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कंटकर और पुबगल द्रव्य : आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष्य में
shall be able to...Even if thay were a million विज्ञान ने शब्द को टेपरिकार्ड, रेडियो, ग्रामोफोन, केसिट times bigger it wouls still be impossibl to see रिकार्डर, टेलीफोन आदि ध्वनि यन्त्रो से पकड़कर एक them evnn with the most powerful microscope स्थान से दूसरे स्थान पर भेजकर जैन दर्शन के सिद्धान्त that has been mods" (An outine for Boys का ही समर्थन किया है। पुद्गन के अणु तथा स्कन्ध Girls and their parents (Collaniz Section भेदों की जो २३ अवान्तर जातिया स्वीकार की गई हैं, chemistry p261) 13
उनमें एक जाति भाषा वर्गणा भी है। ये भाषा वर्गणायें जैन दर्शन के अनुसार परमाणु पूर्ण ज्ञानी “सर्वज्ञ" के लोक मे सर्वत्र व्याप्त है। जिस वस्तु से ध्वनि निकलती जनगोचर है। उक्त तथ्य से स्पष्ट है कि आज से दो है, उस वस्तु मे कम्पन होने के कारण इन पुद्गल वर्गहजार वर्ष पूर्व कुन्द न्दाचार्य द्वाग लिखा गया परमाणु णाओ में भी कमान होता है, जिससे तरंगे निकलती है, का स्वरूप-"णव इदिए गेहं" कितना वैज्ञानिक है। ये तरगे ही उत्तरोत्तर गदगल की भाषा वर्गणाओ में
परमाण एक प्रदेशी है। 'वह नित्य है, वह सावकाश कम्पन पैदा करती है, जिससे शब्द एक स्थान से उद्भूत भी है और निरवकाश भी।' सावकाश इस अर्थ मे है.
दूसरे स्थान पर पहुंचता है। आधनिक विज्ञान भी शब्द कि वह स्पर्शादि चार गणो को अवकाश देने में समर्थ है वो तथा निरवकाश इस अर्थ मे है कि उसके एक प्रदेश में शब्द भापा-भक और जगापात्मक के भेद से दो प्रकार दसरे प्रदेश का समावेश नहीं होता। परमाणु परिणमन- का है। भापात्मनः न अक्षगन्मा और अनक्षरात्मक के शील है, वह किमी का कार्य नही अत.. अनादि है यद्यपि भेद से दो प्रकार का है। संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी आदि उपचार से उसे कार्य कहा जाता है।
भापाओ के जो शब्द है, वे अक्षरात्मक शब्द है, तथा गाय परमाण, शाश्वत है, अत. उसकी उत्पत्ति उपचार में
आदि पशुओ के शब्द-गकेत अनाक्ष गत्मक शब्द हैं। है, परमाणु कार्य भी है और कारण भी है। जब उसे
अभापात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैयमिक के भेद से दो कार्य कहा जाता है, तब उपचार से ही कहा जाता है,
प्रकार का है। प्रायोगिक चार प्रकार का है तत, वितत, क्योकि परमाण सत् स्वरूप है, धोव्य है अत. उमकी
घन और सुपिर ।' उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। परमाणु पुद्गल की परम्पर में लेप बन्ध कहलाता है। यह भी प्रायोस्वाभाविक दशा है जबकि स्कन्ध अशुद्ध पर्याय ।" दो गिक और वस्रमिक के भेद मे दो प्रकार का है। प्रायोगिक या अधिक परमाण मन्धो का कारण है, उपचार से कार्य अजीव तथा जीवाजीव के भेद में दो प्रकार का है । लाख भी इस प्रकार है कि लोक मे स्कन्धो के भेद से परमाणु लकडी आदि का बन्ध अजीव तथा कर्म और नोकर्म का की उत्पति देखी जाती है। इस भाव को आचार्य उमा- बन्ध जीवाजीव प्रायोगित बन्ध है । बसक भी आदि स्वामी ने इन शब्दो मे कहा है
और अनादि के भेद मे दा प्रकार का है। धर्मास्तिकाय "भेदादणु"--अर्थात् अणु भेद से उत्पन्न होता है। आदि द्रव्यों का बन्ध अनादि है और पुदगल का बन्ध किन्तु यह प्रक्रिया तब तक चलनी चाहिए जब तक सादि है। परमाणोभ पर पर बध के सन्दर्भ मे कुन्द स्कन्ध द्यणुक न हो जाये ।
कुन्द का मत है कि स्निग्ध तथा रूक्ष गुणो के कारण एक शब्द, बन्ध, मूश्मत्व, स्थूलत्व, सस्थान, भेद, अधकार, परमाण दूसरे परमाण के गाय मिलना है। किन्तु यह छाया, आतप और उद्योत ये पुद्गल की पर्याये स्वीकार नियम है कि परमाणओ के बन्ध की प्रक्रिया मे उनमे दो की गयी है।
__गुण अर्थात शत्या का अन्तर होना चाहिए जमे कोई शब्द को अन्य भारतीय दर्शनो, विशेषत. वैगेपिक परमाण दो स्निग्ध शम्या वाला है तो दूगग परमाण, दर्शन ने आकाश का गुण माना है।" किन्तु जैन दर्शन जिसके साथ बन्ध होता है --उसे चार शक्त्यंग स्निग्ध या में पुद्गल की पर्याय माना है, जो समीचीन है । आधुनिक रूक्ष वाला होना चाहिए।' इसी प्रकार तीन को पाच,