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श्रुत परम्परा
जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थस्थविर, धतसेन, विजया- दो साधओ को आन्ध्र देश मे बहने बाली वेणी नदी चार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह अंग और के तट पर भेजा। जो कुन्द पृष्प, चन्द्रमा और शंख के उत्पाद पूर्व आदि दश पूर्वो के धारक तथा शेष चार पूर्वो के समान सफेद वर्ण वाले, समस्त लक्षणो से परिपूर्ण हैं, एकदेश के धारक हए । इन्होने एक सौ तिरासी वर्षों तक जिन्होने आचार्य धरसेन की तीन प्रदक्षिणा दी है और मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया। इसके बाद नक्षत्राचार्य, जिनके अंग नम होकर आचार्य के चरणों में पड़ गये हैं जयपाल, पाण्डु स्वामी, हम्बसन तथा कंसाचार्य ये पाँचो ऐसे दो बैलो को धसन भट्टारकने रात्रि के पिछले ही आचार्य परागगा क्रमशः सम्पूर्ण अंग ग्यारह अंग) भाग में स्वप्न में देया। इस प्रकार के स्वप्न को देखकर और चौदह वर्षों के एकदेश धारक हये। ये एक मो सनुप्ट हुऐ धग्गेनावापं ने 'जय उ सुय देवदा" श्रुत देवता अठारह वर्ष पर्यन्त श्रत का प्रचार-प्रसार किये । इस प्रकार ।
म ऐसे वचन का उच्चारण किया। छ: सौ तिरम्मी वर्ष पर्यन्त अङ्गज्ञान की प्रवृत्ति रही। उसी दिन दणि पथ मे भेजे हुये ये दोनो साधु धरतत्पश्चात मगद, यशोभद्र, यशोबाढ़ और लोहार्य ये सेनाचार्य के पास पर व गये उसके बाद उन्होने धरसेनाचार्य चारो ही आचार्य सम्पूर्ण आचाराग के धारक और मेव से निवेदन किया कि :अंग ता पूर्वो के एक सौ अठारह वर्ष तक) एक देश के अग
व नमा तुम्ह पादमूल मुगवधारक हये । इसके बाद समी अग और पूर्वो का एक देग याति" आग के पादमुल को प्राप्त हुये है। उन दोनो आचार्य परम्परा से आता हुआ धरनेन आचार्य को गाधी के नकार दिलमेर 'सुदर भट" प्राप्त हुआ।
साला कल्याण होगप्रसार कहकर धरसेन भट्टारक ___अदबलि के शिष्य माघनन्दी और मापनन्दी के उन रानी को जागीपाद दियाशिष्य धररान सौराष्ट्र (गुजरात-काटियावाड़) देश के गाण मगधड़ प..गि म मावि-जाय सुएहि । गिरनार नामक नगर की चन्द्रगुफा में रहते थे। ये अपार भटिय मनाय सगाण माणः जो रद मोहा॥६२॥ महानिमित्त के पारगामी प्रवचन-कुशल थे । इनको आग्रा- नान घरगने विचार fया कि शैलधन, भग्नयणी पूर्व भणित पञ्चम वस्तु की महाप्रकृति नामक घर दिन चामनी, गाल, अपि (मेळा) जाहक चोथे प्राभूत का ज्ञान था कि आगे अङ्ग श्रुत का विरद जो... कमाटी और मशक के समान श्रोताओं को जो हो जाएगा।
भोट मे शुत । व्याय्यान करता है। धारसेनाचार्य ने महामहिमा (जो कि अंग देश के दळगाव पो दिमयागिण बिरा वरोण धम्मतो। के अतर्गत वेगाक नदी के तीर पर था) वेप्या नाम की मो मःमोदी-नोभमई चिर " य-वणे मूढो ।। ६६ ॥ एक नदी बम्बई प्रात के सतारा जिले में महिमानगर एक वह मूळ पढ़ से पति आदि तीनो प्रकार के गॉव भी है, जो हमारी महिमानगी हो सकती है। कामो को धोनकर वियो कीमोनुपता रूपी विप इससे धरमेनाचार्य अनुमानत रातारा जिले में जैनयो के काल हो अर्थात तय की प्राप्ति में भ्रष्ट के पंचवर्षीय राम्मेलन मे मम्मिलिन हा और उन्होने होकर भवन में चिन तक परिश्रमण करता है। दक्षिण पथ के (दक्षिण देश के जिवामी) आचायों प.
ग गवान जागार वन्दना पूर्वक आचरण एक लेख मैं निखे गये धरसेनाचार्य के वचनो को भनी करने वायोगाओ को विधा देना समार और भय को भॉति समझ कर उन संघ के नायक महासनाचार्य ने ही बढ़ाने वाला है।मा विचार कर दोनो की परीक्षा आचार्यो से तीन बार पूछ कर शास्त्र के अर्थ को ग्रहण लेने का निश्चय किया; क्योकि उत्तम प्रकार से ली गई और धारण करने में समर्थ देश काल और जाति से शुद्ध परीक्षा हृदय मे संताप को उत्पन्न करती है- "सुपरिक्वा उत्तम कुल में उत्पन्न हुए समस्त कलाओ मे पारंगत हियय णिवुइ करोति ।