Book Title: Anekant 1994 Book 47 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 64
________________ मिनासा एवं समाधान नही, कर्म तथा कर्मफल चेतना भी होती है। मिथ्यावृष्टि सोचता है : इस जग मे ७०० करोड अव्रती सम्यक्त्वी मनुष्य चाहत हो, धन हो विधि. है । जबकि कुल मनुष्य पांचवे वर्गस्थान बादाल के धन तो सब काज सरै जियराजी। प्रमाण हैं। [षट्ख पृ. ६४, ब्रह्मविलाम पृ० ११०, धवल गेह चिनाय करू गहना कछ, /२५२] व्याह सुनामुन बाटिये भाजी॥ (सकल मनुष्यो की संख्या २२ अंक प्रमाण भी मानी चिनत यो दिन जाहि चले जाए तो भी १३ अफ सख्या पर यानी औसतन १० खरब जम आन अमानक देत दग'जी। मनुष्यों पर एक सम्यक्त्वी गृहस्थ प्राप्त होता है।) सारतः खेनत खेर खिलारी गये, औसत की दृष्टि से इस सकल ६ अरब सख्या वाले इस रहजाय रूपी शतरंज की बाजी ।। आधुनिक विश्व मे तो एक भी सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं सम्यग्दष्टि सोचता है : होता । स्मरण रहे कि यह औसत को अपेक्षा कथन किया दुखमय जगत के विभाव को चाह नहीं, है । फिर हम मुण्डे मुण्डे मनो मन सम्यग्दृष्टि बनते हैं। चाह नही नाथ मुझे पदाधीश कर दे। यह हास्यास्पद बात है। सम्यग्दष्टि अवती की दशा भी पराधीन रोगगम कोगों को न चाह मुझे, बडी अलौकिक हो जाती है। दौलतराम जी ने ठीक ही चाह नही बड़े-बड़े महलो मे धर दे ।। मोहकारी पुत्र पौत्र मित्रो को न चाह मुझे, गही पे घर में न रच, ज्यो जल ते भिन्न कमल है। चाह नही स्वर्णमयी जेवर और जर दे। नगर नारी को प्यार यथा, कादे मे हेम अमल है। छोड जग राह नाथ चाह एक चाहता हूँ, जिसे संमार से रोना आ जा, सपार वास न सुहाए भक्त मणि मानस मे भक्तिभाव भर दे। उसे यत्न करने पर आस्न-बोध हो सकता है। सम्यग्दष्टि मिथ्यादष्टि सोचता है: तथा मिध्यावृष्टि के परिणामों मे अन्तर का परिज्ञान रागउ भोगमाव लागत सुहावने से, करने के लिए तथा सम्यक्त्वी परिणामों का बोध कराने । बिसाराम ऐसे लाग जैसे नाग कारे हैं। लिए नीचे मैं डा. मुलचन्द जी सनावद द्वारा सकलित राग ही सौ पाग रह न मे सदैव जीव, पयो को उढ़ा करता है राग मिट गुमा अपार खेल सारे हैं। रागी बिन रागी के विचार मे बहो ही भेद सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि जमे भटा पण काहू काहू को बयारे हैं । सम्यग्दृष्टि सोचता है: सम्यग्दष्टि: जोई दिन कट, सोई आयु मे अवश्य घटै। भेद विज्ञान जम्यो जिनके घट, बूंद-बद बीते जैसे अंजुरी का जल है । शीतल चित्त भयो जिमिचदा । देह नित झोन होत, नन तेज हीन होत । केलिकर शिव मारग में, यौवन मलीन होत, क्षीण होत बल है ।। जगमाहि जिनेश्वर के लघु नदन । बाव जरानेरी, तक अंतक अहेगे आय । शान्तस्वरूप दशा तिनकी. परभो नजीक आय नरभो निफल है ॥ प्रगटी अवदात मिध्यात्व निकंदन । मिल मिलापी जन पूछन कुशस मेरी। णान्त दणा तिनको पहचान, ऐमी दशा माहि मित्र, काहे को कुशल !? करें कर जोड बनामि दन ।।

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