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________________ भागमों के सम्पादन को घोषित विधि सर्वथा घातक है में जो 'बहुल' शब्द है वह स्वय इस बात का सूचक है के ही थे और क्या उनमें यह भी लिखा था कि दि. कि चाहे शब्द रूप हो, चाहे धातु रूप हो, या उपसर्ग आदि आगमो की भाषा शौरसेनी है ? हमें तो विश्वास नही हो उनकी बहविधता को अस्वीकार नहीं किया जा होता कि ऐमा हो। सकता।' पृ० २४७ ।। अन्त में हम निवेदन कर दे कि इतने गम्भीर महत्वपूर्ण २. 'यदि मूलपाठ मे किसी प्रकार का परिवर्तन विषय पर—जिसमें विभिन्न विद्वानों के अब तक विभिन्न किया भी जाता है। तो भी इतना तो अवश्य ही करणीय मत रहे हैं, आगम के बारे मे अल्पावधिक चंद गोष्ठियां और होगा कि पाठान्तरो के रूप मे अन्य उपलब्ध शब्द रूपो पश्चाद्वर्ती विद्वान किसी निर्णय करने के अधिकारी नही को भी अनिवार्य रूप से रखा जाय साथ ही भाषिक रूपो है। हमारी परम्परित प्राचीन आगम भाषा-भ्रष्ट नही है को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति आधार रूप में मान्य जैसा कि उस पर लाछन लगाया गया है। परम्परित की गई हो उसकी मूल प्रति छाया को भी प्रकाशित किया आगम हमे सर्वथा प्रामाणिक है। उन्हें संशोधन के नाम जाय क्योकिं छेड़-छाड़ के इस क्रम में साम्प्रदायिक आग्रह पर अनिर्णीत किसी एक भाषा मे बदल देना आगमो की कार्य करेगे, उससे ग्रन्थ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का अवहेलना है। इस सम्बन्ध में हम पर्याप्त प्रमाण दे चुके हैं लग सकता है।' पृ० २४८ । और 'वागरण' आगमक्ष है। कृपया स्वच्छ मन से ३. "आगम सम्पादन और पाठ शुद्धिकरण के उपक्रम चिन्तन करे इसी रा आगम की रक्षा हो गकेगी। में दिए जाने वाले मूल पाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप में एक बात और।हम सशोधको की सभी मान्यताओ का दिया जाय, किन्तु पाद टिप्पणियों मे सम्पूर्ण पाठान्तरो विधिवत् निराकरण 'अनेकान्त' मार्च ६४ के अपने लेख में का संग्रह किया जाए। इसका लाभ यह होगा कि काला- करचुक है । उस ओर ध्यान नहीं दिया गय।। अच्छा हो न्तर में यदि कोई मशोधन कार्य करे तो उसमे सुविधा कि ये शोरसनी की धुन छोड़ परम्परित दि० आगमो को हो।" पृष्ठ २५३ । स्मरण रहे कि इन्होने हमारे बारम्बार पर-कालवा सिद्ध करने जैसे (अन्जान) असफल प्रयास से लिखने पर भी टिप्पण नही दिए। विराम ले, ऐसी हमारी प्रार्थना है। वरना, ऐसा न हो हमे आश्चर्य है कि ऐसी स्थिति में भी कुछ लोग वि दम भूल का खमियाजा भविष्य में समाज को भोगना भ. ऋषभदेव के व्याकरण तक की बात उछालते है। पड़े। पिछली भूल का परिणाम शिखर जी का विवाद तो हालाकि वे आचार्य कुन्दकुन्द तक का भी कोई प्राकृत- सामने है ही। आखिर, जब त्याग और ज्ञान ये दोनो संग्रह ब्याकरण नही खोज सके। फिर यह भी प्रश्न महत्त्वपूर्ण के पर्यायवाची बन गए हो और मिल बैठे तब सभी कुछ है कि उनके ब्याकरण यदि थे भी तो क्या वे प्राकृत भाषा होना सभव हे इसमे कोई सन्देह नही। -धन्यवाद (पृ०१७ का शेषाश) कर्तव्य बोध से शून्य है और नैतिक मूल्यो का उमक जीवन ओर उन्मुख हे। इम वास्तविकता को हम झुठला नहीं मे कोई महत्व नही है। चाहे शासक वर्ग हो या नागरिक सकते। इस तथ्य को स्वीकार करने में हमे कोई हिचक जन, उनके जीवन मे आचरण की शुद्धता केवल उपदेश भी नही होना चाहिए। जो उपनिवेशवाद हमारे मन में का अंग बनी हुई है। आज जनजीवन मे जो मूल्य पनप घस कर बैठा हुआ है वह उन सभी विकृतियो को रहे है वे हैं भोतिकवादी प्रवृत्ति, आडम्बर, दिखावा, उत्पन्न कर रहा है जो मामाजिक विखराव के लिए अधिकाधिक धन संचय और उसके लिए सभी प्रकार के आवश्यक है। परस्परिक घृणा और द्वेप के बीज उसी हथकण्डे अपनाना । ऐसी स्थिति में धर्म या धर्माचरण की के परिणाम है। ऐसी स्थिति में यदि देश में हिंसा का बात करना मूर्खता मानी जाती है। इस अर्थ में यदि ताण्डव होता है जैसा कि आए दिन हम देख रहे है। देखा जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नही होगा तो इसमे आश्चर्य नही होना चाहिये।। कि आज मनुष्य बड़ी तीव्र गति से धर्म निरपेक्ष (धर्म से प्रथम तल, भा० चि. केन्द्रीय परिषद रहित या उदासीन) होता जा रहा है और वास्तव में १-ई/६, स्वामी रामतीर्थ नगर, प्रवासी धर्म निरपेक्षता (धर्म के प्रति उदासीनता) की नई दिल्ली-११००५५
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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