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जैन-संस्कृति-साहित्य की रक्षा : एक चिंतन
-- डा० रामेन्द्र कुमार बंसल
आत्म-धर्म अनादि और शाश्वत है जो जीव और जड़ कारण कुछ मरकृति यिरोधी प्रवत्तियां पनपी हैं जिन पर के सम्बन्धों की व्याख्या करता हुआ शुद्धता का मार्ग यदि तन्काल नियत्रण नही किया गया तो उसके फमित बताता है। श्रमण-संस्कृति का मूल आधार है वीतरागी दुष्परिणाम पातक सिद्ध होगे । व्यक्ति का व्यक्तित्व तो देव, वीतरागी गुरु और वीतरागता-पोषक शास्त्र । वीत- उम्र समाप्ति पर विस्मति के गर्त मे चला जाता है किन्तु रागता के तत्व के कारण यह तीनो त्रिकाल, पूज्य और उसके इतिहाग एवं सस्कृति-विरोधी कृत्य समूची मानवता वंदनीय हैं। यदि कोई देव, गुरु या शास्त्र समग्र रूप से को प्रनावित करते रहते है। प्राचीन आचार्यों द्वारा वीतरागता का पोषण या प्रतिनिधित्व नहीं करते तो वे लिखित आप-ग्रन्थो मे मशोधन, खडित मूर्तियों को पुन: वंदनीय होने की पात्रता खो देते है । वदना पात्र की नही, उकेरकर पुनः प्रतिष्ठापित करना, मूर्ति-तस्करी, एवं गुणों की होती है । इमी दृष्टि मे जैन समाज मदेव में इस माहित्य में वर्णित भावो के विपरीत भावो का प्रकाशन, ओर सजग रहा है कि उसके इस विश्वाम मे कही स्खलन कुछ गाधनी द्वारा प्रकट मे गृहस्थोचित कार्य कर २८ मूल न हो और कहीं कोई ऐसा कार्य जाने-अनजाने में न हो गुणो की खुली विराधना करना, रागात्मक साहित्य का जाये जो वीतरागता एव वीतराग मार्ग के विपरीत हो। प्रकाशन, अनेक गजरथों का चलवाना आदि कुछ ऐसी इस सम्बन्ध मे जैन सस्कृति की परम्पराबद्ध सुनिश्चित प्रवत्तिया है जो जन-सम्कृति को चुनौती बन गयी हैं। यदि धारणायें एव व्यवस्था है जो उसके मूलस्वरूप के अस्तित्व
यह कार्य इतर-धार्मिको द्वारा किए जाते तव बात उतनी को बनाये रखे है, यद्यपि समय-समय पर आततायियों एवं
भयावह एव नाजुक नही होती जितनी अभी है क्योकि शिथलाचारियो के कारण उसमे स्खलन हुआ है, फिर भी
यह कार्य उन व्यक्तियो एव संस्थाओ द्वारा किये जा रहे वह दीर्घकालिक सिद्ध नही हुप्रा ।
है जो जा-मकान के कथिन रक्षक/पोषक है और जिन्हे हाल ही मे कुछ नया कर गुजरने की भावना के किसी साध का आशीर्वाद प्राप्त है। बड़ी विचित्र बात
है, ममुद्र मे आग लगी है, बुझावे कोन और कैसे? (पृ० २४ का शेपाश)
र आर्ष-ग्रथों में संशोधन परिवर्तन मानते हैं। पाच महाव्रतो के घारक, पाचो इन्द्रियो को जीतने वाले, भोगो की इच्छा से रहित और स्वाध्याय तथा प्राचीन आचार्यों ने त कालीन प्रचलित जन-भाषा में ध्यान में लगे रहने वाले श्रेष्ठ मुनिवर उक्त स्थानो को माहित्य का निर्माण किया । यह जन-भाषा प्राकृत, जनही दसन्द करते हैं।
शौरसेनी आदि के नाम से चिह्नित की गयी। तत्कालीन इसके अतिरिक्त वेदो आदि हिन्दु प्रयोब बौद्ध ग्रन्थो भावलिंगी मती ने, स हित्य रचना के समय भावानुकल मे ऐसे अनेक प्रमाण हैं जो दिगम्बर मत की ततालीन प्रचलित शब्दो का गाथाओ मे उपयोग किया। अध्यात्मप्राचीनता को सिद्ध करते है कि दिगम्बर मुनि ऋरमदेव काव्य-रचना करते समय आचार्यों को व्याकरण, जो प्राय: के समय से निरन्तर विद्यमान रहे है और दिगम्बर बाद में बनता है, की मुद्धता-अशुद्धता ध्यान मे रखकर मान्यतानुसार इस कान के अन्त तक किसी न किसी रूप काव्य रचना करना इष्ट नही था। उन्होने तो लोकमे विद्यमान रहेगे। यह दिगम्बर मुनियो का भागमोक्त भाषा मे रचनायें लिख दी। यही कारण है कि एक हो प्राचीन रूप रहा है।
रचनाकार ने मुविधानुसार एक ही ग्रन्थ में एक ही भाव