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२० वर्ष ४७, कि० २
अनेकान्त
(१३) विभाव तथा सयोगो की समीपता छोड़कर यही ब्रह्म है आत्मा की पहिचान ज्ञान भाव से है यह एक आत्मा की समीपता करना। इसी का ज्ञान करना सम- भाव बैठ जाए कि मैं ज्ञान स्वरूप हू, जानन स्वरूप हैं। कित है।
जानन स्वरूप क्या है ? शुद्ध जानना ही जान स्वरूप है। (१४) हे मानव ! मतिश्रुत का व्यापार स्वसन्मुख इस ही लक्ष्य में लग जाएँ और जानकर केवल अपनी करो और समकित पाओ।
आत्मा मे, जिसे कहते हैं 'ज्ञान ज्योति', उसमे ही लन (१५) सर्व प्रथम जीव सात तत्त्व का स्वरूप समझे
जाएं तो ज्ञानानुभव [=सम्यक्त्व होता है । फिर विशेष रूप से द्रव्य गुण पर्याय को पहिचाने। फिर
रे ! बाह्यवस्तु को सुखकारी मानते हो, कल्याणकारी आत्मदव्य के सामान्य स्वभाव को जानकर, उस पर दृष्टि मानते हो; असल मे देखा तो वही निमित रूप से द ख का करके. उसका अभ्यास करते-२ उसी मे स्थिर हो जाए। कारण बन रहा है। (१६) सब प्रथम चेतन का ज्ञान करना । फिर उसी
जितना राग बुरा नही, उतना मोह बुरा है। जा मे विश्वास करना, फिर उमी में स्थिर होना, सम्यक्त्वो.
बाह्य वस्तुएँ सुहा जाए यह राग है । बाघ वस्तु को मेरी पाय है।
समझना मोह है। बाह्य वस्तु मे ममत्व मान लेना हो (१७) इसके लिए निरन्तर ज्ञायक का ही अभ्यास,
मोह है तथा बाह्य वस्तुएं सुहा जाने का नाम राग है। जायक का ही मन्थन : इसी का चिन्तन हो तो समकित
मोह अर्थात राग मे राग। पर वस्तु मे राग हो गया। प्रकट हो। नो तत्त्वो मे मात्र जीव तत्व ही उपादेय है। उनमे
यह राग मै हू । राग से हो मेरा कल्याण है, मेरी भलाई
है। यह हुआ राग का राग । राग मे राग हो जाने का मैं स्वय एक ही जीव निज के लिए उपादेय है। शेष जीव ।
नाम ही मोह या मिथ्यात्व है। तत्त्व तथा अन्य सर्ब अजीवादिक तत्त्व उपादेय नही। सवर
मैं तो केवल एक ज्ञानमात्र, जो पकडा नही जा निजंग तथा मोक्ष तो पर्याय हैं। ये भी दृष्टि के विषय
सकता, छेदा नही जा सकता, घेरा नही जा सकता, आंखो नही (भले ही कचित् उपादेय हो) मेरी दृष्टि का विषय
से देखा नहीं जा सकता; ऐसा ही मै एक चैतन्य वस्तु है। तो ध्र वतत्व "मेग आत्मा" ज्ञायक, शायक बम शायक
मेरा किसी से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं पृथक् ह, सबसे जब वह मतिश्रत जान का विषय बन जाए ता मम्य- न्यारा है। जिसकी इस कार को दृष्टि होगी उसको पत्व हो।
शान्ति प्राप्त हो सकती है । आश्चर्य की बात है कि ह आत्मा स्वय अपने ही जगत के सभी समागमो से हट कर मैं उपयोग को अस्तित्व पर शंका करता है अथवा उसे मानने से इन्कार अपने ज्ञानमात्र, ज्ञायक स्वरूप मे लाऊँ; यही विबेक है। करता है।
मैं निज जानन मे हो रम, यही प्रभु का दर्शन है। सत्य हे द्र! किसी पर पदार्थ पर मोह दष्टि न रख,
का पाग्रह हो तो सत्य का दर्शन होगा ही। उस पर आसक्त न हो।
मेरी जाननमात्र ही चेष्टा हो, बाकी सब काम नही हो यदि यह उपयोग बन जाए कि मेरा प्रभु मैं ही है।
बाहर मे दृष्टि गई तो वहाँ शान्ति नही मिलेगी । शान्ति मैं जगत के सब पदार्थों से न्यारा है। यदि ऐसा उपयोग
तो वहाँ है जहाँ बाहर मे दृष्टि न हो। कुछ मत सोचो, बन जाएगा तो तेरा उत्थान होगा।
कुछ मत बोलो, कुछ मत करो। कल्पना जल्पना चलपना हे आत्मन् । पर मे दृष्टि न रख, पर मे दृष्टि रखने से तुझे दुख होगे।
क्या है ? कल्पना का सम्बन्ध मन से है। जल्पना का बारमा की पहिचान ज्ञान लक्षण से होती है और सम्बन्ध वचनो से होता है। चलपना उठकर चल देना है। जान लक्षण का कोई आकार नहीं है। ज्ञान ही ज्ञान का जहाँ न कल्पना हो, न जल्पना हो न चलपना हो; केवल आकार है और ज्ञान हो आत्मा का लक्षण है। इसलिए स्वरूप काही परिग्रह हो तो तत्त्वज्ञान की प्रवृत्ति बढ़े, भात्मा निराकार है। यह तो केवल "ज्ञान ज्योति" है। वहाँ शान्ति मिलती है। जिसने अपने स्वरूप को लक्ष्य में