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________________ अनेकान्त/१३ उन प्रदेशो की भाषा के शब्दो को प्रवचनो मे प्रयोग करते थे। ताकि जन सामान्य उनके उपदेशो को सरलता से ग्रहण कर सके। इस भॉति मूल भाषा अर्ध मागधी ही रही। जिसे बाद में (शौरसेनी बहुल के कारण) जैन-शौरसेनी नाम दे दिया गया । प्राकृत मे महाराष्ट्री, शौरसेनी आदि जैसे भेद तब हुए जब पश्चाद्वर्ती सस्कृत वैयाकरणो ने ई० सन की दूसरी तीसरी शताब्दी मे भाषा को देश-भेद की विभिन्न बोलियो मे बाँधकर व्याकरण की रचना की। इन वैयाकरणो ने सस्कृत के शब्दो के आधार पर प्राकृत शब्दो के रूपो का निर्माण प्रदर्शित किया। प्राय सभी ने प्राकृत (महाराष्ट्री) को प्रधानता दी ओर अन्य प्राकृतो के मुख्य नियम पृथक पृथक निर्दिष्ट कर 'शेष प्राकृतवत्' या महाराष्ट्रीवत् लिख दिया। इससे वैयाकरणो की दृष्टि मे शौरसेनी आदि की गौणता सहज सिद्ध होती है यदि उनकी दृष्टि मे शौरसेनी की प्रमुखता रही होती तो वे शौरसेनी को प्रधानता देते और अन्य भाषाओ के लिए' शेष शौरसेनीवत्' लिखते जैसा कि उन्होने नही किया। वचन से मुकरना : एक बिडम्बना लोक मे सच कबूल कराने के लिए त्रिवॉचा (तीन बार हॉ) भराने की प्रवृत्ति है। और लोग है कि त्रिवॉचा भरने के बाद वचन से नही मुकरते। पर सपादक समयसारादि (कुन्दकुन्द भारती) है कि सात त्रिवॉचा भरने, अर्थात् जैन-शौरसेनी को अनेक बार स्मरण करने के बाद भी वचन से मुकर गए है। स्मरण रहे कि उक्त संपादक ने सन् १६७८ व १६६४ के दोनो समयसारी सस्करणो मे २१-२१ बार जैन-शौरसेनी का स्मरण किया है ओर मुन्नुडि पृ ६ पर स्पष्ट लिखा है कि 'कुन्दकुन्द की सभी रचनाएँ जैन-शोरसेनी मे रची गई है। इन्होने नियमसार प्रस्तावना पृ १२ पर इतना तक लिखा है-'कुन्दकुन्द की भाषा जैन-शौरसेनी है----उन्होने (आ० कुदकुदने) अपनी भाषा मे मगध और महाराष्ट्र मे बोली जाने वाली बोलियो के शब्दो को भी सम्मिलित करके भाषा को नया आयाम प्रदान किया। अब उक्त संपादक ने दिनाक २३ अक्तूबर से ३० अक्तूबर ६४ तक दिल्ली के गुरुनानक फाउण्डेशन मे, कुन्दकुन्द भारती द्वारा मनाई 'राष्ट्रीय शौरसेनी प्राकृत-सगोष्ठी मे वितरित पत्रक मे डा. प्रेम सुमन के साथ निम्न घोषणा की है-'दिगम्बर परपरा के प्राकृत ग्रन्थो की जो भी भाषा उभर कर सामने आती है वह शौरसेनी प्राकृत है उसे इसी नाम से पहिचाना जाना चाहिए-किसी जैन आदि विशेषण लगाने की इसमे आवश्यकता नही है ।' अर्थात् उक्त घोषणा द्वारा ये जैन शौरसेनी भाषा की स्वीकृति से मुकर गए जबकि ये स्वय मुन्नुडि मे जैन-शौरसेनी की स्वीकृति की घोषणा कर चुके हैं और जब कि प्राकृत के ख्याति प्राप्त विद्वान डा हीरालाल जैन इस जैन-शौरसेनी (मिली जली भाषा) से सहमत है ओर डॉ को जुली भाषा) से सहमत है ओर डॉ ए एन उपाध्ये भी मिली जुली प्राकृत (जैन शौरसेनी) की स्वीकृति दे चुके है।
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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