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जरा सोचिए
कुछ भूली बिसरी यादें:
नहीं किस प्रकार मरिहंत' पर पोछे प्रविष्ट हो गया।" -~-~-'अरिहंत' के विषय में (डा० नेमोचन्द जी, आरा)
.--'प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक
इतिहास' पृ०६१, सन् १९६६ । ___वर्तमान में अरिहंत' पद प्रचलित है, जो अहिंसासंस्कृति के अनुकूल नहीं है। इस पद का शाब्दिक अर्थ
उक्त विचार डा० सा. के स्वय के हैं और विचार है-अरि-शत्रुओं-कर्मशत्रो के हंत-हनन करने वाले, पर देना व्यक्ति का न्याय संगत मौलिक अधिकार है। अत: इस कोटि के मंगल मंत्र में हन धातु का प्रयोग अहिंसा डा० सा० ने और हमने अपने विचार दिए। इससे यह संस्कृति के अनुकल किस प्रकार माना जायगा? व्यवहार तो नहीं माना जा सकता कि यहा शीर्षस्थ श्रतधर आचार्यों मे देखा जाता है कि भोजन के समय मारना, काटना जैसे को 'अरिहंत' पद का भाव न समझने का आरोपी बताया हिसावाची क्रियापद अन्तराय का कारण माने जाते है,
है। हम दोषी तो तब माने जाते जब पूर्वाचार्यों के मूल को अतः कोई भी अहिंसा व्यक्ति इन शब्दों का प्रयोग
अत्यन्तभ्रष्ट बताकर उनकी मूलकृति मे मनमाने संशोधन मंगलकार्य में किस प्रकार कर सकेगा ? शिलालेख
कर देते जैसा कि प्रचलन शोधकर्ताओ ने चला दिया है - (खारवेल) में प्रयुक्त 'अहंत' पद का अर्थ अतिशय पूजा के कई मूल शास्त्र बदल दिए और अब 'उल्टा चोर कोतवाल योग्य है...पट खण्डागम् टीका मे वीरसेनाचार्य ने उपरि- को डाटे' वाली कहावत को चरितार्थ करने मे लगे हैंबंकित अथं की पुष्टि करते हुए कहा है-अतिशय पूजाह- "खुद मियाँ फजीहत, दीगरी नसीहत ।" स्वादान्त ...' घवना टीका प्रथम जिल्द पृ० ४४) हम सलमान रुशदी या तस्लीमा नसरीन नही जो हम प्राचार्य वीरसेन द्वारा उद्धृत प्राचीन गाथाओ में भी पर 'हिंसा हि परमोधर्म' का कहर बरपा हो। हम तो भारत' पद आया है ..."अरहंता दुग्णय कयंता' परंपरित मूल-रक्षा की बात करते रहे है और करते रहेंगे। ...aima खारबेल का यह शिलालेख 'मत्र का प्रथम पद क्योकि जैन धर्म रक्षा की इजाजत देता है - "अहिंसा हि का पाठ निश्चित करने में भी सहायक है। ई० पू० १०० परमोधर्म' का पाठ पढाता है। जरा सोचिए। - अरहंत' पद का ही व्यवहार किया जाता था, पता
-- संपादक (पृ० २१ का शेषाश) उपदेशमुद्रा में होती है अर्थात् वह हाथ ऊपर उठा कर cally movable like the Jain images," P. 72
करके सम्बोधन की मुद्रा में निर्मित होती जिन प्रतिमाओं से अनेक साम्य होने के कारण भी है। जिन प्रतिमा में यह मुद्रा नहीं होती है किन्तु केवल बुद्ध प्रतिमाओं और तीर्थंकर प्रतिमाओ में भेद करने मे
या उपाध्यक्ष के अकन मे देखी जाती है जो कि भूल हो जाती है। सबसे बड़ा भेद तो वस्त्र का है। बद्ध तीर्थकर से नीचे की थेणी मे होते हैं और जिन्हें मोक्ष की मूर्तियां वस्त्र सहित होती हैं जब कि जैन मति दिगम्बर प्राप्ति नहीं हुई होती है।
होती है। दिक् या दिशा ही उसका अम्बर या वस्त्र होता सार में यह भी उल्लिखित है कि बुद्ध प्रतिमा के है। वह उस आत्मा का ध्यान दिलाती है जिसने रचमात्र मातलं अस्ति कि जाने चाहिए। प्राय. जिन प्रतिमाओं सासारिक साधन अपने पास नहीं रखा और न ही मन की के कान भी लंबे बनाए जाते है और वे कधी को लगभग कोई बात किसी से छिपाई। बुरे भाव सदा के लिए अपने छ ही जाते है। इस प्रथ में बुद्ध प्रतिमा के बहुत-से लक्षण से दूर कर दिए। जिन प्रतिमाओं के समान दिए गए है। उसमें लिखा है
बी १/३२४ जनकपुरी, "The Buddblst images should be made practi
नई दिल्ली-५८