातो की अवहेलना पचित रही है। इसके अतिरिका धर्म निरपेक्षता का सही कैसे कर सकता है ? अथवा उनसे निरपेक्ष कैसे रह सकता अर्थ न अपना कर इसकी व्याख्या इतने गलत ढंग से की है? क्योकि राष्ट्र की स्थिरता का आधार वे ही नैतिक गई कि जनसाधारण में ऐसी भ्रान्त धारणा व्याप्त हो मूल्य है। अतः राष्ट्र की अम्युन्नति और प्रगति के लिए, गई है कि भारतीय शासन अवामिक है अथवा धर्म से लोगो मे सद्भाव बनाए रखने के लिए राष्ट्र का धर्म उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, जबकि उसका यह तात्पर्य सापेक्ष होना आवश्यक है। कदापि नही था । वस्तुत. उसका अभिप्राय और उद्देश्य वास्तव में देखा जाय तो आज धर्म निरपेक्ष के स्थान
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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