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________________ १०, वर्ष ४७, कि०३ अनेकात कितनी बड़ी स्वच्छ प्रकिा है ? क्या, आगमो के अस्थिर इसी मे पृ० १७, १८ पर हा० नेमीचन्द ने यह भी होने से जैन स्थिर रह सकेगा या परिवर्तन करने वालो लिखा है कि "प्राकृत भाषा मे ईसवी सन् की दूसरी शती का नाम अजर अमर रह सकेगा? सोचने और चिन्ता का तक उप-भाषाओं के भेद भी प्रकट नही हुए थे। सामान्यतः विषय है। प्राकृत भाषा एक ही रूप में व्यवहुत हो रही थी। इस ३.४ आचार्य जयसेन की दुहाई : काल में वैयाकरणो ने व्याकरण-निबद्ध कर इसे परिनिष्ठित हमें हंसी आती है उस परिकर १२, जहाँ से आचार्य रूप देने की योजना को।" रमरण रहे, कि उक्तकाल जयसेन की टीकागत गाथा २७,३६, ३७, ७३, १६६ के आचार्य कुन्दकूद के बाद का है। 'इश्क' गाथा १७, ३५, ३७३, के 'ऊण' प्रत्ययान्त शब्द यदि उक्त डा० साहब का निश्चित मत होता कि गाथा ५ के चुक्किज्ज । गाथा ३३ के 'हबिज्ज' । गाथा ३०० दि० आगमो की भाषा शौरसेनी है तब न तो वे भाषा मे के 'भणिज्ज ।' गाथा ४४, ६८, १०३, २४० के 'कह' । और उपभेदो की उत्पत्ति दूसरी शताब्दी से बताते और ना ही अण्णाणमोहिदमदी, सब्बण्हणाणदिट्ठो, दि सोपुग्गल तब तक के काल में प्राकृत भापा के एक (अभेद) रूप मे दवीभूदो, गाथाओ के 'पुग्गल' शब्द आगम भाषा से व्यवहृत होने की बात करते । इतना ही नही, उन्होने तो बहिष्कृत किए गए हो वही में अपनी अभीष्ट सिद्धि के शौरसेनी के 'त' को 'द' मे परिवर्तित होने जैसे मुख्य लिए अब आचार्य जयसेन की व्या रण पंक्तियो की दुहाई नियम की भी उपेक्षा कर आगमो मे (गोरसेनी भाषाहीन) दे, उन्हे वैयाकरण स्वीकार किया जायच्या , आचार्यश्री अन्य भाषाओं के शब्द रूप भी स्वीकार किए है। जैसेतब व्याकरणज्ञ नही दिखे जब उनके द्वागनीकृत उक्त गइ, रहियं, बीयराय, सव्वगय, सुयकेवलि, सम्माइट्ठी, शब्द रूपों का बहिष्कार किया गया। और आगम मिच्छाइटठी आदि । वही, पृष्ठ ४५-४६ । भाषा को भ्रष्ट बताकर लगातार कई आगम बदल दिए डॉ० नेमीचन्द जी के अनुरूप उनके गुरुदेव डा. गए। हीरालाल जी का भी यही मत था कि आगमो की भारा हम स्पष्ट कर दें कि 'आचार्य श्री जयसेन ने व्याकरण मिली जुली प्राकत है। प्राकत भाषा के धुरन्धर विद्वान सम्बन्धी जो भी पंक्तियाँ दी है वे प्राकृत से अनभिज संस्कृत- डा० उपाध्ये भी इसे स्वीकार करते है। -देखे, हमारे पूर्व पाठियो को दण्टिगत करदी है। मस्कृत के नियम प्राकत लेख अनेकान्त मार्च ६४। मासा मे साग नही है। आचार्य ने प्राकृत गोधन में कही जैन आगमों के महान वेत्ता प० कैलाश चन्द शास्त्री भी पश्चाद्वर्ती व्याकरण की अपेक्षा नहीं की और न ही के मत मे-'द्वादशाग श्रुत की भाषा अर्धमागधी थी। कोई व्याकरण प्राकृत भाषा में बना है। जितने भी किन्तु उनका लोप होने पर भी महाराष्ट्री और शौरसेनी माकरण हैं वे संस्कृत भाषा के शब्दो के आधार पर बाद भाषाएँ, जो प्राकृत के ही भेद है, जैन आगमिक-साहित्य में बने हैं। प्राकृत भाषा तो स्वाभाविक भाषा है जो की रचना का माध्यम रही। 'बालस्त्रीमन्दमूर्खाणा' सभी के लिए सरल ग्राह्य है। -जैन साहित्य का इतिहास भाग १, पृष्ठ ३ । ५. डा. नेमीचंद का मत अस्थिर : हम इस प्रसंग मे डा० मोहनलाल मेहता द्वारा संशोधको के मत में यदि डा. नेमिचद ने आगमो की 'श्रमण' जून ६४ मे प्रकाशित लेख के कुछ उन अंशों को भाषा को शौरसनी लिख दिया है तो उन्होने कही यह भी उद्धृत करना भी उपयुक्त समझते है, जिनसे परम्परित तो लिख दिया है कि-"प्राचीन गाथाओ की भाषा शौरसेनी प्राचीन आगमो की भाषा की विविधता और सम्पादन होते हुए भी महाराष्ट्रीपन से युक्त है। भाषा की दृष्टि सम्बन्धी विश्वमान्य-विधि जैसी हमारी मान्यता की पुष्टि से गाथाओ में एकरूपता नही है अर्धमागधी और महा- होती है। तथाहि राष्ट्री प्रभाव इन पर देखा जा सकता है।" प्राकृत भाषा १. 'प्राकृत का मूल-आधार क्षेत्रीय बोलियाँ होने से मोर साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' । पृष्ठ २१७ उसके एक हो काल मे विभिन्न रूप रहे है प्राकृत व्याकरण
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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