Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 104
________________ जैन और बोड मूर्तियां १६ प्राचीन ग्रंथों का सार लेकर जिन प्रतिमा के निर्माण के घुटनो को छते हए और शरीर से सटे हुए दृढ़ स्थिति में लिए निम्न बाते आवश्यक बताई है-- दिखाए जाते है। शिल्पशास्त्र की भाषा मे वे आजानुलंब शातप्रसन्न मध्यस्वनासाग्रस्थाविकारक । होते है। सपुर्णमापरूपानुविक्षागलक्षणान्वितम् ।। ४. नेत्र अविकारी होते है। उनमे क्रोध, रोष या जोशात,प्रसान, मध्य--4, नासास्थित, अविका अन्य किसी प्रकार का विकार नहीं पाया जाता। आखें न दृष्टि वाली T, जिम . अग वीतरागपना दर्शाता हो, तो मदी हुई होती है और न ही दष्टि वक होती है। अनुपम वर्ण , रोम आदि पारह दोषो से रहित हा, इसके विपरीत दष्टि नासाग्र पर केंद्रित दर्शाई जाती है। अशोक आदि : हायके युग हा आर दोना ओर या तीर्थकर मति के नेत्र जोन्मीलित होते है। वह ध्यान मे यक्षी वेष्टित हा एमी जन प्रतिमा को बनवा कर विधि लीन निजातीका सहित सिंहासन पर विराजमान कर। या व्याख्या ५. मुर्ति पदमा मन हो या कायोत्सर्ग, वह किसी लेखक न सपनो का मे स्वय कोह। आसन या पादपीट पर विराजमान होता है । समान्यतः जैन भूतियाविप लण साधारण भाषा यह आसन कामनाकार होता है। शिरप योजना प्राय. में इस प्रकार -- ऐसी होनी है कि एक कमल की पखाया कार की ओर १. जैन 47 या होती है। उस पर खिली दिखती है, तो इसके नीचे दूसरे कमल की पखडिया किसी वस्त्र या जमपण नहीं लिया जाता है। नीचे की ओर खिली पर्दाशत की जाती है। श्वेतावर जातीयतर मालया पर कभी-कभी वस्त्र ६. केश या बानो का अंकन धघाने रूप में किया अभूपण का अंकन करवा ६। है जो कि प्राथ. धोती जाता है। बाल पोदार दिखते हैं। प्रथम तीर्थंकर के रूप में होता । कार की मूतिया बहुत ही कम ऋपभ देव की कही-ग जटाए भी अपित की जाती हैं पाई गई है। केरल मता पावल एका स्थान पर ही ऐमी जो कि कंघो तक किन्न मुलझी हुई प्रदर्शित की जाती हैं। मृति प्राप्त हरह।। १। कदा एक स्वताबर मदिरा म शेप तीर्थकरी के मा : केश ही अकिन किए जाते है। मुकुट आदि समाग्नि मू14 अवश्य देखा जा सकती ७. मूर्ति की मुद्रा प्रशात, निविकार, ध्यानमग्न, है। स्पष्ट है कि पि । अभाव है। वैसे केरल स्मितयुक्त या मद मुस्कानपूर्ण ऑफत होती है। मे दिग वर मूतिया ही अप्ति हुई है। ८. श्रीवत्स चिन्ह (कमन की चार पखुडियो जैसा २. मूति बल दोही आसना में होती है। पद्मामन गोलाकार चिन्ह) वक्षस्थल पर अकित किया जाता है। या ध्यान मुद्रा बनेठी दुसरया खड़ी हुई। इस अवस्था प्राचीन प्रतिमाआ में यह नहीं भी पाया जाता। को कायोत्सर्ग द्रा पह। है । जिनमे काय या गरीर का . तीर्थकर या जिन प्रतिमा सदा ही न रुण अवस्था उत्सर्ग प्रदमित हो । इनान्द्रा रा शरीर ने ममत्व त्याग में, सुपुष्ट और सुबह शरी' की धारक बनाई जाती है ऐसा कर अत्मा का ध्यान करने की स्थिति सूचित होती है। शिल्प शास्त्र का विधान है। क्वचित अचं पद्मान मूर्ति भी उपलब्ध होती है। लेटी हुई १०. प्रतिमा का वक्षस्थल चौडा भोर कमर उसी के या अन्य .ि.मी मद्रा जवाब-भगिमा में जिन मूर्ति अनुपात मे पतली अति की जाती है। नहीं बनाई जाती है तीर्थक गति उपदेग मुद्रा में भी नही ११ प्रतिमा के आसन या पादपीठ पर तीर्थकर से होती है। वः केवल ध्यानाया में ही निमित की से संबधित चिन्ह होता है। यह बीचो बीच खोदा जाता जाती है। है। चि हो की यहा एक तालिका दी गयी है। पादपीठ ३. हाथ केवल दो ही होते है। उनमे कोई आयुध पर एक सक्षिात विवरण होता है जिसमें प्रतिमा की प्रतिष्ठा या हथियार नही होता है। पदमासन मे हाथो के करतल का सवत, वह किस गण की है और कब किसने उसका ऊपर की ओर होते है। कायोत्सर्ग मद्रा मे हाथ लंबे, निर्माण कराया था एवं किस आचार्य आदि की प्रेरणा से

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