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१६, ४७, कि०२
अनेकान्त
मिथ्यात्वी विशुद्ध हो जाता है, करण लब्धि के क्षणो में। हो जाता है वह छह मास बाद भी यदि नहीं विनशता तो क्योकि उसके तो अविपाक निर्जरा-गुणश्रेणिनिर्जरा हो समझ लेना चाहिए कि आप मिथ्यादृष्टि हैं तथा जो शुरू रही है करण लब्धि मे । (मुख्तार अथ ११०८) पर इस मे मद उपजा था वह भी मिथ्यात्व सहित था। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यक्त्वी के गुणणि निर्जरा
सम्यक्त्वी के क्रोध मान माया तथा लोभ के संस्कार नही हो रही है।[१० टोडरमल जी मो० मा० प्र० ६ माम से अधिक नही रहते । यह आगम है उसे इष्ट सस्ती० ३०८, ३४१, ३६४]
अनिष्ट तो परपदार्थों के प्रति भासित होता है। पर वह बताओ, उस करण लब्धि में विगजमान सर्वविशुद्ध पर पदार्थों के प्रति इटानिष्ट रूप अवभासना आसक्ति सत्पुरुष सातिशय मिथ्यास्वी के ऐसे क्षण में मांसारिक सहित नहीं होती। इसीलिए तो इष्ट वियोम तथा अनिष्ट कार्यो में लीन रहना सम्भव है ? कदापि नहीं। उस क्षण सयाग आतध्यान छठ गुणस्थान तक कह ह । वह घर मे विराजमान हो सकता है। पर सांसारिक- सम्यग्दृष्टि की एकान्त दृष्टि समाप्त हो जाती है। गाईस्थिक काया से उस ममय वह निश्चित ही विरत हो वह "आत्मा कथंचित् द्रव्पकमो के परतत्र हैं, कथचित जाता है । उस समय वह ब्रह्म = आत्मा को पाने ज्ञान
स्वतत्र है", (धवल १२) इत्यादि स्याद्वाद के वाक्यों को
हृदय मे आने ज्ञान मे सोल्लास स्वीकार करता है । तो का विपप बनाता है उस क्षण उस पर चेतन अचेतनकृत उपसर्ग युगपन अनेक भी आ जावें तो भी उसमे वह पूर्ण
उमी क्षण अपनी श्रद्धा में शुद्धात्मा के प्रति ही लक्ष्य तथा रूप से अप्रभावित रहता है। कहा भी है ---दर्शन माह के
उपादेयता रूप बुद्धि धारण किए रहता है । दृष्टि व ध्यान उपशामक सर्व ही जीव निर्व्याघात अर्थात उपसर्गादिक के मे शुद्धात्मा ही अभीष्ट होती है उसे । पर उसके ज्ञान में आने पर भी विच्छेद नथा मरण से रहित होते है । [धवल
द्वादशाग के एक वाक्य के प्रति भी अपलार नही रहता जो ६/२३६ तथा जयध० १२ पृ० ३०२-३०३]
एक भी जिन वचन को नही मानता वह मिथ्यादृष्टि
है। [भगवती आराधना ३६] उस समय उसका विषय एक मात्र यात्मा=ब्रह्म
वह साधु मे यथार्थ मे कोई दोष हो तो उसे सबके ज्ञानप्रकाश =ज्ञापक ही रह जाता है । [उसकी कारणा
सामने नहीं कहता, ढांकता है। अन्य कहता हो तो उसे नयोगिक विशेषताए धवल ६/२३८ से २४२ तक का भा भी रोकता है। पिपुराण ०६/२३२] देखनी चाहिए
ऐसा सकल भूषण केवली ने कहा था (वही प्रमाण) सम्यग्दष्टि के प्रतिशोध के भाव समाप्तहा जात है। दारो की परीक्षा हेतु ऊट-पटांग प्रश्न पूछकर उसे नीचा बुरे का जवाब बुरे से नही देता । [पचाध्यायी २/४२७
दिखाना नही चाहता। [न टक समयसार साधक साध्य सद्य कृतापराधेषु-]
२६] बनारसीदास आदि निश्चित ही सम्पष्टि रहे थे, वह खाने-पीने की इच्छा अवश्य करता है, पर
ऐसा भासित होता है। (श्रीमद् राजचन्द्र) जिसके भोगाआसक्ति नही, उनमे आसक्त नही होता । आपने आज
भिलाषा भाव है वह मिध्यादृष्टि है। प० ध्या० सुबोधिनी सर्वाधिक मोटा आम खाया और बारह मास बाद भी प. ४१४.४२० उस आम को स्वाद को याद आती रहे तया वैमा आम
कदाचित् वह राम व युधिष्ठिर की तरह आत्मरक्षा खाने की इच्छा (लोभ, बनी रहे तो समझनो कि आपत यदादि भी मजबूरी वश करता है। वह मिध्यात्व, मिथ्यादष्ट हो। किसी ने आपको गाली दी हो या यप्पड अन्याय तया अभक्ष्य का त्यागी हो जाता है। सम्यक्त्व मारी हो तो ८-१०-१२ माम बाद उसे देखते ही उप्त पर चिन्तामणि प्रस्ता• पृ० ३८] देष, करता, क्रोध जाग्रत हो जाता है कि यह वही है वह परिस्थितिवश श्रेणिक की तरह आत्मघात या जिसने मुझे गाली दी अर्थात उम पर या उसके प्रनि वैर- सीता प्रतीन्द्र की तरह मोह । चारित्र मोह) वश राम भाव नष्ट नहीं हुआ तो आप मियादृष्टि है (क्रोध)। मुनि का ध्यान से डिगाने का भी यत्न करता है। [महा ग्वय के देह पर परिजन आदि को लेकर ना मद उत्पन्न धवल प्रस्ता० ८३ पृ० ६ वस्तुत: उसके जान चेतना ही