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श्री पार्श्वनाथाय नम
श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ पर्वत)
के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य
था।
वस्तुस्थिति
3 विशेषावश्यक भाष्य' से उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैन समाज के नेताओ द्वारा दिगम्बर
कि ऋषभदेव आदि सभी (चौबीसों) तीर्थकर पाणिपात्र जैन समाज पर निरन्तर अनर्गल आरोप लगाए जा रहे है, जिनमे
आहार ग्रहण करते थे। उनका मुख्य आरोप यह भी है कि श्वेताम्बर मत दिगम्बरो में 'निरुवमधिसघयणा चउनाणाइ सयसत्त सपण्णा । प्राचीन है, जो न तो तथ्यात्मक आधार पर सही है और न ही अछिहपाणिफ्ता जिणा जिय परीसहा सव्वे ।।' सामाजिक एवं मानवीय दृष्टि से शोभनीय है। हम यहा उनके
-गाथा 3083 आरोपो का निराकरण उन्हीं के धर्मग्रन्थों, विश्वमान्य संदर्भ ग्रंथो 'जिना हि सर्वे निरुपमधतयो वज्रकटकसमान परिणामा भवन्ति, एव न्यायालयों के निर्णयों के आधार पर प्रस्तुत कर रहे है जिससे तथा चतानिनश्छद्मस्था सन्तोऽतिशयवन्तश्च, तथा समाज मे किसी प्रकार के भ्रम की गुजाइश न रहे ।
अच्छिद्रपाण्यादयः जित परीषहा ।' गाथा 3083 टीका 'श्वेताम्बर शास्त्रों के अनुसार दिगम्बर प्राचीन |
-प्रकाशक ऋषभदेव केसरीमल श्वेताम्बर सस्था, रतलाम, 1937 श्वेताम्बराचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य 4 श्वेताम्बर प्राकत कोश अभिधान राजेन्द्र (द्वितीय भाग) के की गाथा 3076 मे उल्लेख किया है कि जिनकल्प (नग्नता)
पृष्ठ 1132 मे स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान प्रवमदेव नग्न जम्बूस्वामी के बाद छिन होगयी अर्थात उसके पूर्व दिगम्बरत्व
'भगव अरहा उसमे कोसलिए सवच्छर साहिय चीवरधारी 'मण परमोधि पुलाए आहारगखवग उवसमे कप्पे ।
होत्था ।'सजमतिय केवलिसिज्झणा य जंबुम्मि बोशिण्णा ।।'
'उसहेण अरहा कोसलिए सवच्छर साहिय चीवरधारी 'मन पर्ययज्ञान, परमावधिरुत्कृष्टमवधिज्ञानम्, पुलाकलब्धि ,
होत्था तेण पर अचेलये ।' आहारकशरीरकलब्धि., क्षयोपशमश्रेणिद्वयम्कल्पग्रहणाज्जिनकल्प , सयमत्रिक-परिहारविशुद्धिसूक्ष्म
-प्रकाशक समस्त श्वेताम्बर संघ, रतलाम, सवत 1967 सापराय-यथाख्यातानि, केवलज्ञान, सिद्धगमन च । 5 श्वेताम्बरो के प्रसिद्ध ग्रन्थ कल्पसूत्र से भी दिगम्वरत्व की एतेऽम्बिनाम्नि सुधर्मगणधरशिष्ये व्युच्छिन्ना-तस्मिन् सति
पुष्टि होती है । दीक्षा के दिन से भगवान महावीर एक वर्ष अनुवृत्ता तस्मिनिर्वाणे व्युच्छिना इति ।'-(वही टीका) । और एक मास पर्यन्त वस्त्रधारी रहे । इसके पश्चात् वे वस्त्र -प्रकाशक लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, रहित हो गए और हाथों मे आहार ग्रहण करने लगे। अहमदाबाद, 1968
'समण भगव महावीरे संवच्छरं साहिय मास जाव 2 प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द जी ने "त्रिषष्ठि शलाका
चीवरधारी हुत्था । तेण पर अचेले पाणिपडिग्गहिए' . पुरुष" (आदिनाथ) चरित्र, पर्व-1, सर्ग-3, श्लोक 292
-प्रकाशक श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर, वि स 2029 293 मे स्वीकार किया है कि प्रथमदेव ने पाणिपात्र (हाथो में) मे आहार ग्रहण किया, जबकि श्वेताम्बरो मे पाणिपात्र 6 एक अन्य श्वेताम्बर ग्रथ "पचाशक मूल''-17 मे कथन का नियम नही है ।
आया है आचेलक्को धम्मोपुरिमस्सया पछिमस्स यजिणस्स _ 'प्रभुरप्यंजुलिकृत्य पाणिपात्रमधारयत् ।'-292
अर्थात् पूर्व के ऋषभदेव और बाद के महावीर का धर्म 'भूयानपिरस. पाणिपात्रे भगवो पपौ ।'-293
अचेलक (निर्वस्त्र)मा -प्रकाशक श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, सवत 1961 -प्रकाशक ऋषभदेव केसरी मल श्वेताम्बर सस्था, रतलाम, 1928