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४४७, कि०३
भमेशात
अत: धरसेनाचार्य ने दोनो को मन्त्र सिद्ध करने के चली आ रही है। और उस तिथि को वे श्रुत की पूजा लिये कह दिया दोनों गुरू वचनानुसार विद्या सिद्ध करने करते है। के लिये वहाँ से निकल गए। दो दिन के उपवास के बाद
वर्षा योग को समाप्त कर जिन पालित पुष्पदन्त विद्या सिद्ध हई तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवियो
आचार्य ने दीक्षा दी। बीग प्ररूपणा मिन रात्परूपणा को देवा कि एक देवी के दाँत बाहर निकले हुये है और
के सूत्र बना कर गिन पानिन को पढाकर उन्हे भूतबली दूसरी कानी (अंधी है। "विकृताग होना देवताओ का
आचार्य के पास भेजा। भूतबलि आचार्य ने जिन पालित स्वभाव नही है"। इस प्रकार दोनो ने विचार किया।
से जान लिया कि पुष्पदन्त आचार्य की अल्पायु है । मन्त्र-सम्बन्धी शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाले मन्त्र में अधिक अअर मिला कर और अधिक अक्षर अत: महाकर्म प्रकृति प्राभत का विन्द न हो इस वाले मन्त्र मे से अक्षर निकाल कर मन्त्र का पड़ना प्रकार विचार कर भावलि आचा ने द्रव्यप्रमाणाप्रारम्भ किया तो दोनो देवियाँ अपने स्वभाव और नगम आदि को लेकर अन्य रचना की। इसीलिये इस सुन्दर रूप में उपस्थित दिखलाई पड़ी।
खण्ड सिद्धान्त की अपेक्षा भूतबनिय पुष्पदन्त आचार्य
भी श्रत के कता कहे जात है। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी तत्पश्चात् गुरुवर धरमेन के समक्ष योग्य विनय
श्रुतपंचमी का महान पर्व है, इसको ज्ञान पचमी भी सहित उन दोनो ने विद्या-सिद्ध सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त
कहते हैं। को निवेदन किया। बहुत अच्छा "सुट्ठ तुट्टेण" इस प्रकार सन्तुष्ट हुये धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि नक्षत्र
। पांच श्रुत धाम हैं ।। आदि में अन्य का पढ़ना प्रारम्भ किया। इस प्रकार क्रम
(१) पवित्र श्रुततीय राजगह का विपुनाचल है जहाँ से व्याख्यान करते हुये धरसेन भगवान् से उन दोनो ने महावीर स्वामी ने श्रल ज्ञान की गगा बनायी और आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादगी के पूर्वान्ह काल गणधर देव ने इसे शेलकर बारह अगो की रचना में ग्रन्थ समाप्त किया। उसी दिन वहाँ से भेजे गये उन दोनो ने "गुरु वयणमलंधणीज" गुरु के वचन
(२) गिरनार की चन्द्र गुफा -जहा धरमेन स्वामी, अलघनीय होते हैं। ऐमा विचार कर आत हुये अकलेश्वर
पुष्पदन्त व भूतबलि इन मुनियवरो को जमूत्य श्रुत (गुजरात) में वर्षा योग किय।।
का उत्तराधिकार दिया। ज्येष्ठ सितपक्ष पचम्या चातुर्वर्ण्य संघ समवेत.।
(३) अंकलेश्वर जहाँ वह जिनवाणी रतकाम्ढ हुई और तत्पुस्तकोपकरणव्याधात् क्रियापूर्वक पूजाम् ॥ ४८ ।। चतुर्विधि संघ ने थुन गा महोत्सव विधा। श्रुत पचमाति तन प्रख्याति तिथिरय परामाप । (४) मड़वद्री जहाँ पर जिनव णी ताडपत्रो पर सुरक्षित अद्यापि येन तस्या श्रुत पूजा कुर्वते जैन ।
रूप से विराजमान है और आज हम प्राप्त हुई। इन्द्रनदी श्रुतावताह ॥ (५) पोन्नर हिल जहाँ श्री कु० कु० आचार्य ने परमागम अर्थ ---भूतबली आचार्य ने पटवण्डागम की रचना शास्त्र, समयसार, प्रवचन सार, नियममार, पंचास्तिकरके ज्येष्ठ शुला को चतुविधि संघ के साथ उन काय, अष्टपाहुड आदि की रचना की। शास्त्रो को उपकरण मानकर श्रुतज्ञान की पूजा की ये यजन्ते श्रुत भक्त्या ते यजन्तेऽजस. जिनम । जिससे श्रुतपचमी तिथि की प्रख्याति नियो मे आज तक न किचिदन्तर प्राहुराप्ता हि श्रुत देवयो ।
की।