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आधुनिक सन्दर्भ में माचरण को शुद्धता
होकर बहुर्मुखी अधिक हैं । इसी प्रकार मनुष्य की समस्त विहार । आचरण से अभिप्राय यहाँ दोनों प्रकार के प्रवृत्तियों का आकर्षण केन्द्र वर्तमान में जितना अधिक आचरण से है-शारीरिक और मानसिक । शारीरिक भौतिकवाद है उतना आध्यात्मवाद नही। यही कारण है आचरण शरीर को और मानसिक आचरण मन को तो कि आज का मनुष्य भौतिक नश्वर सुखों में ही यथार्थ प्रभावित करता ही है साथ में शारीरिक आचरण मन सुख की अनुभूति करता है, जिसमे अन्तिम परिणाम को और मानसिक आचरण शरीर को भी प्रभावित विनाश के अतिरिक्त कुछ नही है। वर्तमान मे किया ना करता है। इन दोनो आचरण से मनुष्य की आत्मशक्ति रहा सतत चिन्तन, अनुभूति का घरातल, अनुशीलन की भी निश्चित रूप से प्रभावित होनी है। क्योकि आचरण परमरा और तीव्रगामी विचार प्रवाह सब मिलकर की शुद्धता आत्मशक्ति को बढ़ाने वाली और आचरण को भौतिकवाद के विशाल समुद्र में इस प्रकार विलीन हो अशुद्धता आत्मा का ह्रास करने वाली होती है। गए हैं कि जिसके अन्तर्जगत की समस्त प्रवृत्तियां अवरुद्ध इसका स्पष्ट प्रभाव मुनिजन, योगी, उत्तम साधु ओर हो गई हैं। इसका एफ यह परिणाम अवश्य हुआ है कि सन्यासियो में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे वर्तमान मनुष्य समाज को अनेक वैज्ञानिक उप-ब्धिया
गृहस्थ श्रावको में भी प्रात्म शक्ति की वृद्धि का प्रभाव प्राप्त हुई है, जिससे सम्पूर्ण विश्व मे एक अभूतपूर्व
दृष्टिगत हआ है जिन्होने अपने जीवन में आचरण की भौनिकतावादी वैज्ञानिक क्राति का प्रभार लक्षित हारहा
र लक्षित हो रहा शुद्धता को विशेष महत्व दिया । है । यह कानि आज वैज्ञानिक प्राति के नाम । कही जाती है और इसमें होने वाली प्रधान
यद्यपि भार वर्ष आरम्भ मे ही धर्मप्रधान और धामिक उपलब्धिया कहलाती है। आधुनिक विज्ञान प्रत्येक वृत्ति वाला यश रहा है आर देशवासियाका प्रत्यक गातावाध क्षेत्र मे ये वैज्ञानिक उपलब्धिया हुई है, और हो रही है। एवं आचरण धार्मिकता और प्राध्यात्मिकता से अनुप्राणित इस वैज्ञानिक कानि ने जहां धर्म और समाज को सावित रहा है, तथापि आज जनसाधारण धर्म और सम्प्रदाय में किया है, वहा मनुष्य जीवा का कोई भी अश उसके प्रभाव सट भेद नहीं कर पा रहा है । इतना ही नहीं, अपितु से अछूता नही रहा है। यही कारण है क मनाय के जनमाधारण सम्प्रदाय को ही धर्म मान कर तद्धत आचार, विचार एष आहार विहार में माज अपेताकृत आचरण कर रहा है। यद्यपि देश का प्रबुद्ध वर्ग एव अधिक परिवर्तन दिखलाई पड़ रहा है। आज मनुष्य ।
विद्वान जन धर्म और सम्प्रदाय मे स्पष्ट भेद करने और पुरातन परम्पराओं का पालन करते हए स्वय रूढिवादी उसे समझने में समर्थ है, किन्तु दुराग्रही विचारणा के कहलाना पसन्द नहीं करता है, क्योंकि हमारी प्राचीन कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा है। वास्तव में धर्म परम्पराए आज रविवादिता का पर्याय बन चको है। इस ओर सम्प्रदाय में बहुत बड़ा अतर है। धर्म उदार, विशाल परिस्थिति ने हमारे आहार-विहार तथा आचार-चार और सहिष्णु दृष्टिकोण अपनाता है जबकि सम्प्रदाय को भी अछु ।। नही रखा। इसी सदर्भ में हम अपने सकुचित दृष्टिकोण को जन्म देता है। अत. धर्म को वर्तमान खान-पान एव आचरण को देखना परखना व्यापक दष्टिकोण के रूप में देखना और समझना चाहिए । चाहिये । भारतीय मस्कृति में मनुष्य के आच ण को इस यथार्थ के साथ यदि देशवासी अपनी मानसिकता, शुद्धता को विशेष महत्व दिया गया है। जब तक मनुष्य दृष्टि कोण और वैज्ञानिक अवधारणा को अपनात है तो अपने आचरण को शुद्ध नही बनाता, तब तक उसका देश मे कही भी कभी भी धार्मिक उन्माद की परिणति शारीरिक विकास महत्वहीन एव अनुपयोगी है। मनुष्य के दगा-फसाद, हिंसा या रक्तपात के रूप में नहीं हो सकती
आवरण का पर्याप्त प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर पडता है। है। किन्तु स्थिति प्राज ऐमी नहीं है । सम्पूर्ण दश आज विपरीत आचरण या अशुद्ध आचरण मानव स्वास्थ्य को साम्प्रदायिक उन्माद की गहरी गिरफ्त में है, जो उसी प्रकार प्रभावित करता है जिस प्रकार उसका आहार धर्मान्धता, धार्मिक कट्टरता, पारसारिक विष और