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________________ ३२, षष ४७, कि. २ अनेकान्त बढवारी दिखी। यह कैसा प्रचार ज पल्लाझाह श्रोता मे मोचें और अपने खान-पान आदि मे भी श्रावकोचित हो और याचार के नाम पर शुन्य । कार्य करे। वे आगे बोले-प्रचार मनमाहक भाषणो की २० से २. स्वागत की विडम्बना: अपेक्षा स्वयोग्य शास्त्रावहित आचार के पालन में स्वागत शब्द वडा प्यारा है। ऐसे विरले ही व्यक्ति अधिक होता है। और वास्तव में ब भाचार में धार होगे जो स्वागन के नाम से खश न होते हों. मन ही मन न हो तब प्रचार का महत्व बापणो से जिनके मनों में गुदगुदी न उठती हो। प्रायः सभी को ही धर्म-प्रचार हान--होगदम्बगेको मलगण इममे खुशी होती होगी-भले ही दूसरों का स्वागत होते गभित 'भापा ममा मि (-1) पान पर अनि देख कम और अपना होने पर अधिक स्वागत अबलोकबोलना होला । पर, मानी है। वं बाल -- हम तो व्यवहार जमा बन गया है जो नेता, अभिनेता या अन्य व्यवहार जमा बन गया है ज इममे उन श्राव ही दोगामागी... मतमो जनों के उत्साह बढाने के लिए, उनसे कोई कार्य साधने के दिगम्बरल की मेनारे भी पारिक नोयत बरतत है। लिए भी निभाया-सा जाने लगा है। खैर, जो भी हो बे धतूरे का फूल ढा र महादे। गे - टूट धन-सम्पदा परम्परा चल पडी है-कोई स्वागत न भी करना चाहे चाहने जसे वरदान की नन दिगम्बगे तो उसके स्वागत करने को गोटी बिठाने की। लोग को अपने निवामो का पवित्रता और काली-वद्धि जैम गोटी बिठाए जाते है-कभी न कभी तो सफलता मिल आशीर्वादो को नाम निर्मोही परी मांजाल फैकते हो जाती है और यदि न मिली तों मिल जायगी। है। और उनसे माफी पर सब "मौन महमति देने मे बडप्पन का भाव व्यक्ति का स्वभाव-सा बन गया है। लगे रहते हैं। मेगा के परसन व्यवहार से कभी लोगों का बडापन गाधने के लिए जन-सभाषो मे ऊंचे मंच कभी ऐसा सन्देह हो लगता है कि ऐसे लोग को मानो र ननाए जाते है-नेताओ को बड़प्पन देने के लिए, मयो धर्म-श्रावक और गुदी निया से वाई प्रयोजन न १ पर रवय बैठकर अपना बडप्पन दिखाने के लिए भी। हो और जयकारे और माला प्रदान करने जैसे कोई आखिर, मत्र निर्माता इमी बहाने ऊंचे क्यों न बैठे ? या मानसिक भाव जगे हो, तब भी आर-पी अपने सहकमिगे को ऊंचा क्यो न बिठाए ? आखिर वे आदि। यह जो न कह बैठे कि बडा आया अपने को ऊंचा विठा हमने कहा-उक्त सचाई सर्वथा म देहास्पद ही है। पर लिया, आदि । मो मब मिल बॉट कर श्रेय लेते हैं। किसी यदि यह मच हो तो चिमनीग अवश्य है। यदि दिगम्ब रत्व को कोई एतराज नही होता। आखिर, होते तो सभी एक के पूर्व प्राचीन रूप मे स्थिरता नहीं आती ता दिगम्बर थली के चट्टे-गट्टे जैसे ही हैं। और दिगम्बरत्व न बचेंगे और लोग हाथ मलते रह हमने कई मगाओ मे आंखो से भी देखा है-स्टेज जाएंगे। और हाथ मलना भी वहाँ ? जब बाम ही नही पर अपनो मे आनो मे एक दूसरे को माला पहिनते पहितो बांसुरी किमकी बनेगी। और बजेगी भो क्या ? मब नाते, पहिनवाते हुए । कोर लोग हैं कि नीचे बैठे इस शून्य मौन होगा, न दिगम्बर जैन होगा और न इस धर्म द्रामे को देख राश होते--ताली बजाते नही अघाते-जैसे के पालक दिगम्बर जैनी ही। आज नो कुन्दकुन्द-विहित वे किसी लका को विलय होते देख रहे हो। पर, हम नही पाचार भी बदला जा रहा है। दिगम्बर चर्चा कहाँ और ममझ पाए कि इस व्पर्थ की उठा-धरी से क्या कोई लाम कैसी होनी चाहिए, इसे सोचे । हम श्रावक अपने आचार होता है ?--केवल समय की बरबादी के। जरा सोचिए ! में कहीं पाप के पुंज तो नही हुए जा रहे इसे भी गहराई
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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