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________________ ८, ४७, दि.१ अनेकान्त था अर्थात घर गृहस्थी का भोग करते हुए भी योगी की लाओं के नयन कमलों के लिए सुन्दर चन्द्रमा की भांति तरह जीवन यापन करता था।!-१०॥ आनन्ददायक था। विचक्षण जनों का प्रिय, सुन्दर सरस यह आलोक साह छत्रसेन नामकः श्रेष्ठ गुरु स्वरूप व्यक्तित्व वाला उदार चित्त, बुद्धिमान, सुभगता और मुनि (आचार्य) की अनन्य मन से सेवा में तत्पर रहता सोम्यता की मूर्ति था। प्रासाद गुण से युक्त था, महान था ये छत्रसेन आचार्य माथुरान्वय रूपी विशाल आकाश विपदा रूपी गड्ढों के समूह को सरलता से पाटने वाला, के प्रखर सूर्य तुल्य थे। वे अपनी बक्तृत्वकला से समस्त स्थिर बुद्धि से अपने कुल परम्परा रूपी रथ को उन्नति के सभाजनों का मन ज्ञान से अनुरंजित कर देते थे। इन चरम शिखर पहुंचाने वाला, ऐसे अनेकों सद्गुणों का आलोक साह की श्रेष्ठ धर्मपत्नी का नाम हेना था जो भण्डार श्री भूषण साहुपा ||१५-१६॥ समस्त निर्मल गुणों से युक्त अति शीलवती थी, जिससे इन भूषण श्रेष्ठी की लक्ष्मी और सीली नामक की इनके तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो नय नीति के ज्ञाता विवेक- दो पत्नियां थीं, जो पतिव्रत धर्म और चरित्र गुणसे सयुक्त बन्त और पृथ्वी पर रत्न रूप से विभूषित थे ॥११-१२॥ थी। उन गुरु और देव भक्त भूषण श्रेष्ठी से सीली के आलोक, साधारण और शांति नाम के तीन पुत्र उत्पन्न इनमे से ज्येष्ठ पुत्र का नाम पाहक था जो निर्मम हुए जो अपने बन्धु-बान्धवोके चित्त रूपी कमलो को विकज्ञान वाला था, गुरुजनों की भक्ति मे सदैव तत्पर रहता सित करने के लिए सूर्य तुल्य थे और सवंगण सम्पन्न थे पा, सुतीक्ष्ण बुद्धि से युक्त था जिसके जिनागम सबंधी एवं योग्य थे॥२०.२१॥ ज्ञान के प्रश्नों से गणधर जैसे विशेषज्ञ भी विमुग्ध हो एक दिन भूषण श्रेष्ठी ने सोचा कि यह नश्वर आयु जाते थे फिर किसी और की बात ही क्या कहना ? श्री तो तप्त पर्वत पर गिरे पड़े थोड़े से जल विन्दु की भांति श्री पाहुक श्रेष्ठी करणानुयोग और चरणानुयोग रूपी नश्वर है और लक्ष्मी हायो के कानो की भांति चंचल शास्त्रों में अत्यधिक प्रवीण था, इन्द्रिय जनित विषय भोगों और अस्थिर है तथा अपने शास्त्र ज्ञान से उसने निश्चय से विमुख रहता था, आहार, औषधि, अभय, शास्त्रादि किया कि स्व पर कल्याण के लिए तथा स्थायी यश के दान तीर्थ का प्रवर्तक था, समता भाव से अपने चित्त को लिए कोई मङ्गल कार्य करना चाहिअतः भूषण श्रेष्ठी नियषित रखता था, मन वैराग्य भाव से ओत प्रोत रहता ने यहां एक जिनालय का निर्माण कराया। श्री भूषण श्रेष्ठी था, सांसारिक पापो से विमुक्त हो धर्म की उपासना करते का छोटा भाई श्री लल्लाक वहां बहुत अधिक विख्यात हए व्रतों का आचरण किया करता था ॥१३.१४॥ था, वह नित्य प्रति जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता था पाहक मे छोटा भूषण साहु या जो ससार मे भली तथा अपने बड़े भाई भूषण की आज्ञाओं का सविनय भांति विख्यात था तथा कुल परम्परा से साप्त लक्ष्मी का पालन करता था॥२२-२३॥ पाया. सरस्वती का भण्डार और निर्मल ज्ञान का श्री भषण श्रेष्ठी के ज्येष्ठ भ्राता जिनका १३३ श्लोक रसिक था, तथा क्षमा रूपी लता से युक्त अत्यधिक मे पा लिखा लिपिra कृपालु था। यह भूषण श्रेष्ठी सुन्दरता मे कामदेव तुल्य से उत्कीर्ण किया है । सम्भवतः "प" व 'बा" के पढ़ने में सौभाग्यशाली, बलिष्ठ तथा नेतृत्व गुण से सम्पन्न, धन मे भी शिलालेख के पाठकों को भ्रम हो गया हो अस्तु । इस कुबेर तुल्य अत्यधिक विवेकपूर्ण बुद्धि वाला, उन्नति मे लोक के बाहक और १३ श्लोक के पाहक दोनों एक ही सुमेह तूल्य तथा मानसिक गम्भीरता मे अगाध जलनिधि व्यक्ति हैं । अतः हम पिछला बाहुक नाम ही प्रयोग करेंगे। तुल्य तथा चातुर्य में विद्याधर की भाति ऊंचा था। जिन इस तरह भूषण श्रेष्ठी के अग्रज पाहु श्रेष्ठी की धर्मपत्नी शासनरूपी सरोवर मे राजहस की भांति कल्लोल करने का नाम सोडी था और उससे अनेक शुभ लक्षणो से सयुक्त वाला, मुनी जनों के चरण कमलो में प्रमर तुल्य सम्पूर्ण अम्बर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था ।२४ विक्रम संवत शास्त्र समूह रूपी सागर में मकर की भाति, तथा महि. २१७७ मे स्थली (राजस्थान) वेश में महाराज विजयराज
SR No.538047
Book TitleAnekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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