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charan of the description in three of the shrines is "With regard to the Ekrarnama of 1872 above rewrong of which the Digambars are entitled to
ferred to, it is necessary to observe that the Privy complain."
Council have recently held that the deed is bad as पालगंज राजा के अधिकार की सीमा
oftending against the rule of perpetuties" जैन श्वेताम्बर सोसाइटी कलकत्ता भी 1872 और 1878 के
1878 का इकरारनामा 1872 के इकरारनामे की सत्य समझौतो के आधार पर श्री शिखर जी पर स्वामित्व और प्रबध प्रतिलिपि मात्र है। अत इन इकरारनामो के आधार पर कलकत्ते का दावा कर रही है । वास्तविकता यह है कि भूतपूर्व जमीदार की जैन श्वेताम्बर सोसाइटी का भी कोई अधिकार मदिर और राजा पालगज को पर्वतराज पर स्थित मदिरो और टोको के सवध टोको पर नहीं है और न ही उसे मदिर का चढ़ावा लेने का अधिकार में केवल इतना ही अधिकार था कि वह वहा पर यात्रियो के चढ़ाव है। इस सोसाइटी ने पर्वतराज के बिहार राज्य में निहित हो जाने को ले सकता था पर इस शर्त पर कि वह मदिरो और टोको की के सत्य को स्वीकार करके हाल ही में लगभग डेढ़ लाख रुपया तथा यात्रियों की सुरक्षा का प्रबध इस एवज में करेगा । बगाल सरकार के पास उक्त इकरारनामों के आधार पर जमा किया के फोर्ट विलियम उच्च न्यायालय ने 25 जून, 1892 के फैसले में है। अब स्वामित्व का दावा आनन्दजी कल्याणजी ट्रस्ट और उक्त तथा हजारीबाग के अवर न्यायाधीश ने वाद स० 288/1912 के सोमाइटी दोनो कर रहे है । फैसले में इस बात को स्पष्ट कर दिया है -
विकास में बाधक कौन ? "The importance of this is that in 1859 to 1861 the दिगम्बर जैन समाज ने यात्रियों की सुविधार्थ 1898 में 705 Guardian of Raja Palganj was claiming Parasnath
सीढ़िया सीतानाले में भगवान कन्थनाथ की टोक तक बनाई थी Hull, not as having been settled with bis ancestors as being included in Guddi Palganj, but as being part of जिनमे से श्वेताम्बर 205 सीढ़िया ही तोड़ पाये थे कि दिगम्बरो some estate which had been conlirined to his tamily नेवाद स 1/1900 डाल कर मीढी तोडने से श्वेताम्बरो पर रोक on the condition of their protecting the shines and the pilgrims ""But it seems that beyond guarding
लगाने की प्रार्थना की । हजारीबाग के अपर न्यायाधीश ने the temples the Raja had nothing to do with their 991901 के आदेश में निर्णय दिया कि श्वेताम्बरो द्वारा सीढ़ी nepurs and maintenance"
तोड़ना उनका अपकृत्य था । दिगम्बरो को सीढ़ी बनाने का न्यायालयो के इन निर्णयो से राजा के अधिकार की सीमाए. अधिकार है । विद्वान जज ने हर्जाने के रूप मे 1845/- रुपये स्पष्ट हो जाती है । जमींदार के चढ़ावा लेने मात्र के अधिकार श्वेताम्बरो से दिगम्बरो को दिलवाये। को श्वेताम्बर जैन सोसाइटी ने अस्थायी तौर पर 1872 मे और
"The Swetambari scct cannot deprive the Digambari 1878 मे स्थायी तौर पर दो इकरारनामो के जरिए जमींदार से Sect of their right of way over the path The Defts प्राप्त किया । इस सदर्भ मे दो बाते महत्वपूर्ण है। पहली तो यह individually and as agent of and servants of the
Swetambari Sect had, in my opinion no right to कि सोसाइटी ने केवल श्वेताम्बरी मदिरो मे प्राप्त होने वाले चढ़ावे
demolish the stairs and remove the same ......... की बाबत ही इकरार किये थे। उनमे स्पष्ट लिखा है कि इकरार They are hereby warned not to commit further हो जाने के बाद जमींदार या उसके आदमी जैन श्वेताम्बरी mischief and resist the construction of the stairs.
They shall pay Rs 1845/-as damages to the plaintifl सोसाइटी के मदिरो में न तो बाधा पहचाएगे और न उनके
(Digambars) पुजारियो के काम में बाधा या विवाद करेगे -
जो यात्री पर्वत की यात्रा के लिए जाते है उन्होने देखा होगा The condition (of this Ekrar) are these that youोलासोटा nीडिया नोटले नाट तनी र्ट cm
कि श्वेताम्बरो द्वारा 205 सीढ़िया तोड़ने के बाद बची हुई 500 or your heirs etc or any person on your (Jamindar's) bchalt will not commit outrage at any time in the सीढ़िया जो दिगम्बरो ने बनाई थी आज भी वहा मौजद है। स्पष्ट temples of the Jain Swetambars Society or create है कि विकास मे बापक मात्र श्वेताम्बरी है। unjustifiable dispute with the pujaries of the Jain
Swetambari society or do harm to their acts or duty " मानवता पर प्रश्न चिन्ह? इकरारनामे गैरकानूनी
सन् 1912 मे श्वेताम्बरो ने दिगम्बरो के विरुद्ध वाद न. 288/ 1872 के इकरारनामे को पटना उच्च न्यायालय एव प्रिवी 1914 व वाद न 4 दायर करके न्यायालय से प्रार्थना की कि कौसिल ने गैर कानूनी करार दिया है। (अपील स० 46/1916 दिगम्बरो को मदिरो और टोको में उनकी अनुमति के बिना पूजातथा 104/1917 निर्णय दि० 144 1921)
दर्शन से सदैव के लिए वचित कर दिया जाए । विद्वान न्यायाधीश