Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 80
________________ बर्ष ४६ अंकका शेष भाग: श्री लंका में जैनधर्म और अशोक 0 भी राज मल जैन, जनकपुरो, बिल्ली यदि सचमुच ही अशोक ने बौवधर्म का प्रचार किया विद्यमान था। यहां नाग या असुर जाति के लोग बसते होता, तो वह अपने शिलालेखों में इस बात का उल्लेख ये तथा नग्न मुनि भी वहां थे। प्रश्न हो सकता है कि अवश्य करता कि उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघ- नग्न जैन मुनि वहां कैसे पहुंचे ? बीच में तो समुद्र है। मित्रा को श्रीलंका मे बौद्धधर्म के प्रचार के लिए अपने इसका उत्तर डा० पपनाभन ने इस प्रकार दिया हैशासनकाल के अमुक वर्ष में भेजा है। उसने बौद्धग्रन्थों "Presumably the Jain monks wbo had bcen का तो तथाकथित उल्लेख किया, पुत्र पुत्री के महत्त्वपूर्ण in Garl in Ceylon migrated from Iddia through Karअभियान का उल्लेख नही किया । क्या उनकी महत्ता उन yakumari, to the South of which was a large अशो से कम थी? डा० भाडारकर, विन्सेन्ट स्मिथ, काशीप्रसाद जायस mass of land, subsequently swallowed by sea. वाल (मौर्य साम्राज्य का इतिहास) जैसे अनेक इतिहास the fact that the Jain doctrines do not allow कार यह स्वीकार करते हैं कि अशोक अपने प्रारम्भिक their monks to cross the sea must be rememजीवन में अवश्य ही जैन था। ऊपर दिये गये अनेक तथ्य bered." अतएव यह कथन कि श्रीलंका में जनधर्म भी यही सकेत देते हैं कि अशोक ने जैनधर्म का ही प्रचार तमिलनाडु के पूर्वी तट से पहुंचा होगा युक्तिसंगत नही किया और उसके जैनधर्मानुयाधी शिलालेखों का केरल लगता। अतः केरल में ईसा पूर्व पांचवा-छठी शताब्दी में पर भी प्रभाव पड़ा। जैनधर्म विद्यमान होने की सम्भावना प्रबल है। कालातर में अशोक के "देवानांप्रिय"-देवताओं को प्रसिद्ध पुरातत्वविद फर्ग्युसन ने लिखा है कि कुछ भी प्रिय की वडी दुर्गति हुई जान पड़ती है। इस शब्द का यूरोपियन लोगों ने श्रीलका में सात और तीन फणों वाली अर्थ पशुप्रो के समान मूर्ख या बकरा हो गया (देखिए मतियों के चित्र लिए थे। सात या नौ फण पाश्वनाथ को आप्टे का सस्कृत-अग्रेजी कोश)।। मति पर और तीन फण उनके शासनदेव धरणेन्द्र एवं __ अशोक के पूर्वज चन्द्रगुप्त और बिदुमार जैन थे और शासनदेवी पावती की मूर्ति पर बनाए जाते हैं। इस उसके उत्तराधिकारी कुणाल, सप्रति, दशरथ और बृहद्रय प्रकार के बहुत से जैन अवशेष नष्ट हो गए। ईसा पूर्व सभी जैनधर्म के अनुयायी थे। ऐमा लगता है कि अघकचरी ३८ मे श्रीलका के शासक वगामिनी ने जैन मन्दिरों जानकारी के आधार पर उसे बोर कह दिया गया है। और मठो का ध्वस कराकर उनके स्थान पर बोर मंदिर ऊपर लिखित तथ्य यह सकेत देते हैं कि अशोक के और विहार बनवाए थे। समय में भी केरल मे जैनधर्म का प्रचार रहा और उसने भी जैनधर्म के समता या मधमाका श्रीलका सम्बन्धी उक्त तथ्य यह प्रमाणित करते है दया आदि का प्रचार किया। कि चन्द्रगुप्त मौर्य के दक्षिण आगमन से पूर्व ही जैनधर्म श्रीलका सम्बन्धी तथ्यों के आधार पर यह मम्भव केरल के रास्ते श्रीलका में फैल चुका था। जान पड़ता है कि श्रीलका मे जैनधर्म बौद्धधर्म से भी पहले B-1/324, Janakpuri, New Delhi-58 आजीवन सदस्यता शुल्क । १०१.०... वाषिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मस्यः १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह मावश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। कागन प्राप्ति:-श्रीमती अंगरोवेवी बैन, धर्मपत्नी श्री शान्तोलालबन कागजो के सोजन्य, नई दिल्ली-२

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