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माधुनिक सन्दर्भ में प्राचरण को शुद्धता धर्म और उसके साधन की विधिया प्रभावित हुए बिना भाव का उदय नही होता है, वह मात्र ढोग एव आडम्बर कसे रह सकती हैं ?
है। जन धर्म में इस प्रकार का आचरण सदैव गहित किया
गया है, वह कदापि उपादेय नही है। मानव जीवन में आचरण को शुक्रता को विशेष महत्व दिया गया है। सांसारिक बधनो के अधीन
तथाकथित आधुनिक सुसंस्कृत समाज के सदर्भ मे गहस्थाश्रम में रहते हुए मनुष्य के लिए हिताहित विवेक
आचरण की शुद्धता तिनी उपयोगी, श्रेयस्करी एव एव हेयोपोदेय की बुद्धि परम आवश्यक है। उसो के उपादेय हो सकती है-इसकी प्रामाणिकता केवल कथम आधार पर वह अपने आचरण की शुद्धता पर अपेक्षित
मे नही, प्रयोग और आचरण को कसौटी पर ही कसी ध्यान केन्द्रित कर सकता है। अचरण की शुद्धता मनुष्य
जा सकती है। हमारी संस्कृति मे प्रतिपादित सिद्धात को सभी बुराइयो एव मिथ्याचरण से बचाती है, उसे
एव प्राचार मीमासा समग्र विश्व एव सम्पूर्ण प्राणी अहिंसक एवं सात्विक वृत्ति की प्रेरणा देती है तथा स्वभाव
समाज के लिए ऐसा अनुपम वरदान है, जो अन्यत्र दुर्लभ को सरल एवं विनय सम्पन्न बनाती है। यहाँ आचरण से
है । उसका अनुकरण पारिवारिक विवाद एव द्वेष भाव तानो प्रकार का आचरण अभिप्रेत है-कायिक आचरण,
को निर्मल कर सौहाई भाव एव स्वस्थ वातावरण का वाचिक आचरण एवं मानसिक आचरण । इनमें भी
निर्माण कर समाज मे सुख और शान्ति का प्रादुर्भाव कर
नजर मानसिक आचरण की शुद्धता पर विशेष बल दिया गया
सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि उसे पूर्वाग्रह है। शुभ या अशुभ, अच्छे या बुरे मनोभाव ही मनुष्य के
से मुक्त होकर देगा और परखा जाय । सात्विक आचरण शारीरिक एव वाचिक आचरण को प्रभावित करते है।
की सार्थकता उनके जनकरण, अनुपालन एव आचरण मे यदि मनुष्य की भावनाए शुद्ध एव स त्विक है तो उसे
निहित है, न कि आडम्बर और दिखावा मे । वस्तुतः अच्छा बोलने और अच्छा आचरण करने की प्रेरणा
यदि देखा जाये तो आधुनिकता के नाम पर हम जहर मिलेगी। मनुष्य का अपना आचरण उसके अपने वैयक्तिक
को अमृत मानकर पी रहे है और अमन को पुरानी बातें जीवन को तो प्रभावित करता ही है, उसके सम्पर्क में
कह कर तिरस्कृत कर रहे है। यह एक विडम्बना है कि आने वाले अन्य लोगों एवं समाज को भी अपेक्षित रूप
जो आचरणीय एव जीवन में उतारने योग्य सर्वथा व्यवसे प्रभवित करता है।
हारिक है, उसे तिलाजलि दी है और अनुपादेय एव हेय भारतीय धर्म और सस्कृति मे मनुष्य के लिए
को अपनाकर आचारित किया जा रहा है। युगो से चली आचरणीय जिस प्रकार का आधार प्रतिपादित है, वह
आ रही मूढ बनाने वाली मूलतः परम्पराए एव सामाजिक आधुनिक वातावरण के सन्दर्भ मे विशेष उपयोगी है। बेड़ियो तोड़कर वर्तमान प्रगतिशील समय मे अमूढ-दृष्टि पथभ्रष्ट एवं विवेकशून्य मनुष्य और समाज आज जिस बनाना तो प्रशसनीय है, किन्तु जीवन के शाश्वा नैतिक प्रकार दिशाहीन होकर अभक्ष्य भक्षण एव विभिन्न मूल्यों को 'पुराना" कह कर अवमानना या तिरस्कार कुप्रवृत्तियो में सलग्न है, उसे समुचित मार्गदर्शन एवं करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता । जीवन के दिशानिर्देश मात्र आचार शास्त्र द्वारा ही प्राप्त हो सकता
शाश्वत नैतिक मूल्यो को अपने आचरण में उतारकर है । आचार शास्त्र में कही भी रवमात्र भी ढोग, बाबर,
विस्तार देना हो रचनात्मक आधुनिकता एव प्रगतिकृषिमता एवं दिखावा के लिए कोई स्थान नही है। जिस शीलता है। आचरण के द्वारा मनुष्य के हृदय मे शुद्धता एव सात्विक
१-ई/६ स्वामी रामतीर्थ नार, नई दिल्ली-५५