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जिज्ञासा एवं समाधान
लेखक - जवाहर लाल जैन, भोण्डर, (राजस्थान) श्री शान्तिलाल कागजी की जिज्ञासा :
जो मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व प्राप्त करता है उसे अनादि मिध्यादृष्टि जीव जब प्रथमोपशम सम्यक्त्र
मिय्यात्त अवस्था मे ही पापकर्मों का होन-हीन रूपेण के सन्मुख होता है या सम्यक्त्व को प्राप्त करता
उदित होना, पुण्य प्रकृतियों का ही प्रायः बन्ध होना, है तब उसके परिणामो की क्या स्थिति होती है? और अशुन (पाप) परिणामों को निवृत्ति होना, तथा ऐसी ही उसे किम-किस प्रक्रिया से गुजरना होता हे और वर्तमान स्थिति में तत्वो का उपदेश देने वाले सत्परूपो की या में उसे प्राप्त करने के लिए किन-किन परिणामो की सारी पाप्ति हो जाना।। आवश्यकता है उम जीव को जिज्ञासा किस प्रकार की होगी? उसके बाद उसी तत्वज्ञान (मै आत्मा र ज्ञायक सांसारिक कार्य में लिप्त रहने के क्षण में भी मम्यक्त्व शाषक बस; ज्ञायक । शगेर पड़ोसी है, पर पुद्गलाय है, रत्न प्राप्त कर सकता है? कैमे विस्तृत समझा।
अनोवाच स नही। अतः उपादेय नहीं। उपादेय समाधान-सम्यक्त्व सम्मुख जीव तथा तरका
नानयो में एक मात्र प्रात्मा ही है।) [नियममार प्राप्त सम्यक्त्त जीव अतिशय निर्म न होता है। इसी कारण
ता.व. ३८ परमात्मप्रकाश / जिपरमात्मानम् अत रेण करण लब्धि में स्थित जीव अपूर्वकरण मे गुजरता हुआ '
न कि बद् उपादेयमस्ति] । गुणधीरण निर्जरा यानी अविपाक निर्जरा करता है।
हम कौ की स्थिति तथा रस (अनुभाग) शिथिल जबकि वह अब भी मियादृष्टि ही है। [पं० रतनचन्द
होते जाते है। यह! (इस स्टेज पर स्थित) मनुष्य ८ वर्ष मुख्तार व्यक्तित्व एव कृतित्व पृ० ११०८, १११३]
आयु वा नो हो ही जाता है। वह ज्ञानोपयोगयुक्त होता किर सम्यग्दष्टि होकर भी वह अन्तर्महतं तक अति
है, सोम हुआ नही होता, जागता हुआ होता है, शुभ विशुद्ध परिणामों वाला होने से गुणश्रेणि निर्जरा यानी
लेश्या परिणाम को ओर गमन करता हुया होता है, मनुष्य अविपाक निर्जरा को करता है। [वही ग्रन्थ पृ० ११०६
के अशुम लेश्या नहीं होती। [ल० सा० पृ० ८५ शिवतथा जयघवला जी १२/२८४]
सागर ग्रयमाला] कषायें घटती हुई होती है [ज०५० क्योंकि प्रथम अन्तर्महतं मे वह सम्यग्दष्टि जीव १२/२०२-२०३] ऐसा मनुष्य चाहे द्रव्य व भाव मे एकान्तानुवृद्धि परिणामो से परिणत रहता है। [ज. प. नपुसक भी भले होवे । [ज० ध० १२/२०६] १२/२८४]
इस स्टेज को प्राप्त वह मिध्यादष्टि मनुष्य (जो ___ फिर लन्ध सम्यक्त्व जीव एक अन्तर्मुहतं बाद सम्यग- अभी ज्ञान मे प्रात्मवस्तु को विषय भी नहीं बना पाया है, दर्शन के साथ सामान्य परिणामयुक्त हो हो जाता है। पर सत्पुरुषो से उदेश लाभ प्राप्त कर च का है, इसलिए फलस्वरूप अविपाक निर्जरा उसके ही होती। [ज००
कमो को शिथिल कर रहा है . ऐसी सज पर-) बहु१२/२८४ चरम पेरा]
आराम बहुपरिग्रह से उदासीन हो जा" है ताकि नरकायु उसके बाद के सामान्य मम्यक्त्व काल में तो उसके बन्ध नष्ट हो । मायाचार छूट जात है ताकि नियंचायु निर्जरा से बन्ध अधिक होता है। [५० रतनचन्द मुख्तार बन्ध नष्ट हो। अल्पारंम परिग्रह परिणाम भी उसके उस व्यक्तित्व कृतित्व पृ० ११.६ : मूलाचार समयसाराधि । समय नष्ट हो जाते हैं । दयादान परोपकार आदि से मिल कार ४६]
रहा जो अल्पारभ तथा अल्पपरिग्रह है ऐसा मनुष्यायु का