________________
अनेकान्त/३६
जरा-सोचिए
पुनर्जागरण :
हमने पहिले लिखा था-हमारा अतरग कह रहा है कि स्वर्गो मे बैठे हमारे दिवंगत दिगम्बराचार्य उनकी व्याकरणातीत जनभाषा मे किए गए परिवर्तनो को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे है ओर उन्हे सन्तोष है कि कोई उनकी ध्वनि-प्रतिकृतियो के सही रूप को बडी निष्ठा और लगन से निहार, उनकी सुरक्षा मे प्राण-पण से सलग्न है। भला, यह भी कहाँ तक उचित है कि शब्द-रूपो की बदल मे दिगम्बर-आगम-वचन तो गणE र ओर आचार्यों द्वारा परम्परित वाणी कहलाए जाते रहे और बदलाव-रहित दिगम्बरेतर आगमो के तद्रूप-वचन बाद के उदभूत कहलाएँ? हमे भाषा की दृष्टि से इस बिन्दु को भी आगे लाकर विचारना होगा। भविष्य मे ऐसा न हो कि कभी दिगम्बर समाज को इस बदलाव का खमियाजा किसी बडी हानि के रूप मे भगतना पड जाय? ऐसा खमियाजा क्या हो सकता है, यह श्रद्धालुओ का विचारना है-वैज्ञानिक पद्धति के हामी कुछ प्राकृतज्ञ तो सही बात कहकर भी किन्ही मजबरियो मे विवश जेंसे दिखते है। ओर वे आर्ष--भाषा से उत्पन्न उस व्याकरण के आधार पर विद्वान बने है, जो बहुत बाद का है। ओर शौरसेनी आदि जैसे नामकरण आदि भी बहुत बाद (व्याकरण निर्माण के समय) की उपज है। क्योकि जन-भाषा तो सदा ही सर्वागीण रही है। जो प्राकृत मे डिगरीधारी नही है। और प्राकृत भाषा के आगमो का चिरकाल से मन्थन करते रहे है-उन्हे भी इसे सोचना चाहिए-हमे अपनी कोई जिद नही। जैसा समझे लिख दिया-विचार देने का हमे अधिकार है। और आगम रक्षा धर्म भी। हमारी समझ से बदलाव के लिए जो व्यय अभी होगा, वह अत्यल्प होगा-उसका पूरा मूल्य तो भाषा-दृष्टि से आगम के अप्रमाणिक सिद्ध होने पर ही चुकता हो सकेगा। और अब
पाठको ने देखा-कुंदकुंद साहित्य की वर्तमान भाषा को अत्यन्त भ्रष्ट और अशुद्ध घोषित करने वाले अपनी उक्त गलत घोषणा को राही सिद्ध करने के लिए कैसी उठापटक मे लगे है-वे समाज का प्रभूत द्रव्य व्यय करा आधुनिक विद्वानो को इकट्ठा कर उनसे पक्ष मे हाँ कराने के प्रयत्न मे लगे है और इस अर्थयुग मे, जिन्हे प्राकृत का बोध भी नही ऐसे कतिपय कथित विद्वान भी बहती गगा मे हाथ धोने मे लगे है।