Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 77
________________ सत्य को पहचानिए "हमारे साथ जो हाक्टर विद्वान थे, जिन्होने पहनी गत दिनों हमारे पास एक नेता का पत्र आया है कि बार साधु संघों में कुछ ऐसा देखा, जो वीतरागता के फेम 'क्या गत्य है और क्या असत्य इसका कभी कोई मूल्याकन में फिट नही बैठता, उन्होने कुछ दशो पर साश्चर्य वेदना इस समाज मे नही होगा।' व्यक को। हमने उनसे इतना ही कहा उक्त सभी प्रसग सामाजिक मनोदशा एव त्याग की रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय। बिगडी स्थिति को जिस रूप में प्रस्तुत करते हैं वह सर्वथा सुनि अठिलंहें लोग सब, बाटि न लहें कोय ॥" । चिन्तनीय है पर हम निराश नहीं हैं। हमारी दृष्टि तो -जैन सजट, सपादकीय ३० जन ६४ इसी समाज पर लगी है । हम यह जानने के ही प्रयत्न मे उक्त विचार एक प्रबुद्ध सपादक के है। सपादक है कि क्या वास्तव में ही समाज अच्छे बुरे की पहिचान में जी स्वयं चारित्रवान् और सच्चारित्र समर्थक है. नाकारा है? यदि ऐसा होता तब न तो पं० नरेन्द्र प्रकाश उन्हें मुनि पोर श्रावक की चर्या का भी पूरा ज्ञान जी ही गत्य मनोभावना उजागर करते और न महासभा है। वे धर्म-संरक्षणी विशेषण-युक्त महासभा के ही पू०० शान्निसागर जी को मान दे-अकलीकर प्रतिष्ठित सक्रिय कार्यकर्ता भी हैं। उनके उक्त कथन में प्रमग के पटाक्षेप की बात कहती। कितना दर्द और कितनी वेदना है-इसे पाठक महमूम करें। इसी लेख में उन्होने समाज के प्रति भी लिखा स्मरण रहे लोग असलियत भी समझते है -हाँ, धर्म भीगत्व, अन्धधता, स्वार्थपरता और बुराई उजागर 'एक दूसरे के सनमे-समझने की पद्धति का अभी होने का आत आदि उन्हे मोन के लिए प्रेरित करते हैं। अपने समाज में विकास नहीं हुआ है।' और उनकी इमी कमजोरी का गलत फायदा उठाकर कुछ इसी प्रकार दिगम्बर जैन महासभा ने अपने लखनऊ लोगो ने परपरित मूल-आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विहिन अधिवेशन में चा० च० पू० प्रा० शान्तिसागर महाराज श्रावक व मुनि के आचार को मिट्टी खराव कर रखी है। को इस सदी का प्रथम आचार्य घोषित कर अकलीकर और दिगम्बर विहिन दिगम्बर-धम दिनो-दिन क्षीण हो प्रसम के पटाक्षेप की कामना की है। स्मरण रहे यह रहा है। पाशा है कुछ प्रबुद्ध-!न धर्म-रक्षण रूप यज्ञ कलहकारी प्रसंग भी किन्हीं पूज्य मुनिराज द्वारा ही। प्रारम रंग और आहुति डालेग। ताकि दिगम्बरस्व की उछाला गया है। सच्चाई को उजागर करने के लिए रक्षा हो। महासभा को धन्यवाद । -सम्पादक मत परिग्रह कर यहां कुछ थिर नहीं है, व्यर्थ है संग्रह, जरूरत चिर नहीं है । हो सको अपना न बोलत रूप सो मो, मौत से पहिले निजी तन, फिर नहीं है। 'छयस्थ-लौकिक पुरुष चाहे कितने भो प्रसिद्ध विद्वान क्यों न हों ? उन सभी के सभी लेख, वार्तालाप सैद्धान्तिक-प्रसंगों में जिनागम का रहस्योद्घाटन नहीं करते-उनमें कुछ और भो हो सकता है। अतः ज्ञानी पुरुष प्रमाण और नय को कसौटी पर परखकर हो उनको हेयोपदेवता का निर्णय करते हैं। वे उनके मन्तव्यों को प्रचारित मी तभी करते हैं।'

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