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________________ अनेकान्त/१२ बुद्धिमत्ता नही। परम्परित प्राचीन दिगम्बर आगमो के मूलरूप व दिगम्बरत्व के प्राचीनत्व को सुरक्षित रखने के उद्देश्य और परम्परित पूर्वाचार्यों की ज्ञान गरिमा का सन्मान देने हेतु हमने आवाज उठाई तब भावी सकट से अजान कुछ अर्थ प्रेमियो ने दलील दी कि जब शब्द रूपो के बदलने से अर्थ मे कोई अन्तर न पडता हो तब शब्द-रूपो के बदलने में क्या हर्ज है? पर, हम कहते है कि जब फर्क ही नही पडता तो बदलने की आवश्यकता ही क्या है? कही,यह रूप-बदल दिगम्बरत्व और दिगम्बर आगमोको परवर्ती बनाने की अज्ञ-भूल तो नही? या कही कोई बड़प्पन दिखाने और आगम सशोधक रूप से प्रसिद्ध होने की मनचीती भावना तो नही जो शुद्ध को अशुद्ध बताकर आगमिक बहुत से शब्दो को बहिष्कृत कर शुद्ध किया जा रहा है। कौन कहता है, हमारे आगमो की भाषा अत्यन्त भ्रष्ट है और हम उसे शुद्ध कर रहे है। दिगम्बरो के आगम-मूलत सर्वथा शुद्ध और प्रमाणिक है और उनके शब्दो मे एक रूपता लाने की जरूरत नही है। उसमे सामान्य प्राकृत जातीय सभी भॉति के शब्द रूप है जैसा कि लेख मे आगे दर्शाया जायगा। रही अर्थ-भेद न होने की बात। सो हम निवेदन कर दे कि आगमो के अर्थ उस लौकिक अर्थ की भॉति नही जो एक नम्बरी या दो नम्बरी (दोनो प्रकार का) होने पर भी सुख-सुविधा मे समान अनुभव देता है। यदि अर्थ प्रेमियो की दृष्टि मे कोई अन्तर नही पडता तो क्यो न णमोकार मत्र के 'णमो अरहताण' को जैनी लोग goodMorning toarihamatas या 'अस्सलामालेकु अरिहन्ता' जैसी भाषा मे पढ लेते और अब भाषा के प्रश्न को गहराई ओर ऐतिहासिक प्राचीनता की दृष्टि से भी सोचा जाय। अन्यथा ऐसा न हो कि हम शिखर जी के अधिकार पाने के लिए झगडते और दिगम्बरत्व का प्राचीनत्व सिद्ध करते रहे ओर अब हमारी भूल से एक नवीन बखेडा और खडा हो जाय और दिगम्बर आगम मूल बदलते रहने से अप्रामाणिक ओर अस्थायी माने जाय। तथा कहा जाये कि जिसके मूल आगम ही शुद्ध नही वह दिगम्बरत्व प्राचीन कैसे? क्योकि जिसके आगम जितने स्थायी और शुद्ध व प्राचीन होगे वह धर्म उतना ही प्राचीन होगा यत-आगम के बिना धर्म नहीं चलता। फलत यदि आगम मूल रूप बदल गया तो दिगम्बरत्व की प्राचीनता और आगम दोनो ऐसे खतरे में पड़ जाएंगे जो 'मिटै न मरि है धोय'। हॉ, इससे इतना तो हो जायगा कि एक नवीन झगडा शुरू हो और नेताओ को नेतागिरी के लिए नया काम मिल जाय दिगम्बर आगमों की मूल भाषा कौनसी? __मूल रूप मे आगमो की भाषा अर्धमागधी रही है ऐसी दोनों सम्प्रदायो की मान्यता है। उसकाल मे यह भाषा विभिन्न प्रदेशो के विभिन्न शब्द रूपो को आत्मसात् करती रही और यह अर्धमागधी ही बनी रही। अर्धमागधी से तात्पर्य है-आधी भाषा मगध की और आधी मे अन्य भाषाएँ । तीर्थकरो की दिव्यध्वनि को गणधरो और परम्परित आचार्यों ने इसी भाषा मे अपनाया । क्योकि आचार्य मुनि विभिन्न प्रदेशो मे भ्रमण करते थे और
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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