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अनेकान्त/६ साधनालीन प० जवाहरलाल जी (भिडर) ने आचार्यकल्प प० टोडरमल जी की कृति मोक्षमार्ग प्रकाशक की मूलभाषा को अक्षुण्ण रखकर 'विशेष' के माध्यम से जिज्ञासुओ एव शोधको के लिए दिशा देकर किया है। तथा उनके परम सहयोगी डा० चेतन प्रकाशजी पाटनी (श्री पार्श्वनाथ मन्दिर, शास्त्री नगर जोधपुर-३४२००३) के द्वारा प्रकाशित सस्करण १६६४ से स्पष्ट है। सुयणाणसरीरी वीरसेन स्वामी ने मगल को अनिवार्य कहा है क्योकि इसके द्वारा ग्रथकर्ता, टीकाकार, सम्पादक प्रवचनकर्ता भी शपथ करता है, परमगुरु परम्परागुरु, गुरु के वचनो की तदवस्थता के साथ साथ उनके वचनसार अनुसरण की एव कर्ता आचार्य के शब्दो की तदवस्थता की । क्योकि तत्तत् आचार्यो के पद उनके लिए शब्दरूपी पुरातत्वीय स्मारको के समान है। वे भाषासहकार या स्याद्वाद के समान है। और साहित्यिक सस्कृत के समान भाषाएकाधिकार से अछूते है। विश्वास है कि 'कुन्दकुन्द-भारती उत्तम मुद्रण, आवरण सज्जादि के समान परम्परित-पाठो की अक्षुण्णता या तदवस्थता को महत्व देकर वीरनिर्वाण की ५-६ वी शती मे सूत्रित आगमो को वीरनिर्वाण की १० शती के बाद सकलित जिनसम्प्रदायी (श्वेताम्बर) आगमो के समान “बहुश्रुत विच्छितौ भविष्यद् भव्य लो-को पकाराय
श्रु त भक्त ये-~-~वलभ्यामकार्य------तन्मुखादविच्छन्नावशिष्ठान, न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽघटितान् आगमान्---------" होने के सकट से बचाकर मूल (अचेल) सघी आगमो मे झलकती वेदपूर्व या आर्यपूर्व सस्कृति के ध्रुव को चलायमान होने के सकट से बचाकर अनुगृहीत करेगी।
-खुशालचन्द्र गोरावाला
'ग्रन्थो के सपादन और अनुवाद का मुझे विशाल अनुभव है। नियम यह है कि जिस ग्रन्थ का सम्पादन किया जाता है उसकी जितनी सभव हो उतनी प्राचीन प्रतियाँ प्राप्त की जाती है उसमे अध्ययन करके एक प्रति को आदर्श प्रति बनाया जाता है। दूसरी प्रतियो मे यदि कोई पाठ भेद मिलते है तो उन्हे पाठ टिप्पण मे दिया जाता है। यह एक सर्वमान्य नियम है। जो विद्वान इस पद्धति का अनुसरण करता है वह सिद्धान्त रक्षा मे सफल माना जाता है । जो इस नियम का उल्लघन करता है, उसकी समाज मे भले ही पूछ हो, सिद्धान्त रक्षा मे उसकी कोई कीमत नही की जा सकती।
वेदो के समान मूल आगम प्राचीन है। वे व्याकरण के नियमो से बधे नही है। व्याकरण के नियम बाद मे उन ग्रन्थो के आधार पर बनाए जाते है। फिर भी कछ अश मे कमी रह जाती है, इसलिए व्याकरण के आधार पर सशोधन करना योग्य नही। जो जैसा पाठ मिले वह वैसा ही रहना चाहिए।
--फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री