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________________ अनेकान्त/१६ उनको बदलकर एक रूप कर देना सर्वथा ठीक नही है।"-"प्राचीन ग्रन्थो का एक रूप कर देना सर्वथा ठीक नही है"-"प्राचीन ग्रन्थो का एक एक शब्द अपने समय का इतिहास स्तम्भ होता है।"नोट-इनके पूरे पत्र के लिए, देखे 'अनेकान्त अक मार्च ६४। ऐसे में यह चिन्तनीय हो गया है कि इनकी करवट का कारण क्या है? हम पुन स्पष्ट कर दे कि हममे इतनी क्षमता नही जो प्रामाणिक आचार्य गुणधर, पुष्पदत, कुदकुद, जयसेन, वीरसेन, जैसे पूज्य आचार्यो की भाषा का तिरस्कार कर किसी आधुनिक आचार्य या किसी बड़े से बडे आधुनिक (प्रसिद्धि प्राप्त) विद्वान या विद्वानो को ज्ञान में उनसे ऊँचा मानने की धृष्टता करे और आगम भाषा की परख के लिए उनसे परामर्श करे या सम्मेलन बुलाएँ । परख की बात उठाना भी घोर पाप और आगम अवज्ञा है। जरा सोचे कि क्या हमारे पूर्व ग्रन्थ भाषा भ्रष्ट है? यदि भाषा भ्रष्ट है तो वे आगम ही नही। ओर जिसके आगम ही ठीक नही वह धर्म (दिगम्बरत्व) भी प्राचीन कैसे? क्यो कि धर्म तो आगम से प्रामाणिकता पाता है। देखे-प्राचीन आगमो के कुछ शब्द। क्या ये भ्रष्ट जातीय शब्द हैं? जिनको कुदकुद भारती ने दिगम्बर आगमो से बहिष्कृत कर कसायपाहड व षटखण्डागम जैसे प्राचीन ग्रन्थो को गलत सिद्ध करने का दु साहस किया है देखे १. कसाय पाहुड के शब्द गाथा २३ 'सकामेइ गाथा २४, २७, ५७, ६२, ७४, ७६, ६५, ६६, १०१, १०३, ११६. १२०,१२२, १२५, १३०, १३६ मे 'होइ। गाथा १६, ६६, १०१, १०४-१०६ भजि यव्यो । गाथा ५६ 'पवेसेइ' । गाथा ४२ णिरय गइ। गाथा ८५ कायव्व गाथा १०८ उवइ-अणुवइट्ट । गाथा १०२, १०६ मिच्छाइट्टी! गाथा १०२ सम्माइट्ठी। २. 'खवणाहियार चूलिया' गाथा ३ होई, गाथा ३. ६, ७, ८, ६, १२ होइ , गाथा ५ छुहइ, गाथा ११ खवेइ आदि। ३. 'षटखंडागम' के शब्द-सत्र ४.१७७.गई। सत्र ५ णायव्वाणि । सत्र ४६ वउविहो। सूत्र २०, ५१, १३२, १३३ वीयराय। सूत्र २५ से २८, ८३ सम्माइट्ठी। सूत्र २५ से २८,७१, ७६ मिच्छाइट्टी। आदि ४. टीका-पृ. ६८ जयउ सुयदेवदा। पृ. ६८.७१ काऊण। पृ ७१ दाऊण । पृ १०३ सहिऊण । पृ ७४ सभबइ। पृ ६८, १०६, ११०, ११३ कुणइ । पृ. ११० उप्पज्जइ। पृ १२० गइ । पृ १२५ कायव्वा । पृ. १२७.१३० णिग्गया। पृ.६८ सुयसायरपारया। पृ ६५ भणिया । आदि ५. कुंदकुंद अष्ट पाहुडो मे ही एक एक पाहुड मे अनेको स्थानो पर-होइ. होई. हवइ, हवेइ, जैसे रूप है। और नियमसार आदि अनेक ग्रन्थो मे ऐसे ही शौरसेनी से बाह्य अनेक शब्द रूप बहुतायत से पाए जाते है। ऐसे मे कैसे माना जाय कि
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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