SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनक. रहे कि जैन-शौरसेनी भाषा मिली जुली भाषा हैं। और शौरसेनी मूलत. नाटको की प्रमुख भाषा हैं। (साहित्य दर्पणकार ने तो इस भाषा को (६, १५६, १६५ में) सुशिक्षित स्त्रियों के सिवाय, बालक, नपुंसक, ज्योतिषी, विक्षिप्त रोगियों की भाषा तक कहा हैं। लक्ष्मीधर ने षडभाषा चन्द्रिका (श्लोक ३४) में इस भाषा को छमद्वेष धारी साधुओं की भाषा भी कहा हैं। ऐसा डा जगदीशचन्द्र ने पृ २१ पर लिखा हैं। दिगम्बर आगमो को शौरसेनी घोषित करने वाले और व्याकरण के गीतगाने वाले कृपा करके यह भी सोंचे कि जैनाचार्यों ने अपने ग्रन्थों के नामों में जो पाहुड शब्द जोडा हैं। (जैसे कसाय पाहुड, दसण पाहुड, सुत्तापाहुड आदि) वह शब्द शौरसेनी व्याकरण के किन विशेष सूत्रों से संपादित हुआ है? क्योंकि शौरसेनी के जो विशेष नियम सूत्र वैयाकरणों ने दिए है उनमे एक सूत्र भी ऐसा नहीं हैं जो पाहुड शब्द की सिद्धि कर सके। सभी सूत्र अन्य प्राकृतो के हैं। यत पश्चादवर्ती सभी व्याकरण संस्कृत शब्दों के आधार पर निर्मित है और सस्कृत के 'प्राभूत' शब्द को मूल मानकर वैयाकरणो ने पाहड शब्द की रचना की है तथाहि महाराष्ट्री नियम त्रिविक्रम सूत्र ‘खघथधभाम् १३२० से 'भ' को 'ह' हुआ हैं । प्राकृत चन्द्रिका सूत्र 'जैवात्रिके परभृते सभ्रते प्राभृते तथा' सूत्र ३/१०८ से 'ऋ' को 'उ' और सूत्र' तो ड पताका प्राभृति प्राभृत व्यापृत प्रते. २/१७ से 'त' को 'ड' हुआ हैं। तब 'पाहुड शब्द बना है। ऐसे में 'जैन शौरसेनी को बहिष्कृत कर एकदेशीय सकुचित शौरसेनी की घोषणा करना कौनसी सदबुद्धि है-जब कि पूर्वाचार्यो की भाषा सर्वजन सुबोध कही गई है-'बालस्त्रीमंदभूर्खाणा आदि। और वह भाषा अर्धमागधी व जैन-शौरसेनी है। कितना बडा भ्रामकप्रचार : दिगम्बर जैनाचार्यों की परम्परा (विद्वत्परिषद्) में श्रुत धारक भद्रबाहु आचार्य का काल वीर निर्वाण सवत् १६२ बतलाया है और सम्राट चन्द्रगुप्त इन्हीं आचार्य के साथ दक्षिण देश को गए हैं। वह काल उत्तर भारत में बारह वर्षीय दुष्काल का समय हैं। इसी काल में उत्तर भारत से दिगम्बर मुनियो का दक्षिण में बिहार हुआ बताया है इस काल के लगभग ४५० वर्ष बाद अथोत् वीर निवाण संवत् ६१४ में धरसेन आचार्य का प्रादुर्भाव बतलाया है और इसके पूर्व आचार्य गुणधर का समय है । तथा आचार्य पुष्पदन्त का समय वीर निर्वाण सवत ६३३ अर्थात (आचार्य धरसेन के अस्तित्व में) १६ वर्ष के अन्तराल में बतलाया हैं । इस प्रकार आचार्य पुष्पदंत का काल श्रुतकेवली भद्रबाहु से लगभग ४७१ वर्ष बाद और आ० गुणधर का समय भद्रबाहु के ४५० वर्ष बाद का ठहरता हैं । दिगम्बरों की मान्यता में आचार्य गुणधर कृत 'कसाय पाहुड' व आचार्य पुष्पदन्त कृत 'षट् खण्डागम' ग्रन्थराज दो ग्रन्थ ही ऐसे प्राचीनतम हैं जो सर्वप्रथम प्रकाश में आए। इनसे पूर्व किन्हीं ग्रन्थो का निर्माण नहीं हुआ ऐसी अवस्था में इस काल से ४७१ और ४५० वर्ष पूर्व के मुनियो के लिए ऐसा लिख देना कि 'जब मौर्य युग में जैन मनिसंघ दक्षिण की ओर गया तो उनके ग्रन्थों के साथ प्राचीन शौरसेनी का दक्षिण
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy