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________________ १८, वर्ष ४७, कि. २ अनेकान्त मिथ्यादष्टि : इन्हे आदि सेवै छुट ते करम सो ॥ धरम न जानत बखानत भरम रूप, सम्यग्दृष्टि: ठोर ठोर ठानत लड़ाई पक्षपात की। विकार हेतो सति विक्रियते येषा न घेामि त एव फिर डावाडोल सो करम को कलोलन मे, धीराः। है रही अवस्था ज्यो बभला कैसे पातको । विकार का कारण पैदा हो जाने पर भी जिन के चिन जाकी छाती ताती कारी, कुटिल कुवाती भारी। मे विकार पैदा नही होता वे धीर है, वो ऐमो ब्रह्मघाती है मिथ्यान्वी महापानकी॥ सम्यग्दृष्टि है। सम्यग्दृष्टि : मिण्यादष्टि : बाहर नारक कृत दुख भोगत अन्तर मगरमगटागटी। परचाह हार परचाह दाह दलो सदा कबहू न साम्य सुधाचरू। मन अनेक सुरनिसा पैतिस परनति तें नित हटाहटी सम्यग्दष्टि : मिथ्यावष्टि : तोते को सोने के पिंजडे मे रखो। पिना, बदाम णास्त्र पढे मालाए फेरी, प्रतिदिन रहा पुजारी। खिो तो भी वह इम ताक में रहता है कि पब किन्तु रहा कोरा का कोरा, मन न हुआ अविकारी। बंधन मुक्त होऊ। यही सम्यग्दष्टि का विचार माठ बरस की उमर हो चला, फिर भी ज्ञान न जागा। रहता है। मच तो यह कहना ही होगा, जीवन रहा अभागा ।। मिथ्यादष्टि : सम्यग्दष्टि : पालतू कबूतर को जिडे से बाहर निकालकर उड़ा कवगृहवाससो उदास होय वन सेऊ। दो फिर भी वह वापिम पिजडे मे आता है। वेऊ निजरूप गतिरोक मन करोकी ।। सम्यग्दृष्टि : रहिहो अडोल एक आसन अवल अग। एकाको निःस्पृहोशान्त: पाणिपात्रोदिगबर सहिहों परीषह शीतधाम मेष सरोकी। कदाऽह सभविष्यामि, कर्मनिमल नक्षमः ।। ।।। बिहारी यथाजात लिंग धारी कब । सम्यग्दृष्टि के विचार स्वपर कल्याण के लिए होते हैं। होहु इच्छाचारी बलिहारी हूवा घरी की। मिध्यादष्टि-स्वपर कल्याण के विचारो से रहित होता है मिथ्यावष्टि : सम्यग्दष्टि सोचता है: अतर विषय वासना बरत, बाहर लोकलाज भयभागे। एगामे सासदो आदाणाण दसण लावणो । नाते कठन दिगबर दीक्षा' घरनहि सके दीन संसारी।। सेसा मे बाहिराभावाः सब्बे सजोग लवणा।। सम्यग्दृष्टि : न मे मृत्यु कुतो भीनि: न मे व्याधि कुलो व्यथा । नाहं वालोनवृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ।। श्री राम ने राजा दशरथ के विरुद्ध भड़काये जाने अह न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानष । पर भी कहा था-राजा में दण्डकारण्ये राज्य दत्त न देवः किन्तु सिखात्मा सर्बोऽय कर्म विक्रम. ।। शुभेखिलम् ॥ मिथ्यावृष्टि : मिथ्यावृष्टि : एक बूढ़े सेठ को उसी के लडको ने मारा। बूढा सिधारी देवमाने लोभी गुरु चित्त माने। सेठ साधु के पास आकर बोला, महाराज ! बाप हिंसा मे धरम माने दूर रहे धरम सों॥ बहुत सुखी हैं । साधु ने कहा तो तू भी साधु हो जा, माटी जल भागि पोन वमपशुपक्षी जोन । दूभी सुनी हो जायेमा ।
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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