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________________ २६, बर्ष ४७, कि०३ अनेकान्त हरिद्वार से पूर्व की ओर नैनीताल, उत्तर प्रदेश और (उ०पू० सी०) तक विस्तृत है, भोट (तिब्बत) के सीमान्त नेपाल तथा दरमंगा की तराई" में मिलती है। तिरहुत से मिला होने के कारण भोटात नाम का प्रयोग होने (तोरभुक्ति) को यह नाम इसी जाति के बाहुल्य से लगा" । मिला है५ __ और इस उत्तरी सीमान्त के किरातो के लिए भुट्ट, पश्चिम की ओर यह जाति बोकसा और महर" नाम भोटा, भोटांतिक जैसे नामो का प्रयोग आरम्भ हुआ। से गढ़वाल और देहरादून के भाबर मे घिरत, चांग और दसवी गताब्दी मे काशी के कवि सम्भवतः विद्याधर ने बाती आदि नामो से होशियारपुर, कागडा और जम्मू तक नेपाल के नेवारो के साथ भोटांतो का उल्लेख किया है। मिलती है" प्राचीनकाल में इस जाति का प्रसार तराई के ग्यारहवी शताब्दी मे क्षीर स्वामी ने दर्दरी के साथ दक्षिण में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल मे व्यापक भुट्टो को भी म्लेच्छो में गिना है'। इस शताब्दी में रूप से हआ था। पंजाब-सिन्धु के मैदान में भी किरातो कल्हण ने तिब्बत के भूतो और लद्दाख के भुट्टो का.' की टोलियां फैली थी, जैसा हडप्पा की एक समाधि से तथा अलवरूनी ने लटाख के भो तथा अलवरूनी ने लद्दाख के भूटवारी दस्युओं और भूटेसर कपाल से विदित होता है । (अ) (भूटान) का उल्लेख किया है। लघ हिमालय के ऊँचे और बीहड पठारो पर भी जहाँ डॉ० डी० सी० सरकार ने बिहार प्रान्त स्थित राजपशुचारक-कृषक खशी ने बसना पद नही किया। गिरि के तप्तकुण्डो में आराम कर रामगिरि पर्यन्त विन्ध्याभिल्ल किरातों की कुछ टोलियाँ बची रही गयी और चल प्रदेश को किरात जनपद कहा है। आदिपुराण मे शताब्दियो तक अपनी विचित्र रीति-नीतियो के कारण किरात जनपद को भीलों का प्रदेश माना गया है। अपना पृथक अस्तित्व बनाए रहीं। पशस्तिलक चम्पू में कहा गया है कि सम्राट् यशोधर अर्जन को शिव उत्तराखण्ड में किगतवेश में ही मिले जब शिकार के लिए गए तब उनके साथ अनेक किरात थे। हांगहो के उदगम प्रदेश से जब मङ्गोल मुख मुद्रा शिकार के विविध उपकरण लेकर साथ मे गए"। पन्नवणा वाली तिब्बती चीनी जाति दक्षिण में उतरकर असम की सूत्र मे अनार्यों मे शक, यवन, किरात, शबर, बर्बर आदि पश्चिम को ओर बढी तो उसे यहां पहले से बसी म्लेच्क्ष जातियो का उल्लेख है" वेदव्यास ने किरातो को किरात जाति मिली' । आठवीं शताब्दी से तिब्बती मंगोल शद्रों की ही एक उपशाखा माना है"। मनु ने किरात भी हिमालय से इस ओर बढ़कर किरातो मे मिलते रहे" को शद्र की स्थिति को प्राप्त क्षत्रिय माना है। वैदिक और आज भी मिलते जा रहे है।। साहित्य मे किरातो का उल्लेख प्राप्त होता है । महाभारत वेद, रामायण, महाभारत, निरुक्त, कालिदास, बाराह- के अनुशासन पर्व में भी किगत को शूद्रवत् बताया गया मिहिर, बाण और ताल्मी को हिमालय के किरातो का पता है"। किरातार्जुनीय में गिर, अर्जुन की परीक्षा के लिए था रामायण मे तो समुद्री किरातो (हिन्द चीनियो तक का किरात रूप में उपस्थित होते हैं, जिसमें उनके स्वरूप का उल्लेख है। इसलिए निश्चित है कि मङ्गोल मुख मुद्रावाली वर्णन करते हुए भारवि ने लिखा है कि उनकी केश राशि किरात जाति हिमालय प्रदेश मे कम से कम तीन हजार फलों वाली लताओ के अग्रभाग मे बधी थी। कपोल मोर वर्षों से है। हिमालय प्रदेश में इस मोन या मोन-पा जाति पंख से सुशोभित थे और आखो मे लालिमा थी। सीने के वंशज, चाहे उन्होने परिस्थिति बस तिब्बती भाषा, पर हरिचन्दन की टेढ़ी-मेढी रेखायें खिची हुई थी, जिन्हे तिब्बती रीति-नीतियाँ और तिब्बत में प्रचलित लामा धर्म उष्णता के कारण बहते हुए पसीने ने बीच-बीच में काट की विशेषताये भी अपना ली हों, अवश्य किरातवंशी और दिया था और हाथ में बाण सहित विशाल धनुष था"। भारतीय हैं। अमरकोश मे किरात, शबर और पूलिंद को म्लेच्छ जाति दसवी शताब्दी से हमारे उत्तरी सीमन्त के लिए, जो की उपशाखा कहा गया है। अभिधानरत्नमाला में किरात मानसरोवर प्रदेश के दक्षिण में लद्दाख से कामरूप को एक उपेक्षित एवं जंगली जाति का बताया गया है।
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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