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________________ निनासा एवं नाबान (जन सुनकर सेठ बोला-महाराज गृहस्थी मे ऐसा स्वभाव की ओर करने पर मति तज्ञान द्वारा मात्मा चलता है आखिर बम्चे ही तो है, सब कुछ सहन ज्ञात होमा । यही सम्यग्दर्शन है। जब मति श्रमज्ञान की करना पड़ता है । ऐसा कहकर झट बदल गया। पर्याय में अन्य ज्ञेय नहीं रहे तथा अपना निज ज्ञायक ही जेयपमे को प्राप्त होता है तो उस ममय प्रात्म साक्षात्कार सम्यग्दष्टि जीव एकान्तवादी नहीं होता हुआ कहलाता है । वही सम्यक्त्व हुआ कहना चाहिए। इस आत्मा की ओर आने के लिए निम्न विचार शास्त्रो ने जहा-जहा निश्चय नय का वथन किया। करणीय हैंही उसी उसी को प्रमाण करना, उसी उसो को सत्य (१) पर वस्नु मे शरण दूढना, विश्राम करना मानना यह मिथ्यादृष्टि का लक्षण है । टोडरमल जी भव धंक है। कहते है कि यह अपने अभिप्रायत निश्चनय की मुरूपता (२) अभ्यास करे, गहराई में जाए नपा तल में करि जो कथन किया होय ताही को ग्रहि करि मिथ्यादृष्टि जाकर पहिवाने तथा वहाँ स्थिर हो तो नन्द (आत्मा) को धार है।" [मो० मा ० प्र० पृ० २७१] प्राप्त होता हैं। यही बात श्रीमद राजच द्र भी (भाग :/६८८ मे) (३) बधन को तो मूर्ख भी नहीं चाह करता । फिर मैं कहते हैं । सम्यक्त्वी तो ऐसा होता है कि "निश्चय तथा शरीरादि का बधन, उसी मे जुडान+ तथा उसी का रख व्यवहार के वास्तविक स्वरूप को समझ कर दोनों नयो रखाव आदि करता आया हू, अर्थात् अभी तक तो मैं के विषय मे मध्यस्थता को ग्रहण करने बाला मन्य हो बहिरात्मा ही बना रहा है। जिनागम मे प्रतिपादित वस्तुम्बरूप को अच्छी तरह समझ (४) हे भाग्यशाली | ध्येय तो एक "जानप्रकाश, मकता है।" इस अमतचन्द्राचार्य के [पू. सि० उ० व्यव- ज्ञानप्रकाश बस, ज्ञान प्रकाश का हो रख। हार निश्चयो यः .... ] में उसे प्रगाढ श्रद्धा होती है। (५) इस जीव को आत्मा पर प्रेम है ही। व्यवहार नय भी झूठ नही होता है । [ण च व्यवहारणओ पुरुषार्थ करे ही करे। चप्पलओ जयधवला जी १/७] इस वाक्य पर उमे ही (६) हे भव्य ! इस नर देह को पाकर एक पल भी श्रद्धा हो सकती है जिमका होनहार उत्तम है. अथवा जो व्यर्थ न गवा । निकट भव्य है। (७) हे मुमुक्षो! एकान्त मे जितना समार घटता है सम्यक्त्व उपाय : उमका शताश भी घररूप काजल की कोठरी मे नही घटना। सर्वप्रथम श्रुतज्ञान द्वाग तन्त्र स्वरूप आत्म स्वरूप (८) इस जोव ने जितना श्रम आजीविका के लिए को समझना चाहिए । "मैं ज्ञानप्रकाश मात्र है" यही स्व किया उतनाही श्रम ह चेतना के लिए करे तो सूलट । है। शेष मब पर है-द्रव्य कर्म, शरीर, रागादि भाव ये (६) यह मिथ्यात्वी जोव पुद्गल मे ही रचा पचा है। भी पर है। फिर पांच इन्द्रिय व मन द्वारा पर द्रव्यो को सेतो हार का सखी चा िनशा इसे तो शरीर का सुख भी चाहिए तथा आत्मिक सुध जानने वाले ज्ञान को, वहाँ से तोड कर उसी अपने मति- पोरी भी। ऐसा कैसे हो सकता है? ज्ञान को आत्मा की ओर करते है। यानी मनिज्ञान को (०) जिस होनहार पुरुष को ऐसा लगता हो कि । पर ज्ञयो से हटाकर आत्मा रूप ज्ञेय मे लगाते है । तो पौदगलिक सुख मिथ्या है, सच्चा सुख इससे भिन्न हो स्वानुभव होगा। श्रुत ज्ञान भी समस्त नय विकल्पो स छूट कोई होना चाहिए तो उसे पुरुषार्थ रन की चटाटी कर आत्मस्वरूप [-ज्ञान प्रकाश मात्र] मे एका हो भी होवे । तभी आत्मानुभव होगा । सम्यग्दर्शन होगा । अपनी मति- (११) समस्त विकारो से रहित अनन्त गणमय अभद ज्ञान तथा श्रृत ज्ञान की पर्याय जो पर पदार्थों की ओर आत्मा मे दृष्टि कगे, सकिन मिलेगा। मुकी हुई हैं जिससे हमे पर पदार्थ ही ज्ञात हो रहे हैं। (१२) "शाम प्रकाश का पुज" यही आत्मा है। इन्ही मति श्रुतज्ञानो को स्वसन्मूख करने पर-अन्तः बस, इसी का अनुभव करना । यही करने योग्य है।
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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