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किरात जाति और उसकी ऐतिहासिकता
डा. रमेशचन्द्र जैन
ऐतिहासिक आधारो साहित्यिक प्रमाणों एवं भाषा पूर्व की ओर असम के नागा प्रदेश से आगे वर्मा, थाई विज्ञान के साक्ष्यो से विदित होता है कि प्राचीनकाल में (श्याम) होते हुए हिन्दचीन-कम्बोदिया तक इस जाति का हिमालय के जंगलों में कोल जाति आखेट और कन्दमूल, प्रसार मिलता है। इस किरात जाति को वर्तमान विद्वानों फल आदि से अपना निर्वाह करती थी, पूर्व की ओर से ने तिब्बती-बर्मी भापा के 'मोन' शब्द और कम्बोदिया लघु हिमालय की ढालों पर पशुचारण करती हुई किरात (कम्बुज) की भापा के 'ख्मेर' शब्द को जोड़कर 'मोन' जाति ने हिमालय मे प्रवेश किया। धीरे-धीरे कोल जाति ख्मेर' नाम दिया है।" को बीहड़ क्षेत्रों की ओर धकेल कर या आत्मसात करके किरात जाति पशुचारक-आखेटक जाति थी। वह यह जाति आसाम से नेपाल, कमाय, कागड़ा होती हई भेड़े पालतीं और काले कम्बल की गाती से शरीर ढकती स्फीती, लाहुल और लद्दाख तक फैल गयी।
थी"। इस जाति में जाति प्रथा नहीं थी, वह न जनेऊ प्राचीन साहित्य और स्थापत्य में इस जाति का पहनती और न पुरोहित रखनी थी। शौचाचार से अनकिरात, कीर, किन्नर और भिल्ल नामो से उल्लेख मिलता भिज्ञ उसका जीवन म्लेच्छो जैसा था"। अन्य पशचारक है। कीर या किन्नर सम्भवत. किरात जाति की प्राचीन जातियों के समान उसम भी पति-पत्नी के सम्बन्ध ढीलेतम शाखा थी। उसका सम्बन्ध मुख्यतः भागीरथी से ढाल होत थे।" पश्चिम के पर्वतीय क्षेत्रों से जोड़ा जाता है। भिल्ल शब्द
कांगडा के किरात ऋग्वैदिक आर्यों के प्रबल प्रतिका प्रयोग सम्भवत: किरात और अन्य वनचर जातियो
द्वन्द्वी थे। उनके नेता सम्बर ने आर्यों को लोहे के चने के लिए व्यापक अर्थ मे होता था।
चबवाए थे। जैन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है असम, सिक्किम और भूटान मे तो आज भी किरात जब भरत चक्रवर्ती दिग्विजय करते हए कैलाश की ओर जाति का बाहल्य है। प्राचीन काल में मिथिला, नेपाल, बढ़े थे तो गगाजी के स्रोत प्रदेश (गढ़वाल) में उनका उसका पूर्वी भाग आज भी किराती या फिरात देश कह- किरातो से घोर युद्ध हुआ था लाता है, कुमायूं जहाँ आज भी राजी या राजकिरात किरात जाति के अवशेष अब मुख्यतः उत्तरी सीमान्त रहते हैं, गढ़वाल जहाँ अनेक कीर नामयुक्त गाव मिलते प्रदेश और तगई में ही मिलते है। इन क्षेत्रो में भी है, टिहरी जहाँ भागीरथी की प्रमुख सहायक आज भी पश्चिम की अपेक्षा पूर्व की ओर फिरातों की भारी जन (भिल्लगंगा') कहलाती है, गगोत्तरी का टकणौर प्रदेश, संख्या है लद्दाख के भोटा, चम्बा के लाहली, लाहल के भागीरथी ऋग्वैदिक काल मे किराती नाम से प्रसिद्ध थी. निचले भागो के निवासी, स्पिति को सिपत्याल, कल्ल में यमुनाघाटी, जहाँ कश्यपसहिता के अनुसार किरात जाति मलाणा गाव के मलाणी, सतलज की उपग्ली घाटी के का गढ़ था", तथा कागड़ा, जहाँ बारहवी शताब्दी तक कनौर (किन्नर), नेलंड के जाड, माणा-नीती के मारछाबैजनाथ कीरग्राम (किरातग्राम) कहलाता था, किरात तोलछा, मिलम के जोहारी, असकोट (पिथौरागढ़) के राजी जाति के प्रमुख केन्द्र थे।
(राज किरात) पश्चिमी नेपाल के मगर और गुरङ, चपटी मुखाकृति, चपटा भाल, छोटी या पिचकी नाक, मध्यनेपाल के तमड्, नेपाल उपत्यका के नेवार, पूर्वी मछ, दाढ़ी की कमी, पीला या गेहंवा रंग, अपेक्षाकृत नेपाल की तीनो किराती जातियाँ, लिम्बू, याखा और नाटा आकार एव हृष्ट पुष्ट शरीर, ये किरात जाति राई, सिकिम के लेपचा और असम के नागा तथा कामकी विशेषतायें है, जो महाहिमालय की उत्तरी और रूप की अनेक मोन-पा जातियाँ उसी महान् किरात या दक्षिणी ढालो के निवासियो म लद्दाख, लाहुल और कनौर मोन-ख्मेर जाति की अवशेष मानी जाती हैं। से लेकर असम तक मिलती है।"
किरातोको दक्षिणी शाखा पाक या मोता जाति
किस