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जिज्ञासा एवं समाधान
बधक परिणाम भी उसके छूट जाता है । [श० वा. मे बह श्रेष्ठतम (बनिवृत्ति करण) परिणामो मे पहुंच ६/५१८ ल. सा.पृ० ११]
कर "ऐगो मे बादा; मेरा तो एक आत्मा ही है"। उस __योगो की कुटिलता तथा धोखा देने रूप परिणाम यात्मा को आने मतिश्रुत ज्ञान का विषय बनाता है। उसके नष्ट भये, क्योकि अब वह अशुभ नाम कर्म का बध अपनी भान पर्याय मे अरूपी निज वात्मा का स्वानुभव प्रायोग्य लब्धि मे नही करता। सन्मार्ग प्रवर्तक दूसरे रूप ज्ञान कर लेना उस समय उसके होता है । यह क्षण जीव को अपनी विपरीत कायिक मानसिक वाचिक अनिवृति करण के चरम समय के बाद बाला यानी चेष्टाओ मे बह मिध्यादृष्टि अन्य जीव को धोखा नहीं देता सम्यक्त्व का प्रथम समय होता है । (६० पन्नालाल जी है तथा अपने आप अपनी आत्मा मे भी कुटिलता नहीं साहित्याचार्य तथा) पंचाध्यायीकार कहते है कि स्वानुभूति बरतता, तथैव पिशुनता, वाडोल स्वभाव, झठे बाट स्वानुभत्यावरण नामक मतिज्ञानावरण के अवान्तर भेद नाप बनाना, कृत्रिम सोना, मणिरत्न बनाना, मुठे गवाही के क्षयोपशम से होने वाला क्षायोपशमिक शान है जो देना, यत्र पिजरा आदि का निर्माण करना, इट पकाना, सम्यग्दर्शन के साथ नियमसे होता है। [पत्राहगयी उतरा कोपला बनाने का व्यापार करना आदि कार्य वह तथा सम्मक्त्व कितामणि प्रस्ता० पृ. ३२ युगवीर समत नहीं करता । क्योकि इनसे उसके अशुभ नाम कर्म का मद्र ग्रन्थमाला] आस्रव होगा। [. बा. भाग ६ पृ. ५२०] जिमका कि स्वानुभूति =म्ब का ज्ञान; ऐसा अर्थ यहा विवक्षित उमके निरोध हो चुका, मिध्यात्व अवस्था मे ही। यही है। परन्तु प्रात्मा अमूर्त होने से छमस्थ का ज्ञान उसे अशुभ नाम की व्युच्छत्ति रूप प्रायोग्य लम्धि है।
प्रत्यक्ष नही देख पाता । आत्मा का आकार तथा प्रदेशादिक पर की निन्दा तथा अपनी प्रशसा (अहगाव Ego) उमे साक्षात् नही दिखते। कहा भी है-"आत्मा का भाव तो उसके ऐसे नष्ट हो चुके कि कभी नही आदेगे। प्रत्यक्ष जानना तो केवली ही के होय है।" (रहस्यपूर्ण क्योकि सासादन सम्यदृष्टि तक ऐसे भाव होत हैं या चिठ्ठी) परन्नु अन्धा व्यक्ति जैसे मिश्री को डलो को नहीं फिर प्रायोग्य लब्धि से पूर्व समयवर्ती मिथ्यात्सी के एसे देख पाता, आकार, रग, रूप नही जान पाता; तथापि भाव होते है। दमगे के गुणों से ई तथा स्व क नही रसास्वाद तो कर लेता है। नव यह गृहस्थ भी आत्मा गुण हैं तो भी गुण बनाकर कहना यह कार्य यह नही ।। जानना, जाना, अनुभव यानी 'उसे विषय करना' तो करता । दु.ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वत्र, यनो रोना, कर सकता है। यही स्वानुभव (स्वज्ञान) या स्वानभव इत्यादि न करता है, न कराता है । अरे ! यह स्टज तो प्रत्यक्ष है । स्वानुभव-प्रत्यक्ष रूप स्थिति चौथे मे सम्भव मुनियों को भी दुर्लभ है। अर्थात् मुनियो का भी जो है। (रहस्यपूर्ण चिट्ठी का सार) प्रकृतिया बधती है ऐसी अस्थिर, अशुम, असाता, अगश. परन्तु सासारिक कार्यों में लिप्त होने के क्षण में वह कीति, अरति, शोक नामक ६ प्रकृति इस मिध्यादष्टि : मिथ्यादृष्टि गृहस्थ सम्यक्त्वरत्न को प्राप्त नही कर बंधती समाप्त हो जाती है । (यही प्रायोग्य लब्धि + सकता । मविशुद्ध (धवल ६/१०६) अर्थात् त्रिकरण= अन्तिम ३४ा बन्धापसरण है।) [जवल ६/१३८. करण लब्धि धवल ६/२१४)मे स्थित सातिशय मिधात्वी १३६]
नोकिसी अपेक्ष. मुनि से भी विशुद्ध होता है। मुनि तो अतः इन के बाधने का परिणाम सामान्य मुनिराज आस्थर अशुभ असाता आदि ६ प्रकृतियों का बन्ध करता के तो होते हैं, परन्तु सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्यात्वी के नहीं है, पर वह करणब्धिम्य मियादृष्टि इन प्रकृतियो का होते । अत अहो, वह जी। तो मुनि से भी उत्तन रिणाम बन्ध नहीं करता। (बड़ी तो अन्तिम बघापसरण है) वाला हो जाता है। यही प्रायोग्य लब्धि है। तब फिर क्षाधिक गम्यक्त्वो तसा तीर्थकर प्रकृति के बन्धक प्रथम बही जोब करण लब्धि को प्राप्त होता है तथा भावपार गृथ्वीस्थ श्रेणिक आदि या यहा के क्षायिक सम्यक्त्वी निर्जरा भी उसके (अपूर्वकरण मे) प्रारम्भ होती है। ऐसे भवनी गहस्थी विदेह क्षेत्रीय भव्य ग्रहस्पों से भी बह