Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 114
________________ आगमों के सम्पादन को घोषित विधि सर्वथा घातक है गाथा की उक्त पक्ति 'कसाय पाहुड सुत्त' की है। प्रश्न व्याकरण (दशम अंग) के वयं विषय में कहा और कसाय पाहुड भाग १६ पृ० ५७ पर 'वागरण' मूत्र गया है कि "अंगुष्ठादि प्रश्न विद्यास्ता प्याक्रियन्ते मभिके विषय मे स्पष्ट लिखा है धीयन्तेऽस्मिन्निति प्रश्न व्याकरणं" "पण्हो ति पुच्छा, "एद णज्जदि' एवमुक्ते एतत्परिज्ञायते किमिति पडिषयण वागरणं प्रत्युत्तरमित्यर्थः"--पृ० १२ वागरण सुत्त ति, व्याख्यान सूत्रमिति, व्याक्रियतेऽनेनेति इसके अतिरिक्त 'सन्मति तर्क प्रकरण' में वागरण व्याकरणं प्रतिवचनमित्यर्थः। अर्थात् ऐसा कहने पर यह से व्युत्पन्न शब्द 'वागरणी' आया है विद्वानो ने मूलजाना जाता है कि यह व्याकरण (ग्रामर) सूत्रहै या व्याख्यान वागरणी को निम्न अर्थों मे लिया है-- सूत्र है ? जिसके द्वारा व्या क्रियते अर्थात विशेष रूप से-- (क) श्री अभयदेव सूरि:- आद्यवक्ता जाता वा। पूरी तरह से मीमासा की जाती है उसे व्याकरण (वागरण (ख) श्री सुखलाल जी मूल प्रतिपादक । सूत्र कहते है, उसका अर्थ होता है प्रतिवचन।" (ग) श्री बेचरदास जी-- , , , । उक्त प्रगंग से स्पष्ट है कि यहा बागरण का अर्थ (घ) डा० देवेन्द्र कुमार--मूल व्याख्याता। शब्दशास्त्र संबंधी व्याकरण (ग्रामर) नहीं है, अपितु (च क्षु० सिद्धसागर जी मूल विवेचन करने वाला। व्याख्या है। खेद है, फिर भी अपनी मान्यता को सिद्ध (छ) षट् खडागम' = मूल व्याख्याता। करने के लिए मूलाचार्यों की व्याख्या को भी बदलने का (ज) कसाय पाहुड (मथुरा) = व्याख्यान करने वाला। अनुचित कार्य किया गया। मुलभाषा तो इन्होने बदल (झ) लघीयस्त्रय स्वोपज्ञ = तीर्थक र वचन संग्रहही दी। विशेष प्रस्ताव मूल२. 'बड्ढउ वायगबसो जसबसो प्रज्जणायहत्थीणं । ध्याकरिणी द्रव्यपर्यायावागरण करणभगिय-कम्मपयडी पहाणाण ॥ थिको निश्चेतन्यो।' -उक्त गाथा श्वेताम्बर प्रथ नन्दीसूत्र की है। संशोधको ने उक्त लेख मे ही कसायपाहुड सुत्त (कलजिसे सशोधको ने व्याकरण की सिद्धि मे दिया है । कत्ता) की हिन्दी प्रस्तावना पृ० ६ से जो यह उद्धृत इसमें वाचकवश के ख्यात आचार्य नागहस्ती की विशेष- किया है कि-'जो संस्कृत और प्राकृत व्याकरणों के ताओ का वर्णन करते हुए उनकी यश कामना की गई है। देता है।' वह अयं भी नन्दी सूत्र की उक्त गाथा से यहां भी वागरण का अर्थ, (आचार्य के वाचक होने से) फलित नहीं होता। क्योकि गाथा में संस्कृत व प्राकृत का शब्द शास्त्र सम्बन्धी व्याकरण न ग्रहण कर प्रश्न-व्याकरण कही उल्लेख नही और न ही उक्त गाथा की व्याख्या में नाम दशवं अग के व्याख्याता (वाचक) के रूप मे ग्रहण कहीं ऐसा कहा गया है अत -मात्र हिन्दी देख कर ऐसा किया है गाथा के अर्थ के लिए नन्दी सूत्र की व्याख्या लिखना प्राकृतज्ञो को शोभा नही देता। और न उक्त दृष्टव्य है । तथाहि -'वागरण प्रश्न व्याकरण, करण= हिन्दी मात्र को देख कर उनका यह लिखना ही सगत है पिण्ड विशुध्यादि, भंगिय -- चतुर्भगिकाद्या, कम्मपयडि - कि-"आचार्य नागहस्ती संस्कृत प्राकृत व्याकरणो के कर्मप्रकृति प्रतीता एतेषु प्ररूपणामधिकृत्य प्रधानानामिति वेत्ता थे, तो यह निश्चित और अस दिग्ध तथ्य है कि उस गाथार्थः ।' पृ० १२ समय इन भाषाओ के व्याकरण के ग्रन्थ भी विद्यवागरण' का एक अर्थ 'सहपाहुड' भी अकित है । कोश मान थे।" में 'सह' का अर्थ ध्वनि और पाहा' का अर्थ उपहार किया उक्त स्थिति में ज्ञाता स्वयं विचार कि 'बागरण' गया है दोनो ही भांति वागरण का प्रसंगगत अर्थ के प्रसंगगत व्याख्या' अर्थ को तिलाजलि देकर उसे शब्दरूपी उपहार देने वाला-व्याख्याता ही ठहरता है ग्रामर जैसे अर्थ मे प्रसिद्ध करना कैसे उचित है ? और और यही नागहस्ती मे उपयुक्त भी है। प्रामगिक आगम-व्याख्याओं में भी बदल करना कौन सी, टिप्पण. (१) 'तित्थयरवयणसंगह विसेस पत्थार मूलवागरणी'

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