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२९, बर्ष ४., कि०२
अनेकान्त
पूजा-दर्शन आदि की सुविधा की दृष्टि से ऐसे मदिरों के स्वणिम-चरागाह सिद्ध हुआ। तस्करी एवं पंचकल्याणक स्थान पर विशाल भवनो का निर्माण किया जा रहा है। का भायोजन दोनो एक-दूसरे के पूरक हैं। मंदिरो से इस व्यवस्था से विशाल मूर्ति खुले में आ जाती है जो मूर्तियों की चोरियों एवं बडी मतियो के सिर काटने की सुरक्षा की दृष्टि से सर्वथा अनुपयुक्त एव अवरोध रहित घटनाये होती रहती है। हम पुलिस रिपोर्ट और दुकानें है। अब जबकि जैन मतियों एवं जन-सस्कृति को जैनो से बन्द कर अपना कर्तव्य पूर्ण कर लेते हैं किन्तु समाज एव हो खतरा पैदा होने लगा है उनकी सुरक्षा की समस्या त्यागीवर्ग मे इतना नैतिक साहस नहीं कि वे मूर्ति तस्करी बढ़ गयी है । दिनांक २५.६.६३ को बुदार नगर के मदिर ।
दनाक २५-६-६३ का बुदार नगर के मदिर के जानकार महानुभावो का हृदय परिवर्तन या बहिष्कार में एक जैन नवयुवक ने इस स्वप्न के अनुसार कि उसके द्वारा मति तस्करी को हतोत्साहित करें। निश्चय-व्य संकट दूर होगे पांच जैन मतियो को माइक के राड से
के नाम पर कटु से-कट पाब्द उपयोग किसी भी प्रसंग निर्ममतापूर्वक खण्डित कर शास्त्रो को फाड दिया। यदि
प्रवचन में सुनने को मिल जावेंगे किन्तु धर्म-संस्कृति की वेदी-मूर्तियां आवृत्त होती तो सभवतः ऐसी दुर्घटना रक्षा के नाम पर दो शब्द भी नही मिलते। प्रसन्नता सरलता से नही घट पाली। धार्मिक-विद्वेष के उन्माद एव की बात है कि दिगम्बर जैन महासमिति ने इस पीडा को अन्य कारणो से मतियों की सुरक्षा हेतु यह आवश्यक है
समझा और दिनाक ३.-१२-६० को जयपुर अधिवेशन मे कि प्रथमतः प्राचीन मदिरों का मूल-स्वरूप न बदला जाये
निम्न प्रस्ताव पारित कर मति-तस्करी के विरोध मे और दूसरे जहां विशाल मूर्ति को अनावृत्त कर दिया है
अपना दृढ़ संकल्प स्पष्ट किया। जरूरत है कि समाज वहाँ तत्काल कोलेपसेवस-गेट लगाकर मूर्ति को सुरिक्षत कर दिया जाये जैसे धूवोनजी, आहारजी ग्रादि, तीमरे
एव संस्थाए इस प्रस्ताव के अनुसार कार्यवाही कर अपना बदि प्रवचन हेतु विशाल हाल बनाया जाना आवश्यक है
मूति-तस्करी-विरोधी सकल्प प्रमाणित करें। यदि ऐसा वो उसका निर्माण मदिर से पृथक किया जाये।
नहीं हुआ तो दक्षिण भारत का मति-वैभव भी हमारे देश
से लुप्त हो जावेगा। इस सम्बन्ध में सम्माननीय स्वस्ति मूति-तस्करी से सुरक्षा :
श्री चारुकीति भट्टारक स्वामी श्रवणबेलगोल का भी विगत तीन दशको से भारत मे मतिरकी का ध्यान आकषित किया है। उद्योग खुब पनपा है। जैन-सस्कृति ऐमे तस्करी के लिए
ओ०पी० मिल्स अमलाई-४०४ : ११७
-भक्ति-परक सभी प्रसंग सर्वाङ्गीण याथातथ्य के स्वरूप के प्रतिपादक नहीं होते। कुछ में भक्ति-अनुराग-उद्रेक जैसा कुछ और भी होता है। जैसे- 'शान्तेविधाताशरणं गतानाम्', 'पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः', 'श्रेयसे जिनवृष प्रसीद न.' इत्यादि । इन स्थलों में कर्तृत्व को स्पष्ट पुष्टि है जब कि आत्म-स्वभाव इससे बिल्कुल उल्टा। ऐसे में विवेक पूर्वक वस्तु को परखना चाहिए कि वक्ता को दृष्टि क्या है ?
x -तू जानो, धनो या कहीं का कोई अधिकारी है, यह सोचना महत्त्वपूर्ण नहीं। मपितु महत्वपूर्ण ये है कि तूने कितनों को जानो धनी या अधिकारी बनने में कितना योग दिया:
'जो अघोन को आप समान। करेन सो निम्वित धनवान ॥'